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वैक्सीन युद्ध, आसियान और क्वॉड

अब जबकि विभिन्न देशों में कोरोना की दूसरी तथा तीसरी लहर का ख़तरा सामने है, वैक्सीन का सवाल सिर्फ़ वैश्विक आर्थिक बहाली के लिए ही नहीं बल्कि वैश्विक कूटनीति के लिए भी एक केंद्रीय प्रश्न बनकर सामने आ गया है।
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Image Courtsey: The Diplomat

अमेरिका, भारत, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया के क्वॉड की हाल ही में जारी घोषणा में, इस बैठक के पीछे काम कर रही सैन्य धुरी को तो खास रेखांकित नहीं किया गया है और कोविड-19 महामारी के खिलाफ वैक्सीन (टीके) पर जोर को ही ज्यादा रेखांकित किया गया है। अब जबकि विभिन्न देशों में कोरोना की दूसरी तथा तीसरी लहर का खतरा सामने है, वैक्सीन का सवाल सिर्फ वैश्विक आर्थिक बहाली के लिए ही नहीं बल्कि वैश्विक कूटनीति के लिए भी एक केंद्रीय प्रश्न बनकर सामने आ गया है। इसीलिए, आसियान या दक्षिण-पूर्व एशिया का क्षेत्र, अपनी 70 करोड़ की आबादी और विशाल बाजार के साथ, एक ओर अमेरिका तथा क्वॉड के उसके सहयोगियों और दूसरी ओर चीन के बीच, वैक्सीन लिए होड़ का खास मैदान बन गया है।

अपने अपवादीपन में अमेरिका का विश्वास, वैक्सीन के मामले में उसे शेष दुनिया से अलग करता है। उसका स्वघोषित लक्ष्य ही है कि उसे अपना वैक्सीन उत्पादन तब तक पूरी तरह से अपने ही लिए सुरक्षित कर के रखना होगा, जब तक वह अपनी आबादी का वैक्सीनकरण नहीं कर लेता है। इसके बाद ही वह दूसरों को वैक्सीन मुहैया कराएगा। हवाई जहाज में आक्सीजन के मॉस्क के उपयोग के उसके कुख्यात उदाहरण का ठीक यही अर्थ है। कहा जा रहा है कि पहले अपनी जरूरत पूरी करो, उसके बाद ही दूसरों की मदद करना। इसके चलते, अगले छह महीने तक अमेरिका से दूसरे देशों के लिए मॉडर्ना तथा फाइजर के अपने एम-आरएनए वैक्सीन की आपूर्ति की कोई संभावना नहीं है। अपवादस्वरूप अमेरिका के घनिष्ठ यूरोपीय सहयोगियों और इस्राइल को कुछ मात्रा में वैक्सीन जरूर दिए जा सकते हैं।

दूसरे, इन वैक्सीन (टीकों) के लिए जैसी अल्ट्रा-कोल्ड चेन की जरूरत होती है और इन वैक्सीन की कीमत जो बहुत ज्यादा है, उस सब के चलते इन एम-आरएनए वैक्सीन का वैसे भी ज्यादातर एशिया, अफ्रीका तथा लातीनी अमेरिका के लिए तो उपयोग ही नहीं है। तीसरे, अमेरिका और अन्य धनी देशों को यह मंजूर ही नहीं है कि महामारी का ख्याल कर के यह सुनिश्चित किया जाए कि संबंधित कंपनियां, वैक्सीन पर अपने बौद्धिक संपत्ति अधिकारों के निकलने वाले मुनाफों में कोई कमी करें। हालांकि, कई देशों में वैक्सीन उत्पादन की क्षमताएं ठाली खड़ी हुई हैं, फिर भी इन क्षमताओं का उपयोग कामयाब हुए वैक्सीन बनाने के लिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि वैक्सीन विकसित करने वाली कंपनियां इन टीकों के उत्पादन के अपने ज्ञान को, जिस पर उनका संपत्ति अधिकार है, दूसरों से साझा करने के लिए तैयार ही नहीं हैं।

