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अगर जवानों की मौत पर ग़ुस्सा होना आपका हक़ है तो अंतहीन बन चुकी नक्सल समस्या को समझना भी आपकी ज़िम्मेदारी है!   
अपने सवालों का जवाब जानने के लिए हाल में हुए हमले के साथ पूरी नक्सल समस्या को संक्षिप्त में समझना पड़ेगा। ताकि आपका ग़ुस्सा महज चंद लम्हों का ग़ुस्सा बन कर न रह जाए बल्कि एक सजग समझ में तब्दील होकर जरूरी सवाल उठाए।
अजय कुमार
07 Apr 2021
crpf

आप अपने आप से एक सवाल पूछिए कि नक्सलियों का ख्याल आपके दिमाग में कब आता है? आप में से अधिकतर लोगों का जवाब होगा जब कोई नक्सली हमला होता है। जिस हमले में देश के जवान मारे जाते हैं। बाकी वक्त आपको और आपके यानी हमारे देश की मीडिया को नक्सल समस्या को लेकर कोई चिंता नहीं होती। समाज की जटिल परेशानियां केवल अपने वीभत्स दौर में लोगों के बीच चर्चा का विषय बने, यह भी उन परेशानियों की काई की तरह ज़मीन पर जमे रहने की एक वजह होती है। 

 जब नक्सली हमला होने के तकरीबन एक दिन बाद दिल्ली के मीडिया घरानों से होते हुए देश भर में नक्सली हमले में 22 जवानों के शहीद होने की खबर फैली तो लोगों ने गजब का ग़ुस्सा दिखाया। लेकिन सवाल यह है कि गुस्से की दिशा किधर जाए? आरोपों के कठघरे में खड़ा किसे किया जाए? सवाल किस से किया जाए? 

 इन सवालों का जवाब जानने के लिए हाल में हुए हमले के साथ पूरी नक्सल समस्या को संक्षिप्त में समझना पड़ेगा। ताकि आपका ग़ुस्सा महज चंद लम्हों का ग़ुस्सा बन कर न रह जाए बल्कि एक सजग समझ में तब्दील होकर जरूरी सवाल पूछे।

 भारत का नक्शा सामने रखिए। वहां छत्तीसगढ़ राज्य के सबसे दक्षिणी छोर पर और महाराष्ट्र के सबसे उत्तरी छोर पर देखिए तो आपको सुकमा और बीजापुर नाम के दो जिले दिखेंगे। इन्हीं दोनों जिलों की सरहद पर बसे टेकला गुड़ा गांव में पिछले हफ्ते शनिवार के दोपहर में सुरक्षाबलों और माओवादियों के बीच कई घंटे मुठभेड़ चली। मीडिया रिपोर्ट की माने तो इस मुठभेड़ में 22 सुरक्षाकर्मियों के मारे जाने, तकरीबन 30 सुरक्षाकर्मियों के घायल  और तकरीबन 15 माओवादियों के मारे जाने की खबर आ रही है।

 नक्सलियों की तरफ से जारी बयान में पिछले चार महीनों में देश के अलग-अलग हिस्सों में 28 माओवादी मारे जाने की बात का जिक्र है। 

 माओवादी बटालियन नंबर वन के कमांडर हिडमा के इस इलाके में मौजूद होने की जानकारी सुरक्षाबलों को मिली थी। 90 के दशक में माओवादी संगठन से जुड़े माडवी हिडमा उर्फ संतोष उर्फ इंदमूल उर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष के बारे में कहा जाता है कि 2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों की हत्या के बाद उसे संगठन में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई। इसके बाद झीरम घाटी का मास्टर माइंड भी इसी हिडमा को बताया गया। इस पर 35 लाख रुपये का इनाम है।

 छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल राय की बीबीसी में छपी रिपोर्ट कहती है कि 2010 से अब तक कम से कम 3 अवसरों पर हिडमा के मारे जाने की खबर आई है। पुलिस के एक अधिकारी का कहना है कि हिडमा अब व्यक्ति नहीं, पदनाम की तरह हो गया है, जैसा कि माओवादी संगठन में अक्सर होता है।

