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काम के बोझ तले दबे डॉक्टर, जर्जर अस्पताल: बीमार होती सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था

“यहां तक कि सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों में, आप सामान्य वार्ड के एक ही बिस्तर पर 3-4 मरीज़ों को देख सकते हैं। और अगर यहां ऐसी स्थिति है, तो कौन जानता है कि देश के अन्य हिस्सों में क्या चल रहा है?”
जर्जर अस्पताल

राष्ट्रीय राजधानी के एक केंद्रीय सरकारी अस्पताल के ओपीडी में, पंजीकरण खिड़की के सामने सुबह 6 बजे से ही क़तारें लगनी शुरू हो जाती हैं और वो खिड़की क़तारों के लगने के लगभग ढाई घंटे बाद खुलती है। जब खिड़की खुलती है, तो मरीज़ों को कंप्यूटर जनित टोकन दिए जाते हैं, जो उन्हें डॉक्टर को सौंपने होते हैं और वे टोकन उन्हें पहले से मौजूद कांच की खिड़कियों के सामने वाली बड़ी क़तार की तरफ़ ले जाते हैं। हालाँकि, अपना नंबर आने की उनकी प्रतीक्षा यहीं समाप्त नहीं होती है। अस्पताल के लेटरहेड पर उनके नाम के साथ काग़ज़ का एक टुकड़ा मिलने के बाद - जो कि दिन के अंत तक उनका दवाई का पर्चा बन जाता है - मरीज़ डॉक्टरों को खोजने के लिए इमारत की विभिन्न मंज़िलों में अपनी खोज जारी रखते हैं और पूरे अस्पताल में इसी तरह की गहमा गहमी चलती रहती है।

यद्यपि भवन नवनिर्मित है, लेकिन इसकी चमकदार बाहरी सजावट भीतर मौजूद उस स्थिति को नहीं छिपा पाती है जहां सैकड़ों रोगी उनके डॉक्टरों को सौंपे गए कमरों के बाहर हल्की सी रोशनी वाले हॉल में आपस में जकड़े हुए बैठे रहते हैं। एक व्यस्त दिन में, अस्पताल में लगभग हर दिन ही व्यस्त होता है, एक मरीज़ जो सुबह छह बजे क़तार में लगा था, लगभग छह घंटे इस भूलभुलैया की खोज में बिताए होंगे इससे पहले कि उसका नंबर आया होगा और डॉक्टर से उसे परामर्श मिला होगा। और यह रोगी और भी भाग्यशाली होगा यदि उसे किसी चिकित्सा परीक्षण के लिए नहीं कहा गया है, क्योंकि उस जांच के लिए, प्रतीक्षा अवधि 4 से 12 सप्ताह के बीच की हो सकती है।

यदि राज्य के अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के साथ राजधानी के एक अस्पताल की ऐसी स्थिति है, तो यह आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं होगी कि देश के अन्य हिस्सों में क्या चल रहा है। सरकारी अस्पताल तृतीय प्रणाली स्वास्थ्य सेवा का मूलभूत आधार हैं। देश के ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में नाकाम प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य प्रणाली जो सार्वजनिक-वित्त पोषित होती है वह स्वास्थ्य-निर्भर रोगियों को सबसे बुनियादी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए इन अस्पतालों की ओर धकेलती है – जिन रोगों का इलाज डिस्पेंसरी, उप -स्वस्थ्य-केंद्रों में किया जा सकता है, जैसे कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHCs), और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHCs)। इससे उन सरकारी अस्पतालों पर दबाव बढ़ जाता है जो पहले से ही काम के बोझ से दबे हुए हैं।

21 जून, 2019 को सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी के बारे में लोकसभा में उठाए गए एक सवाल के जवाब में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने एक लिखित जवाब में कहा, कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में स्टाफ़ की कमी, डॉक्टरों की कमी और “विशेषज्ञ डॉक्टरों और अन्य पैरामेडिकल की कमी, राज्य दर राज्य और केंद्र शासक राज्यों में उनकी नीतियों और संदर्भ के आधार पर अलग-अलग होती है।”

