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दंगों के बाद दिल्ली: गिरफ़्तारियों के डर से घर छोड़ने को मजबूर मुस्लिम मर्द, महिलाओं पर आई परिवार की ज़िम्मेदारी

दिल्ली के उत्तर-पूर्व के कुछ इलाकों में दंगों के मामलों में जबरन आरोपी बनाकर गिरफ़्तारी का डर छाया हुआ है। यहां के परिवार अब अपने घर के कमाऊ सदस्यों के बिना रहने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
दंगों के बाद दिल्ली

जैसे-जैसे लॉकडाउन में ढील होती जा रही है, दिल्ली के उत्तर-पूर्व के इलाके में गहमागहमी बढ़ती जा रही है। इस इलाके के खजूरी खास की संकरी गलियों में सांप्रदायिक तनाव और डर का माहौल बरकरार है। बता दें इस क्षेत्र में फरवरी में दंगे हुए थे।

27 नवंबर को अधेड़ उम्र के शख़्स महबूब आलम को खजूरी खास में लेन नंबर 29 में स्थित उनके घर से सादे कपड़ों में आए लोगों ने दंगों के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया था। गिरफ़्तारियों और डर के माहौल के चलते कई लोग इस लेन, यहां तक कि इस इलाके और कुछ तो इस शहर को छोड़कर जा चुके हैं। करीब 20 परिवार यहां बिना पुरुष सदस्यों के रह रहे हैं, जबकि यही लोग इनकी रोजी-रोटी का प्रबंध करते थे। अब महिलाओं और बच्चों को अपनी सुरक्षा खुद करनी है।

आलम की गिरफ़्तारी हाल के दिनों में हुई गिरफ़्तारियों में हुई एक घटना ही है। लेकिन लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद जारी गिरफ़्तारियों ने कई लोगों को उनके घरों को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है।

द हिंदू ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 22 मार्च से अप्रैल मध्य तक, उत्तरपूर्व दिल्ली में करीब 25 से 30 गिरफ़्तारियां हुईं। यह वह मुस्लिम बहुल इलाका है, जहां बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़ अब तक 802 गिरफ़्तारियां हो चुकी हैं, इनमें से 50 गिरफ़्तारियां लॉकडाउन के दौरान हुईं। लेकिन कुछ आंकड़े इन गिरफ्तारियों की संख्या को बहुत ज़्यादा बताते हैं, उनके मुताबिक़ हर साल 6 से 7 गिरफ़्तारियां हुई हैं।

इस साल की शुरुआत में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग (DMC) ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर एस एन श्रीवास्तव को एक शोकॉज नोटिस जारी किया। यह नोटिस इस आधार पर जारी किया गया था कि पुलिस अधिकारी उत्तरपूर्व जिले हर दिन "दर्जनों मुस्लिम लड़कों को गिरफ़्तार" कर रहे हैं और लॉकडाउन लगाए जाने के बाद भी गिरफ़्तारियां जारी रहीं।

इलाके के लोगों का आरोप है कि वीडियो सबूतों में छेड़खानी का इस्तेमाल समुदाय को दबाने और कुछ लोगों को गिरफ्तार करने के लिए किया जा रहा है। इन गिरफ़्तारियों के चलते इस इलाके में डर का माहौल है और स्थानीय लोग दिल्ली पुलिस के साथ उसे नियंत्रित करने वाले गृहमंत्रालय की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं। उनका आरोप है कि किसी भी शख्स को गिरफ़्तार कर, दिल्ली पुलिस द्वारा उसे दंगों की किसी घटना से दूरदराज का संबंध बताकर फंसाया जा रहा है।

"कम से कम मैं जानती हूं कि वह जिंदा हैं"

परवीन के पति ने 20 दिन पहले घर छोड़ा था, न्यूज़क्लिक से बात करते हुए परवीन ने कहा, "हमारे भीतर बहुत डर छाया हुआ है, हमारा घर तक जला दिया गया। इतना होने के बाद अब हमें लगता है कि वह हमारे पतियों को उठा सकते हैं। न्याय देने के बजाए, पुलिस, अपने खुद के घर जलाने और हिंसा उकसाने के आरोप में उन्हीं कार्रवाई कर सकती है।"

रुबीना (बदला हुआ नाम) एक और दंगा पीड़ित हैं। वे कहती हैं, "25 फरवरी को हमें लग रहा था कि हमें कुछ नहीं होगा, वह भीड़ हमारी लेन में नहीं आएगी। इसके बावजूद यह सब हो गया। अब हम किसी पर विश्वास कैसे करें? तब क्या होगा, जब मेरे पति को दूसरों की तरह गिरफ़्तार कर लिया जाए? तब मैं कहां जाऊंगी? मैं उनके बिना रह सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं देख सकती कि उन्हें फंसाकर बिना गलती के ही जेल भेजा जा रहा है।"

स्थानीय निवासियों का मानना है कि उनकी लेन में इसलिए तनाव बना रहता है कि क्योंकि उसमें एक स्थानीय मस्जिद मौजूद है और आलम की गिरफ़्तारी के बाद डर का माहौल है। परवीन (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "ऐसा लगता है हम कोमा में हैं, जहां ना तो हम जिंदा हैं और ना ही मरे हुए हैं।" अपनी बेटी के साथ बैठीं उम्र के तीसरे दशक में चल रहीं परवीन कहती हैं, "पिछले 20 दिनों से मेरे पति हमारे साथ नहीं हैं। ऐसा लगता है जैसे मेरी पूरी जिंदगी बिखर रही है, कोई राहत नहीं है।"