 इस हिडमा को गिरफ्तार करने के लिए ही एसटीएफ, सीआरपीएफ, डीआरजी औऱ कोबरा बटालियन के लगभग दो हज़ार जवानों को इस ऑपरेशन हिडमा में लगाया गया था। 

 जब हिडमा का कोई अता पता नहीं चला और सुरक्षा बल के जवानों के मुताबिक सुरक्षाकर्मी उस इलाके से वापस लौट रहे थे जहां वह कभी पहले नहीं गए थे तभी उन पर हमला हुआ।

 सुरक्षाबलों के मुताबिक माओवादियों ने एलएमजी, यूबीजीएल, बीजीएल, राकेट लांचर, मोर्टार जैसे हथियारों का अंधाधुंध उपयोग किया। इसी अचानक छिपकर गुरिल्ला मुठभेड़ में देश के जांबाज सिपाहियों को अपनी जान गंवानी पड़ेगी।

 यह तो इस हमले से जुड़ी हुई संक्षिप्त जानकारी है। जिस पर अगर विस्तृत तरीके से छानबीन हुई तो ज्यादा से ज्यादा कुछ माओवादियों को पकड़कर सजा दी जा सकती है लेकिन पूरे नक्सल समस्या का अंत नहीं हो सकता।

 तो नक्सल समस्या की बड़ी कहानी क्या है? जिससे इन मुठभेड़ों और हमलों का जन्म होता है, उसे समझते हैं-

 साल 2000 में भारत में तकरीबन 200 जिले नक्सल से प्रभावित बताए गए थे। यह सारे जिले मुख्यत: आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में फैले हुए हैं। इन सब में नक्सल की समस्या साल 2000 के बाद कम हुई। हाल फिलहाल भारत सरकार ने 90 जिलों को नक्सल प्रभावित इलाके के तौर पर घोषित किया है। जिसमें सबसे बड़ा इलाका छत्तीसगढ़ में है। जहां पर यह हमला हुआ है।

 छत्तीसगढ़ बड़ा राज्य है। इसका दक्षिणी सिरा नक्सल प्रभावित है। इसे ही बस्तर का इलाका कहा जाता है।केरल राज्य  के क्षेत्रफल से भी बड़ा इलाका है। जंगल है। घनघोर जंगल है। आबादी यहां-वहां, जहां-तहां फैली हुई है। शहर का नामो निशान नहीं है। यानी पूरी तरह से ग्रामीण आबादी है। आदिवासियों का इलाका है। फैलाव में एक-एक जिला दिल्ली राज्य से भी बड़ा है।

 चूंकि भारत में खतरनाक किस्म की वर्गीय असमानता मौजूद है। इसलिए जैसे ही आदिवासी का नाम लिया जाए वैसे ही आप जिस भी गांव या शहर में रहते हों, वहां के सबसे गरीब को ध्यान में रखकर सोचिए तो उनके जीवन की दशा का अंदाजा लग जाएगा। तब आपको पता चल जाएगा कि वर्गीय असमानता वाली इस दुनिया में  जो हाशिए पर होता है, वह हर रोज कितनी तरह के शोषण का शिकार होता है।

दिल्ली के बॉर्डर पर 100  से अधिक दिनों से बैठे आ रहे किसानों के बारे में सोचिए जो अहिंसा पूर्वक अपना हक मांग रहे हैं लेकिन सरकार नहीं सुन रही? सोचिए इनके अंदर का ग़ुस्सा कहां तक पहुंचा होगा?

