भारत को अपनी अफगान निर्माण योजना को नहीं खो देना चाहिए
भारत संभवतः एकमात्र देश है जिसने 28 सितम्बर 2019 को अफगानिस्तान में सम्पन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव को “सफलतापूर्वक सम्पन्न करने” का स्वागत किया है। बाकी सभी देश इस पर मौन साधे हुए हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इस बार का चुनाव अभियान असामान्य तौर पर बिना किसी शोर शराबे के गुजरा, जिसमें उम्मीदवारों तक ने चुनावी अभियान में पैसा ख़र्च करने में रूचि नहीं दिखाई, जिसका परिणाम उन्हें पहले से पता था, या जान-माल के नुकसान का डर था।
मतदान के लिए काफी कम लोग अपने घरों से बाहर आये। अफगान सरकारी अधिकारियों का अनुमान है कि 95 लाख पंजीकृत मतदाताओं में से 20 से 25 लाख नागरिक ही मतदान केंद्र तक पहुंचे, जबकि अफगानिस्तान की कुल आबादी 3।5 करोड़ है और उसमें से 2 से 2।50 करोड़ आबादी मतदान योग्य है।
अब, इन 20 से 25 लाख की संख्या में आगे और गिरावट होगी जब वोटों की गिनती होगी और कुछ वोटों को फर्जी पाया जायेगा और कुछ को तकनीकी कारणों से ख़ारिज कर दिया जायेगा।
28 सितंबर का यह चुनाव दुनिया के किसी भी देश में अब तक के हुए राष्ट्रीय चुनावों में सबसे न्यूनतम मताधिकार के प्रयोग करने का विश्व रिकॉर्ड होगा। मतदाता की इस चुनाव में अरुचि का पता इस बात से चलता है कि 2014 के राष्ट्रपति चुनावों में 70 लाख नागरिकों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था।
जैसा कि पूर्वानुमान था कि 28 सितंबर के दिन भारी हिंसा हो सकती है, आश्चर्यजनक रूप से ऐसा देखने को नहीं मिला, और हिंसा की घटनाएं कमोबेश सामान्य औसत दिनों की तरह ही हुईं। मतलब साफ़ है कि तालिबान ने खुद को हिसंक “बर्बाद करने वाले” की भूमिका में दिखने के बजाय फैसला किया कि लोगों के मूड का जायजा लिया जाए।
तालिबान ने ने इस पर संतोष व्यक्त करते हुए अपने बयान में कहा है कि उनके द्वारा किसी प्रकार के भगदड़ का प्रयास के बिना “अफगान लोकतंत्र” पर मतदाताओं की उदासीनता खुलकर सामने प्रदर्शित हो गई है, और उन्होंने इसे “राष्ट्र द्वारा (चुनावों का) पूर्ण नकार और विरोध के रूप में स्वागत किया है”।
साउथ ब्लॉक का 28 सितंबर के चुनाव में अफगानी नागरिकों की हिस्सेदारी को लेकर यह उत्साही निष्कर्ष समझ से परे है कि “तमाम धमकियों, डराने की कोशिशों और हिंसा के बावजूद लोगों ने लोकतान्त्रिक शासन और संवैधानिक प्रक्रिया में अपनी आस्था व्यक्त की है” और “शांति, सुरक्षा, स्थिरता, समृद्धि और अपने देश में लोकतंत्र को स्थापित करने का उनका यह प्रयास मील का पत्थर साबित होगा” इसका जवाब हमारे अकर्मण्य अधिकारी ही दे सकते हैं।
दिल्ली की अफगान नीति ऐसा लगता है कि अशरफ ग़नी और अमरुल्लाह सालेह के किसी तरह अगले 4 साल तक सत्ता में बने रहने तक ही सिमट कर रह चुकी है। यह सच है कि राज्य तंत्र और चुनावी मशीनरी पर इनके पूरी तरह से नियन्त्रण को देखते हुए इन दोनों का चुनाव में हारना नामुमकिन है।
लेकिन पहले दिन से ही ग़नी-सालेह सरकार की सत्ता में वापसी की वैधता पर सवाल उठने शुरू हो जायेंगे। असल बात यह है कि यह चुनाव गैर-पश्तून शासनादेश है। अफगानिस्तान के राजनैतिक मानचित्र (नीचे दिया है) पर सरसरी निगाह डालें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में बमुश्किल कोई मतदान हुआ है, जो पश्तून बहुल इलाका है और तालिबानियों के कब्जे में है।
उत्तरी इलाके के सिपहसालार अट्टा नूर (भूतपूर्व बाल्ख प्रान्त के गवर्नर) और उसकी मण्डली (भूतपूर्व उत्तरी संघ) ने अपना समर्थन हाल के दिनों में राष्ट्रपति ग़नी को दिया है, और जनादेश जादुई रूप से एक गैर-पश्तून सालेह के पक्ष में जो खुद ताजिक हैं, जाता दिख रहा है। दरअसल, हमें एक कठपुतली पश्तून गद्दी पर देखने को मिलेगा जिसकी शक्तियाँ उसके ताजिक सहयोगियों के पास होंगी। जबकि पश्तूनों की आबादी कुल अफगानिस्तान की आबादी के आधे के करीब है।
इससे देश के आंतरिक स्थिरता पर कई विरोधाभासी प्रश्न खड़े होते हैं। अफगानिस्तान की राष्ट्रीय चरित्र में सत्ता का केन्द्रीयकरण एक लम्बे समय से चलने वाली बीमारी रही है और अब यह शक्ति संतुलन पश्तून के सत्ता में न होने से और अधिक बढ़ेगा, जो एतिहासिक रूप से यहाँ हमेशा से एक प्रभावी समुदाय रहा है।