इस तरह, वैक्सीन का उत्पादन सिर्फ पेटेंट अधिकारों का ही मामला नहीं है बल्कि इसका संबंध व्यापार से जुड़े राज़ जैसे बौद्धिक संपदा के अन्य रूपों से भी है। जाहिर है कि जब महामारी अपने उभार पर हो, समूची वैक्सीन प्रौद्योगिकी की रिवर्स इंजीनियरिंग तो कोई वास्तविक विकल्प हो ही नहीं सकती है। इसीलिए, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत ने, दूसरे बहुत सारे देशों तथा सिविल सोसाइटी ग्रुपों के समर्थन से, इसकी मांग की थी कि इस कोविड-19 महामारी के दौरान कॉपीराइट तथा उससे जुड़े अधिकारों, औद्योगिक डिजाइनों, पेटेंटों आदि से संबंधित ट्रिप्स की कुछ जवाबदारियों से, अस्थायी तौर पर छूट दे दी जाए। जैसाकि अनुमान लगाया जा सकता था, धनी देशों ने--अमेरिका, यूके, यूरोपीय यूनियन, जापान तथा आस्ट्रेलिया ने--इसका विरोध किया था। भीमकाय दवा कंपनियों के मुनाफे, एक वैश्विक महामारी दौरान भी, उनके लिए इंसानी जिंदगियों से बढ़कर हैं।

पश्चिमी दुनिया को इसी की उम्मीद थी कि धनी देश तो, इन महंगी एम-आरएनए वैक्सीन का उपयोग करेंगे, जिनके लिए अटूट अल्ट्रा-कोल्ड चेन की जरूरत होगी, जबकि शेष दुनिया आस्ट्रा जेनेका-ऑक्सफोर्ड वैक्सीन से और पश्चिमी कंपनियों की पाइप लाइन में मौजूद दूसरे टीकों से, काम चलाएगी। इसके लिए, अन्य देशों के जेनरिक वैक्सीन निर्माता, इन भीमकाय दवा कंपनियों से लाइसेंस के आधार पर, इन वैक्सीन का उत्पादन कर रहे होंगे। भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ने, जो दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता है, कोवीशील्ड वैक्सीन के उत्पादन के लिए, एस्ट्रा जेनेका के साथ गठबंधन किया है।

अमेरिका के लिए, वैक्सीन के मामले में उसकी लड़ाई का मकसद यह भी है कि रूस तथा चीन को वैक्सीन के माध्यम से दुनिया के दूसरे अनेक क्षेत्रों तक पहुंच हासिल करने से रोका जाए। चूंकि विभिन्न देशों में कोविड के संक्रमण के मामले अब भी बढ़ोतरी पर हैं, रूसी तथा चीनी वैक्सीन से इन देशों को दूर रखने के लिए यह भी जरूरी है कि इन इलाकों को दूसरे वैक्सीन मुहैया कराए जाएं। इसलिए, एस्ट्रा जेनेका के साथ भारत के सीरम इंस्टीट्यूट का गठबंधन, लातीनी अमेरिका, योरप, एशिया तथा अफ्रीका के वैक्सीन के बाजारों से रूस तथा चीन को बाहर रखने की अमेरिका की लड़ाई का मुख्य आसरा है।

लेकिन, टीकाकरण के मामले में यूरोपीय यूनियन के निराशाजनक प्रदर्शन को दुर्भाग्य से अनेक यूरोपीय देशों में एस्ट्रा जेनेका के वैक्सीन लगाए जाने के अस्थायी रूप से रोके जाने ने और भी बिगाड़ दिया है। यह फैसला वैक्सीन लगाए जाने के बाद, खून के थक्के बनने के खतरे के चलते किया गया है। हालांकि, एस्ट्रा जेनेका के वैक्सीन को इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन का और यूके तथा भारतीय दवा नियंत्रकों का अनुमोदन हासिल है, फिर भी यूरोपीय देशों ने इस वैक्सीन पर रोक लगाए रखी थी और इस रोक को बिल्कुल हाल ही में हटाया गया है।

उधर यूरोपीय यूनियन के अनेक देशों में संक्रमण के मामलों में हाल में आयी भारी तेजी को देखते हुए, चीन तथा रूस ने इस दरार में से अपने वैक्सीन घुसाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। हंगरी तथा सर्बिया पहले ही रूसी तथा चीनी वैक्सीन का इस्तेमाल कर रहे हैं और सर्बिया तो अपनी आबादी के सबसे बड़े हिस्से का टीकाकरण करने वाले देशों की सूची में शामिल हो चुका है। यूरोपीय यूनियन के दवा नियंत्रक ने, शुरूआत में रूस के वैक्सीन स्पूतनिक-वी के लिए दरवाजा बंद किए रखने के बाद, अब इस पर पुनर्विचार करने का रुख अपनाया है। बहरहाल, अनेक यूरोपीय देश अब यूरोपीय यूनियन के दवा नियंत्रक के फैसले का इंतजार करने के लिए तैयार नहीं हैं और उन्होंने रूस तथा चीन के साथ अलग से, वैक्सीन हासिल करने के समझौतों पर दस्तखत करने शुरू कर दिए हैं। इटली ने तो अपने यहां स्पूतनिक-वी वैक्सीन के उत्पादन की भी पेशकश की है।