 इससे भी भयानक जंगल में रहने वाले आदिवासियों के साथ होता है। यहीं पर सबसे गहरा भेदभाव पनपता है। फिर भी यह मत समझिए कि सारे आदिवासी नक्सल या माओवादी हैं। वह सीधे-सादे ग्रामीण आदिवासी हैं, जो अक्सर दोनों तरफ़ से मारे जाते हैं। सरकार और माओवादी दोनों तरफ़ से ये ग्रामीण हमला और उत्पीड़न झेलते हैं।

 बस्तर का इलाका सामाजिक आर्थिक विकास के संकेतको के आधार पर भारत के दूसरे इलाकों से बहुत पीछे हैं। विकास की यात्रा में देखा जाए तो अब भी  सदियों पीछे हैं। इसलिए इतना अधिक कमजोर होने के चलते यह कई तरह के शोषण का शिकार होते हैं।

 इस शोषण से लड़ने के लिए कुछ लोग जिस तरीके का चुनाव करते हैं, वही तरीका सबसे गलत है, जो उनकी जायज बात को भी नाजायज बना देता है। यह जनता की व्यापक गोलबंदी की जगह बंदूक के दम पर व्यवस्था बदलने के विचार से प्रेरित है। मांग चाहे जितनी भी जायज हो वह हिंसा की इजाजत नहीं दे सकती है। इसलिए भले कुछ लोग सुरक्षाबलों को मारकर यह समझते हो कि वह भारतीय राज्य को एक कड़ी चुनौती दे रहे हैं तो उनकी भूल है। हकीकत यह है कि बंदूक का तरीका अपनाने की वजह से व्यवस्था परिवर्तन का उनका सपना पहले के मुकाबले हाल फिलहाल कोसों दूर चला गया है। 

 दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद अपने एक लेख में लिखते हैं कि सशस्त्र क्रांति के विचार में सम्मोहन है। हिंसा मात्र मारांतक रूप से आकर्षक है। इसलिए हमेशा ही उस रास्ते पर चलने को तैयार लोग मिल जाएँगे। दूसरी बात  अगर आपके पास एक बंदूक़ हो तो आप एक निहत्थे के सामने राज्य ही तो हो जाते हैं। यह जो राज्य की ताक़त हासिल करने का नशा है वह भी अपनी संभावित विजय के भुलावे में माओवादियों को रखता है। और उनकी क़तार में शामिल होने के लिए हमेशा ही सिपाही मुहैया कराता है।

 इस बात को भी अच्छी तरह जानते हैं कि छत्तीसगढ़ या झारखंड या महाराष्ट्र के जंगल उनके लिए कार्यस्थल नहीं हैं। वे उनकी पनाहगाह है। आदिवासी भी उनके लिए साधन हैं, मित्र नहीं। यह आदिवासी नहीं तय कर सकता कि वह उनका साथ देगा या नहीं। उसके लिए वे ही फ़ैसला करते हैं। फिर वे एक अर्थ में भारतीय राज्य से बदतर हैं। वह कम से कम चुनावों में आदिवासियों को उनकी सत्ता का अहसास होने देता है। मत के लोभ में ही सही, राजनीतिक दल उनसे, सीमित ही सही, संवाद करते हैं।

 धरना, जुलूस के ज़रिए वे उम्मीद कर सकते हैं कि शासन तक अपनी बात पहुँचा सकेंगे। लेकिन माओवादियों से ऐसी कोई आशा उन्हें नहीं है। वे वहाँ हुक्मउदूली की ग़लती नहीं कर सकते। माओवादियों का जनता से रिश्ता एक निरंकुश राज्य और जनता के रिश्ते जैसा है।

 माओवादी तर्क दे सकते हैं कि वे एक लंबे युद्ध में हैं और युद्ध की अवस्था में सामान्य जीवन के नियम अप्रासंगिक हो जाते हैं। यही तर्क राज्य ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के पक्ष में देता है। चिरंतन युद्ध दोनों के लिए लाभकारी है क्योंकि यह जनता पर अपना नियंत्रण बनाए रखने का तर्क है। माओवादियों ने अपनी जनताना सरकारों में न्याय देने का जो मॉडल पेश किया है वह न्याय के किसी भी विचार के ख़िलाफ़ है।

