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राम कथा से ईद मुबारक तक : मिथिला कला ने फैलाए पंख

नई शिक्षा और नेटवर्क से लैस, रांटी के युवा कलाकार मधुबनी-पेंटिंग की गरिमा-महिमा को फिर से स्थापित करने और उनमें समकालीनता का नया रंग भरने का प्रयास कर रहे हैं।
mithila painting
(दाएं से बाएं) सलेहा, समीना और साज़िया

ब्रिटेन के एक कला-प्रेमी डब्ल्यूजी आर्चर ने 1949​ में जब मिथिला पेंटिंग की मनोहारिता और विशिष्टताओं पर रीझते हुए प्रतिष्ठित पत्रिका मार्ग में एक लेख लिखा, तो उन्होंने इसे महज लोक कला के रूप में निरूपित नहीं किया था। फिर भी, पिछले पचास वर्षों में, मिथिला पेंटिंग पर हमेशा एक लोक/अनुष्ठान कला का टैग चस्पां कर दिया गया, और इसकी चर्चा जातिगत आधार पर की जाती रही है। 

यह सच है कि बिहार के दरभंगा-मधुबनी क्षेत्र में, प्राचीन काल से, घरों की दीवारों (कोहबर) को और फर्श (अरिपन) को विभिन्न कला-शैली की कलाकृतियों से सजाने की एक अलिखित संस्कृति रही है। हालांकि, पिछले तीन दशकों में, मधुबनी जिले के रांटी और जितवारपुर गांव मिथिला-कलाचित्रों (पेंटिंग्स) के प्रमुख केंद्रों के रूप में उभरे हैं, यही वजह है कि इस कला-रूप को 'मधुबनी पेंटिंग' नाम दिया गया। अब तक सात मिथिला कलाकारों को उनके महत्तर योगदान को देखते हुए भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाजा गया है, जिनमें गंगा देवी को छोड़कर छह चित्रकार-कलाकार तो इन दो गांवों (रांटी एवं जितवारपुर) की ही हैं। 

1991 में रांटी की प्रसिद्ध मिथिला चित्रकार, महासुंदरी देवी (अब दिवंगत) ने भोपाल के रवींद्र भवन के लिए रामकथा को पारंपरिक कला रूप में चित्रित किया था, जो वास्तव में विस्मयकारी प्रस्तुतियां थीं। इसके बाद, ​​2002​ में उनके भतीजे एवं प्रसिद्ध कलाकार संतोष कुमार दास, जो महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के पूर्व छात्र हैं, उन्होंने मिथिला शैली में एक पूरी श्रृंखला बनाई थी, जिसमें गुजरात दंगों को चित्रित किया गया था। यह एक पुरातन लोक कला में भारत की जटिल समकालीन वास्तविकता का जीवंत कलात्मक चित्रांकन था। संतोष कुमार दास ने बचपन में यह पारंपरिक कला अपनी मौसी से सीखी थी। फिर भी, उनकी सजग राजनीतिक चेतना मिथिला की परम्परागत कला को एक सर्वथा अनूठे क्षेत्र में ले गई, जो उनके गांव के युवा कलाकारों में प्रतिध्वनित होती है और वे परस्पर उसे साझा करते हैं। 

पिछले दो दशकों में, कई युवा कलाकारों, जिनमें अधिकतर संतोष कुमार के दास के सधे हाथों से ही संवारे गए हैं,उन्होने पुरानी कलाशैलियों भरनी (रेखाओं में रंग भरना) और कचनी (केवल रेखांकन) का इस्तेमाल किया है। इन तकनीकों का उपयोग करके उन्होंने पारंपरिक और समकालीन विषयों के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया। इस तरह, वे एक नए मुहावरे में सदियों पुरानी कला को ढालने का काम कर रहे हैं। 

संतोष कुमार दास की तरह ही युवा कलाकार अविनाश कर्ण भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में ललित कला में प्रशिक्षित हैं। एक गैर-सरकारी संगठन, आर्टरीच इंडिया की मदद से, वह वर्तमान में रांटी में एक सामुदायिक कला परियोजना में लगा हुए हैं। वे आसपास के गांवों की मुस्लिम लड़कियों को मधुबनी कला का प्रशिक्षण दे रहे हैं। कोविड-19 महामारी के संक्रमण के फैलाव से बचाव के लिए लगाए गए लॉकडाउन के कारण पिछले साल वे बनारस से अपने गांव रहने के ख्याल से चले गए थे। मिथिला पेंटिंग के इतिहास में यह पहली बार है कि मुस्लिम महिलाएं इस कला-रूप का अभ्यास कर रही हैं और सांप्रदायिक सद्भाव (सरवरी बेगम की ईद मुबारक), मुस्लिम समुदायों में दहेज के रिवाज, महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों को पेटिंग्स के रूप में सामने ला रही हैं। अविनाश कर्ण कहते हैं, “मुस्लिम लड़कियों में हमेशा से पेंट करने की एक बलवती चाह रही है, लेकिन उन्हें ऐसा करने का अवसर पहले कभी नहीं मिला। मैं अपने प्रशिक्षण को मिथिला कला में शामिल करना चाहता हूं और वंचित समुदायों के युवा कलाकारों को एक साथ लाना चाहता हूं।”