अमेरिका ने अपने असर का इस्तेमाल कर के रूसी तथा चीनी टीकों को लातीनी अमेरिका से बाहर रखने की कोशिश की है। बहरहाल, अब तो अमेरिका के नजदीकी माने जाने वाले देशों ने भी, अपने वैक्सीन हासिल करने के लिए फाइजर द्वारा लगायी गयी शर्तों को ब्लैकमेल जैसा बताया है। अर्जेंटीनियाई अधिकारियों ने कहा है (एसटीएटी में 23 फरवरी 2021 की ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिज्म की रिपोर्ट) कि फाइजर ने न सिर्फ इसकी मांग की थी कि उसे गंभीर प्रतिकूल प्रभाव भुगतने वाले नागरिकों द्वारा दायर किए जाने वाले दीवानी दावों से संरक्षण हासिल होना चाहिए बल्कि फाइजर की अपनी लापरवाही, फर्जीवाड़े या दुर्भावनापूर्ण करतूतों से होने वाली क्षति की भी, संबंधित सरकार को ही भरपाई करनी चाहिए। कटे पर नमक छिडक़ने वाली बात यह कि फाइजर ने अर्जेंटीना से, इसके लिए जमानत के तौर पर अपनी संप्रभु परिसंपत्तियां--अपने फैडरल बैंक का रिजर्व कोष, दूतावास की इमारतें या सैन्य अड्डे आदि--उसके नाम रेहन करने की मांग की थी। वैक्सीन निर्माता की ऐसी ही मांगों के चलते, ब्राजील के साथ बातचीत भी टूट गयी है।

उसके बाद से अर्जेटीना तथा ब्राजील, दोनों ने ही टीकों के लिए रूस तथा चीन की ओर रुख किया है। अर्जेटीना ने स्पूतनिक-वी वैक्सीन की 2.5 करोड़ खुराकों का आर्डर दे दिया है और इस तरह रूस के लिए लातीनी अमेरिका का दरवाजा खोल दिया है। अर्जेंटीना के आर्डर के बाद से स्पूतनिक-वी के लिए मैक्सिको, बोलीविया, वेनेजुएला, निकारागुआ, होंडूरास तथा ग्वाटेमाला ने आर्डर दे दिए हैं। उधर मैक्सिको ने और चिली ने भी बड़े पैमाने पर चीनी वैक्सीन पर दांव लगाया है।

बोल्सोनारो के राज में ब्राजील में कोरोना ने भयंकर तबाही का रूप धारण कर लिया है। वहां इस महामारी से मृत्यु दर तेजी से बढ़ रही है और देश भर में अस्पताल व्यवस्था एक बार फिर करीब-करीब चरमराने की ही स्थिति में पहुंच गयी है। एक समय था जब बोलसोनारो चीनी टीकों का मजाक उड़ाते थे।

अमरीकी स्वास्थ्य तथा मनवीय सेवाएं विभाग (एचएचएस) ने तो इसकी शेखी भी मारी थी कि किस तरह उन्होंने रूस का कोविड-19 का वैक्सीन ठुकराने के लिए, ब्राजील को समझा-बुझाकर राजी किया था (एचएचएस की सालाना रिपोर्ट, 2020, पृ0 48)। अब जबकि कोविड-19 का नया वेरिएंट फैल रहा है, जिससे पहले संक्रमित हो चुके बहुत से लोगों को भी दोबारा संक्रमण हो रहा है, ब्राजीलियाइयों को बोल्सोनारो की मूर्खता का एहसास हो गया है। ठोकर खाने के बाद ब्राजील की सरकार अब साइनोफार्म तथा साइनोवैक से वैक्सीन हासिल कर रही है और इन टीकों के अपने यहां उत्पादन के लिए समझौते भी कर रही है।