 यहां तक आते-आते वैचारिक तौर से यह बात तो समझ में आ गई कि नक्सल प्रभावित इलाकों की मांग बहुत जायज है लेकिन उनका तरीका गलत है। सरकार को तरीके पर हमला कर उसे शांत करना है लेकिन मांग भी पूरी करनी है। इसी आधार पर सरकार ने पिछले कुछ सालों में अपनी नीतियां भी बनाई है। लेकिन वह नीतियां कहां तक कारगर हैं? असली मुद्दा इससे जुड़ा है।

 राज्य बनने के बाद पिछले 40 साल से बस्तर के इलाके में संघर्ष चल रहा है। तकरीबन 3 हजार से अधिक मुठभेड़ की घटनाएं हो चुकी हैं। साल 2001 से लेकर 2019 के बीच तकरीबन एक हजार माओवादी और 1200 से अधिक सुरक्षा बल के जवान मारे जा चुके हैं। तकरीबन 3500 से अधिक माओवादियों ने समर्पण किया है और 1500 से अधिक आम लोगों की मौत हो चुकी है।

 2020-21 के आंकड़े बताते हैं कि 30 नवंबर तक राज्य में 31 माओवादी पुलिस मुठभेड़ में मारे गये थे, वहीं 270 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया था। 

लेकिन फिर भी चूंकि बस्तर के इलाके के विकास का पैमाने में कोई बड़ी बढ़ोतरी नहीं हुई है। इसलिए इसकी संभावना हमेशा बनी रहती है कि लोग गुस्से में आकर माओवादी विचार से जुड़ने लगें। इसीलिए दक्षिण बस्तर के केवल 3 ब्लॉक तक सीमित माओवाद ने पिछले 15 सालों में 14 जिलों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। यानी नागरिकों का ग़ुस्सा जिसे राज्य अपने जन कल्याण की नीतियों से उभरने नहीं देता है और दूसरे घटक इसका फायदा नहीं उठाते हैं। यह प्रक्रिया छत्तीसगढ़ के बस्तर के इलाके में नहीं हुई है। यानी राज्य जन कल्याण के कामों में नहीं लगा है और दूसरे घटक इसका खूब फायदा उठाते हैं।

 साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अपने मेनिफेस्टो में लिखा था कि नक्सल समस्या के समाधान के लिए नीति तैयार की जाएगी और वार्ता शुरू करने के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए जाएंगे। प्रत्येक नक्सल प्रभावित पंचायत को सामुदायिक विकास कार्यों के लिए एक करोड़ रुपये दिए जायेंगे, जिससे कि विकास के माध्यम से उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जा सके।

 छत्तीसगढ़ के जानकारों का कहना है कि सरकार बना लेने के बाद पिछले ढाई साल में बीच-बीच में नक्सलियों के साथ वार्ता की बात सामने आती है लेकिन अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रारूप तैयार नहीं हुआ है। मुख्यमंत्री बघेल अब कहने लगे हैं कि उन्होंने नक्सलियों से नहीं बल्कि पीड़ितों से बात करने की बात कही थी। कई सारे आम आदिवासी शराब बनाने और गाली गलौज के मामले में जेलों में बंद हैं। 

 आदिवासियों की सुरक्षा से जुड़े पेसा कानून को दरकिनार कर बस्तर में कैंप लगाए गए हैं। जिस पर आदिवासी विरोध करते रहते हैं। इन पर कोई सुनवाई नहीं होती। सुरक्षाबलों के जरिए हुए शोषण पर मानवाधिकार आयोग, जनजाति आयोग और दूसरे संस्थाओं ने गंभीर टिप्पणियां की हैं। क्षतिपूर्ति का आदेश दिया   है। लेकिन इनका भी कुछ अता-पता नहीं। सरकार इन पर भी ध्यान नहीं देती है। 

 अब हालत यह है कि नक्सलियों से लड़ने के नाम पर बनने वाली सुरक्षा बल की टुकड़ियों में वही नक्सली भर्ती किए जा रहे हैं जो आत्मसमर्पण करके लौटते हैं। यानी लोगों को आपस में लड़ाने की योजना। इससे विकास नहीं होता बल्कि एक अंतहीन गुफा में केवल दौड़ भाग मची रहती है। ऐसी नीतियों का कोई फायदा नहीं जहां पर लोगों का जीवन स्तर ना सुधर पाए। महज मार काट होती रहे।