अविनाश कर्ण की पेटिंग मुन्ना, स्माइल प्लीज

इससे पहले, महान कलाकार गंगा देवी, जिनका 1991 में निधन हो गया, वे रशिदपुर गांव से ताल्लुक रखती थीं। उन्होंने भी आधुनिक विषयों के साथ अभिनव प्रयोग किया था। दास और कर्ण दोनों ही उनके इस अवदान को मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं; कर्ण उन्हें इस क्षेत्र में एक अग्रणी प्रणेता मानते हैं, जिन्होंने समकालीन कलाकारों के बीच इस लोक कला की पहचान बनाई। गंगा देवी ने कला में आत्मकथात्मक तत्वों को प्रस्तुत करने के अलावा, उन्होंने दिल्ली में कला और शिल्प संग्रहालय संस्थान की दीवारों पर प्रसिद्ध कोहबर को चित्रित किया था, जिसे दुर्भाग्य से, 2015 में आधुनिकीकरण के नाम पर ध्वस्त कर दिया गया।

ज्योतिंद्र जैन ने अपनी पुस्तक, "गंगा देवी: मिथिला पेंटिंग में परंपरा और अभिव्यक्ति" में ठीक ही कहा है कि गंगा देवी "होटल के अग्रभाग, मोटर कार, राष्ट्रीय ध्वज, टिकट बूथ, रोलर-कोस्टर, और शिपिंग बैग ढोते लोगों की आम छवियों को अपने रंगों एवं परिकल्पना से कलात्मक एवं विलक्षण वस्तुओं में रूपांतरित देती हैं।" हाल ही में, मैं रांटी में था, जहां मैंने अविनाश कर्ण के एक साधारण से स्टूडियो में कॉलेज जाने वाली युवा छात्राओं-सरवरी बेगम, सलेहा शेख और साज़िया बुशरा-की कई खूबसूरत पेंटिंग्स देखीं।

साज़िया और सलेहा बहनें और पहली पीढ़ी की कलाकार हैं। यह पूछे जाने पर कि उन्हें इस कला में क्या पसंद है, साज़िया कहती हैं, “इस कला के माध्यम से, हम अपने जीवन और समाज की कहानी को दर्शाते हैं। हम अपने घर में लड़कियों के साथ किए जाने वाले अलग-अलग व्यवहारों को देखते हैं, जिन्हें मैं अपनी पेंटिंग्स में दिखाती हूं।”

सरवरी बेगम को मिथिला पेंटिंग की कचनी शैली (जिसमें केवल रेखाओं का इस्तेमाल होता है) पसंद है। वे कहती हैं, "जब मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी, तभी से मैं मिथिला शैली में पेंटिंग करना चाहती थी, लेकिन कभी मौका ही नहीं मिला। अब जबकि अविनाश सर ने मुझे इसे सीखने का मौका दिया है, मैं इसे अपने जीवन में और आगे ले जाना चाहती हूं।” तकनीकी रूप से, उनकी पेंटिंग भले ही प्रशिक्षित कलाकारों के समान नहीं हो सकती हैं, फिर भी यह नई पीढ़ी के प्रयोग और नवाचार करने की उत्सुकता को दर्शाती है। इसके अलावा, उनकी यह कला-साधना समाज में सांप्रदायिक विभाजन को पाटने में मदद कर रही है। 

सरवरी बेगम की बनाई पेटिंग ईद मुबारक

अपनी समकालीन गंगा देवी और सीता देवी की तरह, महासुंदरी देवी भी पारंपरिक रूपांकनों (कोहबर, दशावतार, अरिपन, अष्टदल) और राम, सीता और कृष्ण के इर्द-गिर्द घूमने वाले पौराणिक विषयों के लिए जानी जाती थीं। वे एक शानदार गुरु भी थीं, जैसा कि दुलारी देवी ने मुझे 2011 में बताया था, जब मैं उनके गांव में उनसे मिला था। दुलारी देवी को मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग्स में उनके योगदान के लिए इस साल पद्मश्री से विभूषित किया गया है।