परवीन का इसी लेन में स्थित तीन मंजिल घर 25 फरवरी को दंगों में हुई आगजनी में जलकर खाक हो गया था। वह कहती हैं, "जब दंगे हुए, तब कम से कम लोग हमसे सहानुभूति रख रहे थे कि हमारा घर हमसे छिन गया। लेकिन अब हमारा दर्द कोई नहीं समझता, जबकि अब हमारे पति भी साथ नहीं हैं। लोगों को लगता है कि हमारी जिंदगी सामान्य हो चुकी है, हमारे लिए लोगों में ना तो कोई सहानुभूति है और ना ही कोई मदद दे रहा है।"

कमाई का साधन नहीं है

अब जब साल खत्म होने वाला है और किसी तरह की आर्थिक गतिविधि में सुधार नहीं हुआ है, तो परिवार अब टूटने की कगार पर हैं। जिन परिवारों में पुरुष सदस्य ही एकमात्र कमाऊ सदस्य थे, उनकी महिलाएं गुजारा करने के लिए परिवार और बच्चों के साथ दोहरा संघर्ष कर रही हैं।

कौसर (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "हममें से कोई पढ़ा-लिखा नहीं है, हमारे पति के बिना जिंदगी मुश्किल होती जा रही है। हमारी पूरी दिनचर्या ही बर्बाद हो गई है। मेरे तीन छोटे बच्चे हैं, उनमें से कोई वयस्क तक नहीं है। मुझे उनकी फीस भरनी होती है, सब्जी खरीदनी होती है, बिल इकट्ठे होते जा रहे हैं। हम हर उस चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो बच गई थी। अब महामारी और पहले दंगे, हम बमुश्किल ही जिंदा रह पा रहे हैं।"

कौसर की शादी को 15 साल हो चुके हैं, वह कहती हैं कि यह पहली बार है, जब वह अपने पति से दूर हैं, उन्हें उम्मीद है कि जब चीजें सामान्य हो जाएंगी, तब वे घर वापस आ सकेंगी।

कौसर ने बताया कि वे परिवार के सदस्यों से पैसे उधार ले रही हैं या फिर NGOs के द्वारा दी जा रही मदद का इंतज़ार करती हैं।

महामारी के बीच स्कूलों तक पहुंच नहीं है, ऑनलाइन पढ़ाई एक बाधा साबित हो रही है, जो महिलाएं अकेले ही अपने बच्चों की फीस भरती हैं, उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। रुखसार (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "अगर हम फीस चुकाने में नाकामयाब रहे, तो मेरे बच्चों को ऑनलाइन क्लासेज़ में शामिल नहीं किया जाएगा। मेरी स्थितियों को जानने के बावजूद, स्कूल सहायता नहीं कर रहे हैं।" रुखसार के बच्चे स्थानीय फरहान इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ने जाते हैं।

जो लोग घर छोड़कर जा चुके हैं, उनके बारे में भी परिवार के लोग बहुत चिंतित हैं। ज़्यादातर लोग कामग़ार और दैनिक वेतनभोगी हैं। अब उनके परिवार उनके दूर के रिश्तेदारों पर निर्भर हैं। परवीन कहती हैं, "अब वे दो वक़्त की रोटी कैसे खाएंगी? वे लोग कहां रुकेंगे और सबसे अहम सवाल कि वे लोग कब वापस आएंगे? हमें कुछ अता-पता नहीं है।"

बच्चों से झूठ बोलना पड़ता है

रुबीना, अतिफा (बदला हुआ नाम) और कौसर पिछले एक पखवाड़े से नहीं सो पाई हैं। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए रुबीना कहती हैं, "मैं अपने बच्चे को अकेला छोड़कर बाथरूम जाने में भी डरती हूं। कल मेरी बच्ची एक साल की हो जाएगी, लेकिन इस खुशी में हमारे पति साथ नहीं होंगे।" रुबीना के पति घरों में पुताई का काम करते हैं।

26 साल के शेख को दिल्ली-उत्तरप्रदेश सीमा पर स्थि अपने गांव वापस जाना पड़ा, ताकि पुलिस उन्हें ना उठा सके। अब जब महिलाओं के पति लंबे समय से घर से बाहर हैं, तब महिलाओं को अपने बच्चों को अपने पति के बारे में बताने में दिक्कत हो रही है। अपनी उम्र के चौथे दशक में चल रहीं आशिफा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "मैं उनसे कहती रहती हूं कि उनकी तबियत अच्छी नहीं है और वे अस्पताल में हैं। मैं अपनी बेटी से कहती हूं कि जब वे ठीक हो जाएंगे, तब घर आएंगे। लेकिन मेरे बच्चे मुझसे पूछते हैं कि मैं उन्हें देखने अस्पताल क्यों नहीं जाती। मेरे पास कोई शब्द बाकी नहीं रह जाते।"

दिल्ली के उत्तरपूर्व जिले में हुई जघन्य और रुह कंपा देने वाली सांप्रदायिक हिंसा को महीनों हो चुके हैं, जिसमें 53 लोगों की जान चली गई थी, जिसमें से ज़्यादातर मुस्लिम थे। स्थानीय लोगों का कहना है कि कुछ इलाकों में हिंदुत्व संगठनों ने आतंक फैलाना जारी रखा है। इन लोगों का आरोप है कि इस तरह की घटनाओं पर पुलिस कोई ध्यान नहीं देती।

नोट: पीड़ितों को नामों को बदल दिया गया है, ताकि उनकी पहचान जाहिर ना हो सके।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Post-riots Delhi: Fearing Arrest, Muslim Men Flee Home; Women Left to Run Families

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