 इधर बीच की खबरों पर अगर आपने ध्यान दिया होगा तो यह खबर कि अमित शाह असम चुनाव छोड़कर छत्तीसगढ़ पहुंचे- खूब दिखी होगी। मीडिया में होने वाली पैंतरे अब यह बताने में लगे हैं कि भाजपा को चुनाव से ज्यादा नक्सल समस्या की चिंता है। अमित शाह ने छत्तीसगढ़ में पहुंचकर यह कहा कि वह नक्सल समस्या को जड़ से खत्म कर देंगे। जबकि छत्तीसगढ़ के पत्रकार आवेश तिवारी समता मार्ग में छपे अपने लेख में लिखते हैं कि  साल 2014 के बाद केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद छत्तीसगढ़ में माओवादियों से लोहा लेते हुए देश के 600 जवान शहीद हो चुके हैं। फिर भी न तो केंद्र सरकार इस मामले पर संजीदा है और ना ही मेन स्ट्रीम मीडिया केंद्र सरकार से इसके बारे में सवाल जवाब कर रहा है।

 इसके साथ बहुत सारे प्रबुद्ध जन इस बात का भी कयास लगा रहे हैं कि आखिरकार ऐसी घटनाएं चुनाव के वक्त ही क्यों होती है? पहली नजर में हमारे अन्दर की समझ इस संदेह को खारिज कर सकती है। अभी समाज का इतना पतन नहीं हुआ है।

 लेकिन हकीकत का एक दूसरा पेच यह भी है कि हमारे देश की राजनीति में नैतिकता नाम की चिड़िया दूर दूर नहीं दिखती। चुनावों के समय तो बिल्कुल भी नहीं। चुनाव जीतने के लिए दंगे करवाए जाते हैं। अकूत पैसे फेंके जाते है। इलेक्टोरल बांड जैसे ऐसे नियम बनाए जाते हैं जिसकी सारी धांधली देखने के बाद भी कोर्ट और चुनाव आयोग सब चुप रहें। यह सारी बातें किस तरफ इशारा करती हैं। यह सारी बातें इस तरफ इशारा करती हैं कि नेता चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। भारतीय संविधान से लेकर भारतीय नियम कानून लोक मर्यादा सब को ताक पर रखकर कदम उठा सकते हैं। इसलिए अगर लोगों के मन मे यह संदेह पैदा हो कि क्या ऐसे हमलों के तार चुनाव से जुड़े हैं? तो ये अतिरेक नहीं है।

 नक्सली हमले पर कुछ लोग सरकार से ज्यादा वामपंथी पार्टी की राय का इंतजार करते हैं। जबकि सबसे ज़्यादा इन्हीं पार्टियों ने ही इन कथित नक्सलवादी, माओवादियों के हमले झेले हैं।

 भाकपा माले ने इस नक्सली हमले को निंदनीय और दुखद बताया है। अपने बयान में भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा है कि मारे गए जवानों के परिजनों के प्रति हम गहरी संवेदनायें व्यक्त करते हैं।

 दीपंकर भट्टाचार्य का कहना है-

 “जब देश में ऐतिहासिक किसान आंदोलन चल रहा है और उसके साथ ही सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण के खिलाफ मज़दूरों का संघर्ष, रोजगार के लिए युवाओं का संघर्ष तेज़ हो रहा है पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं- ऐसे में माओवादियों का सैन्य हमला इन जनांदोलनों और वर्तमान चुनावों में आंदोलन के सवालों और जनहित के मुद्दों को प्रमुख बनाने की कोशिशों को अपूरणीय क्षति पहुंचाने वाला काम है।