उस वर्ष महासुंदरी देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। दुलारी देवी ने अपनी कलायात्रा के बारे में मुझसे कहा: "शुरू-शुरू में तो मैं पेंटिंग को बीच में ही छोड़ कर भाग जाती थी, लेकिन महासुंदरी देवी मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सिखाती रहीं।" वे महासुंदरी देवी और गोदावरी दत्ता (2019) के बाद पद्मश्री से सम्मानित होने वाली इस गांव की तीसरी कलाकार हैं। हालांकि, उनकी कहानी उन दोनों सिद्धहस्त कलाकारों से काफी अलग है, जो उनके शानदार चटक रंगों वाली पेटिंग्स में परिलक्षित होती है। 

53 वर्षीया दुलारी देवी मल्लाह जाति से ताल्लुक रखती हैं और उन्हें औपचारिक शिक्षा भी नहीं मिली है। वे मधुबनी के पास रांटी गांव में महासुंदरी देवी के घर में साफ-सफाई का काम करती थीं, जब उन्हें मिथिला पेंटिंग के बारे में मालूम हुआ। तारा बुक्स द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तक "फॉलोइंग माई पेंट ब्रश" में उन्होंने अपनी कला-यात्रा के बारे में बताया है कि कैसे वे एक कलाकार बनीं। दुलारी ने बताया कि “एक दिन, मैं एक नए घर में साफ-सफाई का काम करने गई। वहां पता चला कि जिन महिला के घर काम करना है,वे कोई मामूली हस्ती की नहीं थीं-वे तो एक जानी-मानी कलाकार थीं! मैंने उनकी बनाई पेंटिंग्स देखीं, और उन्हें देख कर इतनी खुश हुई कि मैं अपने बाकी का काम-धंधा भूल गई...अगले दिन, जब मैं काम पर लौटी, तो मैंने अपनी मालकिन को दूसरे को चित्र बनाना सिखाते हुए पाया। तब मैं किसी तरह से हिम्मत जुटा कर उनसे पूछ बैठी...क्या मैं भी उनसे ऐसा चित्र बनाना सीख सकती हूं? उन्होंने कहा-हां!”

जैसा कि सर्वविदित है, मधुबनी/मिथिला कला रूप पर काफी हद तक कुलीन ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ (विशेष रूप से कचनी शैली) समुदायों की महिलाओं का संरक्षण था। समाज के हाशिये की महिलाओं, विशेषकर दुसाध समुदाय की महिलाओं ने सत्तर के दशक में गोदना या टैटू नामक एक नई शैली की शुरुआत की। इसके बाद, चानो देवी, शांति देवी और अन्य महिलाओं ने राजा सलेस के जीवन से संबंधित लोककथाओं को रंगों में ढालना शुरू किया। 

1960 में मधुबनी पेंटिंग दीवार पेंटिंग से कागज पर आ गई, जिससे उन्हें खरीदना और बेचना आसान हो गया। इसका श्रेय मिथिला के प्रसिद्ध कलाकारों जगदंबा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्ता और बुआ देवी को जाता है,जिनकी बदौलत इस कला-रूप ने बहुत जल्द ही दुनिया भर के कला पारखियों का ध्यान अपनी ओर खींचा। हालांकि, नब्बे के दशक में, मिथिला कला ने बाजार के विकास के साथ अपनी विशिष्ट आकर्षण खोना शुरू कर दिया, जैसा कि दिल्ली हाट जैसी जगहों पर उपलब्ध कुछ कार्यों से यह जाहिर होता है। 

नई शिक्षा और नेटवर्क से लैस, रांटी के युवा कलाकार इस शानदार कला रूप की गरिमा-महिमा को फिर से स्थापित करने तथा उनमें नवोन्मेष लाने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ साल पहले, शांतनु दास ने हिंदी और मैथिली के प्रसिद्ध जनकवि नागार्जुन की "अकाल और उसके बाद" (सूखा और उसके बाद) को एक बड़े कैनवास पर जीवंत किया था। हालांकि ​14​वीं शताब्दी के मैथिली कवि विद्यापति ने अपनी कविताओं में कोहबर (विवाह-कक्ष) का वर्णन किया है, फिर भी चित्रों के लिए इन साहित्यिक विषयों पर शायद ही कभी विचार किया जाता था। फिर तो, शांतनु की इस बात से असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं हो सकती, जब वे कहते हैं:"अब यह महज एक अनुष्ठान कला नहीं रही।"। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मीडिया शोधकर्ता हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

https://www.newsclick.in/from-ram-katha-eid-mubarak-mithila-art-spreads-wings

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