विरोधभास यह है कि सत्ता का ताजिक या किसी गैर पश्तून के हाथ में केन्द्रीयकरण उनके खुद के हित में नहीं होगा। वास्तव में अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह जो खुद एक ताजिक हैं, ने ग़नी का विरोध किया है और संसदीय प्रणाली में एक ऐसे विकेंद्रीकृत मॉडल का समर्थन करते हैं जिसमें शक्तियाँ विभिन्न राज्यों में सन्निहित हों।
हज़रास ने भी हमेशा ऐसे ही विकेन्द्रित प्रणाली को अपनी मुक्ति का मार्ग बताया है। वर्तमान परिस्थितियों में व्यापक समावेशी शासन के आधार पर एक संसदीय शासन प्रणाली जिसमें तालिबान को शामिल किया जा सकता है। लेकिन दुःख की बात है कि ग़नी-सालेह गुट सत्ता के केन्द्रीयकरण में लगा है, जो एक बार फिर से माफिया राज को जन्म देगा जिसमें- स्वेच्छाचारी शासन, घोर भ्रष्टाचार और घूसखोरी, युद्ध उद्घोषक और राज्य दमन को ही बढ़ावा देने वाला साबित होगा।
28 सितंबर के नतीजे नस्लीय भेद को और तीखा करेंगे और आने वाले समय में अफगानिस्तान की राजनैतिक स्थिरता पर इसके गहरे परिणाम देखने को मिलेंगे।
पाकिस्तान विरोध के चलते भारत का संकुचित दृष्टिकोण इसे दूसरे पड़ोसी देशों से अलग करता है- खासकर चीन और रूस के जो इसे समग्रता में देखते हैं। चीन का दृष्टिकोण रूस के साथ मेल खाता है जिसमें इस बात पर अफ़सोस जताया गया है कि अफगान शांति एक बार फिर छलावा साबित हुई है। एक अस्थिर अफगानिस्तान के रूप में चीन और रूस दोनों ही सुरक्षा खतरों को कम से कम करने के कदम उठा रहे हैं, हालाँकि दोनों इस बात का समर्थन करते हैं कि जल्द से जल्द अमेरिका-तालिबान समझौता वार्ता एक बार फिर से शुरू हो।
यह तय है कि न ही चीन और न ही रूस अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, हम्दुल्लाह मोहिब द्वारा विश्व के तबाह होने वाली तस्वीर पर बहस नहीं करने जा रहे। मोहिब के शब्दों में :
“बहुत से तालिबानी कमांडर, और कट्टरपंथी शांति प्रक्रिया में शामिल नहीं होना चाहते। हमारे पास ख़ुफ़िया जानकारी है जिससे पता चलता है कि वे आईसिस में शामिल होने जा रहे हैं। यह खतरा कुछ समय में बढ़ने वाला है। अभी फ़िलहाल, आईसिस हमारे लिए कोई रणनीतिक खतरा नहीं है। कुछ जगह जहाँ उन्होंने अपना कब्जा जमा लिया था, वहाँ से उन्हें भगा दिया गया है।
लेकिन यदि शांति प्रक्रिया गलत दिशा में मुड़ती है और यदि सभी तालिबान को उसमें शामिल नहीं किया जायेगा, तो कट्टरपंथी आईसिस में शामिल हो सकते हैं, तब यह हमारे लिए और हमारे अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों के लिए रणनीतिक रूप से खतरनाक साबित हो जायेगा।
7 सितंबर के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के शॉकिंग बयान जिसमें तालिबान के साथ वार्ता को रद्द करने की घोषणा की गई- शुक्रवार को ग्लोबल टाइम्स की कमेंटरी में विस्तार से इसे बताया है कि अफगान चुनाव के अलावा भी काफी कुछ होने जा रहा है।
अफगान शांति के लिए सहयोगात्मक शासन की कुंजी शीर्षक नाम से टिप्पणी चीनी अकादमी ऑफ सोशल साइंसेज इंस्टीट्यूट ऑफ रूसी, पूर्वी यूरोपीय और मध्य एशियाई अध्ययन एक विद्वान लेखक ने लिखा है। अपने निष्कर्ष में वह कहते हैं “सामान्य तौर पर, अफगानिस्तान में शांति को बढ़ावा देने में सहयोगी शासन का महत्व काफी अधिक है।
खास तौर पर, चीन और अमेरिका को अपने फायदे के लिए अफगान शांति प्रक्रिया को मजबूत करने में सहयोग करना चाहिए। यह सिर्फ अफगानिस्तान के शांति के लिए बेहतर है, बल्कि यह चीन और अमरीकी हितों के अनुरूप है।
राजनीति विज्ञानं में “साझा नेत्रत्व” का अर्थ किसी देश की आतंरिक प्रक्रिया में सहमति-निर्माण और सार्वजनिक, निजी और सामुदायिक क्षेत्र में साझा नेटवर्क निर्मित करने से है। लेकिन चीनी विद्वान फिलहाल अफगान चुनावों को किनारे रख- जिसे समझा जा सकता है- “प्रमुख शक्तियों के बीच साझे नेतृत्व” पर ध्यान दे रहे हैं।
इस चीनी आख्यान से भारतीय नीति-निर्माताओं को अपने मूल्यांकन पर पुनर्विचार करने में मदद मिलनी चाहिए कि क्यों उसकी अफगान नीति उसके संकीर्ण दृष्टिकोण के चलते काबुल में स्थित सत्ता के दलालों के चंगुल तक सीमित हो गई है।
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