 केंद्र सरकार के बार-बार दुहराए जाने वाले दावे की पोल खुल गई है। लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं की धरपकड़ हुई हैं। नोटबन्दी जैसी कार्यवाहियां नक्सल नेटवर्क को ख़तम कर देंगी। ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ है। केंद्र सरकार को बताना चाहिए कि क्यों इंटेलिजेंस एजेंसियां और सरकारी कोशिशें पुलवामा और सुकमा जैसी घटनाओं को रोकने में बार-बार नाकाम हो जाती हैं।”

 केरल से भी बड़े बस्तर के इलाके में जब नक्सली हिंसा में जवान मारे जाते हैं तो उसकी क्रूरता पर ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है। लेकिन इसके साथ यह सवाल भी पूछना चाहिए बटालियन पर बटालियन होने के बावजूद, केंद्र और राज्य सरकार के हजारों करोड़ खर्च करने के बावजूद बस्तर का पूरा इलाका बुनियादी सुविधाओं जैसे कि स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य केंद्र, बिजली जैसी सुविधाएं अब तक वहां क्यों नहीं पहुंची? इसके पीछे क्या कारण है? कहीं ऐसा तो नहीं कि नेताओं, नक्सल गुट से जुड़े कुछ लोगों और भी दूसरे तरह के हितधारकों का ऐसा गठजोड़ बन चुका है जो बस्तर को नक्सल की परेशानी से बाहर नहीं निकलने दे रहा?

 आखिरकार उस घनघोर जंगल में एलएमजी, रॉकेट लॉन्चर और दूसरी तरह के अत्याधुनिक हथियार कैसे पहुंचे? अगर यह मान लिया जाए कि इसके पीछे केवल नक्सल गिरोह है और वही इसका उत्पादन कर रहा है तो हमसे ज्यादा मूर्ख कोई और नहीं होगा।

 ऐसे हथियारों की मौजूदगी ही बताती है कि नक्सली आंदोलन के पीछे एक तरह का नेटवर्क चल रहा है। जिस पर अब तक मुखर होकर हमला नहीं किया गया। प्रधानमंत्री मोदी की नोटबंदी की वजह से अवैध पैसा रुक जाएगा नक्सली परेशानी का अंत हो जाएगा - यह सारे दावे यहां भी पूरी तरह से फेल हो चुके हैं। इस जटिल परिस्थिति के पनपते रहने के लिए हर तरह से देखा जाए तो केवल सरकार दोषी नजर आती है। 

 बस्तर के इलाके में लंबे समय तक इंडियन एक्सप्रेस की तरफ से रिपोर्टिंग कर चुके आशुतोष भारद्वाज इंडियन एक्सप्रेस की अपने आर्टिकल में लिखते हैं कि मिथक बन चुके माओवाद को हर तरह से समझने की कोशिश करनी चाहिए। सरकार विपक्ष मीडिया और समाज के तौर पर हम सब इसका सामना करने में नाकामयाब रहे हैं। केवल नक्सली हमला होने के समय जब इनसे हम टकराएंगे तो हम हमेशा हार जाएंगे। हम इन्हें ठीक से समझ भी नहीं पाएंगे। इन्हें उस समय भी समझना होगा जब इनके भीतर का ग़ुस्सा धीरे-धीरे पनपते हुए विद्रोह में तब्दील हो जाता है। नए-नए तरीके इजाद करने लगता है। ऐसे लोग भारत में मौजूद सामूहिक नफरत के माहौल में पनपते हैं। इनके जीवन एजेंडा और महत्वाकांक्षा को समझना जरूरी है। इनके सामाजिक राजनीतिक आर्थिक नेटवर्क और गठजोड़ को समझना जरूरी है। हमारी अधिकतर ऊर्जा इनकी परेशानियों को समझने और उसे सुलझाने में लगनी चाहिए। यह गुरिल्ला की तरह लड़ते हैं। एक परंपरागत फौज जब लड़ाई नहीं जीतती है तो वह हार जाती है। लेकिन गुरिल्ला सोच तब तक लड़ाई जीतती रहती है जब तक वह लड़ना नहीं छोड़ती है।

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