अफ्रीका, अपनी वैक्सीन की जरूरतों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोवैक्स प्लेटफार्म और चीन तथा भारत की ओर देख रहा है। अमेरिका के दावों के विपरीत, विश्व स्वास्थ्य संगठन का कोवैक्स प्लेटफार्म कोई चीन के प्रभाव में काम नहीं कर रहा है बल्कि जीएवीआइ तथा सीईपीआइ के ही नियंत्रण में काम कर रहा है और इन दोनों संगठनों में बिल तथा मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, अनुपात से बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। ये संगठन किसी भी चीनी या रूसी वैक्सीन को मंजूर ही नहीं करना चाहते थे और उनका बहुत भारी झुकाव लाइसेंस के तहत भारत के सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित एस्ट्रा जेनेका के वैक्सीन के पक्ष में ही रहा है। लेकिन, एस्ट्रा जेनेका के टीकों के मुश्किलों में फंसने के चलते, 2021 के मई के महीने तक उसके कोवीशील्ड वैक्सीन की 23.7 करोड़ खूराकें (प्रतिव्यक्ति दो खूराकों के हिसाब से करीब 11.75 करोड़ लोगों के लिए वैक्सीन) ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोवैक्स प्लेटफार्म के लिए दस्तखत करने वाले, पूरे 142 देशों को दी जा सकेंगी। इसके अलावा फाइजर द्वारा अपने वैक्सीन की महज 12 लाख खुराकें उपलब्ध करायी जाएंगी और वह भी उन देशों को ही जो वैक्सीन से होने वाले हरेक नुकसान के लिए जिम्मेदारी से, उसे बचाव मुहैया कराने के लिए तैयार होंगे। इस रफ्तार से तो गरीब देशों की आबादियों के टीकाकरण का काम, 2026 तक ही पूरा हो पाएगा।

यह हमें एक बार फिर टीकों के संबंध में क्वॉड के हाल के बयान पर ले आता है। इस मामले में अमेरिका का खेल यही है कि जापान, टीके के लिए खर्चा करे, भारत टीकों का निर्माण करे और इस तरह रूस तथा चीन को, आसियान देशों में टीके देने से दूर रखा जाए। लेकिन, अमेरिका के दुर्भाग्य से इंडोनेशिया, मलेशिया तथा थाइलेंड जैसे प्रमुख आसियान देश तो पहले ही रूसी या चीनी टीकों से टीकाकरण कर रहे हैं। इंडोनेशिया ने चीन के साइनोवैक वैक्सीन की 5 करोड़ और साइनोफार्म वैक्सीन की 6 करोड़ खुराकों के लिए आर्डर दिया है। मलेशिया ने गामालेया से स्पूतनिक-वी वैक्सीन की 64 लाख खूराकों के लिए और साइनोवैक की 1.2 करोड़ खूराकों के लिए आर्डर दिए हैं। जाहिर है कि इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती है कि ये देश, भविष्य में आस्ट्रा जेनेका के वैक्सीन की अनिश्चित आपूर्तियों के लिए, चीन तथा रूस से टीकों की अपनी खरीद को रोकने के लिए तैयार होंगे, वह भी तब जबकि एस्ट्रा जेनेका इस समय अपनी यूरोपीय तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तहत वचनबद्धताएं भी पूरी नहीं कर पा रही है।

अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तथा यूके के विपरीत भारत, रूस तथा चीन, दूसरों को भी वैक्सीन मुहैया करा रहे हैं और खुद अपनी आबादियों का भी वैक्सीनकरण कर रहे हैं। जैसाकि हमने इसी स्तंभ में पहले भी दर्ज किया था, धनी देशों ने अपनी जरूरत से दो-दो, तीन-तीन गुने तक वैक्सीन बुक कर लिए हैं और इस तरह वे दूसरे देशों को वैक्सीन हासिल करने के मौके से वंचित कर रहे हैं। जैसाकि ब्राजील, योरप तथा भारत में संक्रमण की फिर से तेजी से बढ़ती संख्या दिखाती है, समूह प्रतिरोधकता (herd immunity) तभी आएगी, जब आबादी के ज्यादातर हिस्से का टीकाकरण कर दिया जाएगा। इन हालात में ज्यादातर देश यह समझ रहे हैं और इसके लिए तैयार हैं कि जो भी उन्हें वैक्सीन मुहैया कराने के लिए और उपयुक्त दाम पर मुहैया कराने के लिए तैयार हो, उससे ही वैक्सीन ले लिया जाए। यह सोचना अमेरिका और उसके संगियों की मूर्खता ही है कि शीतयुद्धीय लफ्फाजी की वापसी के रास्ते से, रूसी तथा चीनी टीकों को बदनाम करने की उनकी कोशिशें, दूसरे देशों को इसके लिए तैयार करने के लिए काफी होंगी कि कथित रूप से श्रेष्ठतरपश्चिमी टीकों के लिए अनंतकाल तक इंतजार करें और वह भी तब जबकि इन टीकों के लिए अनाप-शनाप दाम वसूल किए जाने हैं।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Vaccine Wars, the ASEAN and the Quad

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