दिलचस्प बात यह है कि चौबे हर बार राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) या राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के बारे में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब में कहते हैं कि योजना का क्रियान्वयन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के अधिकार क्षेत्र में है। इससे यह निष्कर्ष निकल सकता है कि केंद्र देश में सार्वजनिक वित्त पोषित स्वास्थ्य प्रणाली के रखरखाव की ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं है।

सांख्यिकी इण्डिया 2018 की प्रकाशित पुस्तक के अनुसार, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित, भारत में सरकारी अस्पतालों की कुल संख्या 14,379 है। इस संख्या की संदर्भ अवधि 31 दिसंबर, 2014 से 31 दिसंबर, 2017 की है। हालांकि, केंद्रीय स्वास्थ्य ब्यूरो द्वारा जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल (एनएचपी) 2018 में कहा गया है कि इसी तरह की संदर्भ अवधि के लिए सरकारी अस्पतालों की संख्या 23,582 है। यह वह संख्या भी है जिसे एनएचपी जारी होने के बाद से कई मंत्रियों द्वारा बार-बार उद्धृत किया गया है।

हालांकि, एनएचपी में प्रस्तुत आंकड़ों के साथ एक छोटी सी समस्या है – जो तालिका के नीचे दिए गए एक आसान-से-फुटनोट से पाठक को सूचित करता है कि 15 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के, पीएचसी की संख्या को भी अस्पतालों की संख्या में शामिल कर लिया गया है। राज्य। इससे एक अचरज पैदा होता है कि आखिर सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली की रीढ़ मानने वाले स्वास्थ्य केंद्रों को अस्पतालों के रूप में क्यों गिन रही है?

सांख्यिकीय वार्षिक किताब में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, देश भर के 14,379 सरकारी अस्पतालों में, बेड की कुल संख्या 6,34,879 है। इसी संदर्भ अवधि में, सरकारी एलोपैथिक डॉक्टरों की संख्या 1,13,328 रही है।

औसत जनसंख्या प्रति सरकारी अस्पताल

105065

औसत जनसंख्या प्रति सरकारी अस्पताल बिस्तर

1809.8

सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर पर औसत जनसंख्या

9085.9

अनुमानित जनसंख्या को तकनीकी समूह की उस रिपोर्ट से लिया गया है जिसे जनसंख्या अनुमान पर मई 2006, राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग, भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा प्रकाशित किया गया था

जन स्वास्थ्य अभियान के अनुसार, ‘सभी के लिए स्वास्थ्य’ के लक्ष्य को हासिल करने पर काम करने वाला एक आंदोलन है, भले ही ये संख्या काफ़ी सही दिखती हो, लेकिन ये देश में सार्वजनिक वित्त पोषित स्वास्थ्य प्रणाली की स्पष्ट तस्वीर नहीं बताती है। देश के शहरी और अधिक सुलभ क्षेत्रों में डॉक्टरों की संख्या में ठहराव है, जबकि ग्रामीण और दूरदराज़ के अस्पतालों में अधिकांश पद ख़ाली पड़े हैं। चौबे ने लोकसभा में कहा था: "देश में ख़ाली पड़े डॉक्टरों के पदों की संख्या के राज्यवार विवरण को केंद्रीय स्तर पर संजोया नहीं गया है।"

हालाँकि, कोई भी व्यक्ति सांख्यिकीय पुस्तक 2018 में दिए गए आंकड़ों से अनुमान लगा सकता है कि कुछ राज्यों में, प्रति सरकारी अस्पताल बिस्तर पर जनसंख्या की मात्रा और प्रति सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर की जनसंख्या की मात्रा औसत से अधिक है, जबकि बड़ी संख्या में राज्यों में, ये संख्याएँ औसत के क़रीब भी नहीं हैं।

देश भर के 29 राज्यों और 14 केंद्र शासित प्रदेशों में से 14 में, प्रति सरकारी अस्पताल जो बिस्तर की संख्या है वह आबादी औसत से अधिक है। बिहार में स्थिति सबसे ख़राब है, जहां एक बिस्तर पर 8645.31 लोगों के लिए है, जो देश भर के औसत से 377.69 प्रतिशत अधिक है। बिहार के बाद आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और झारखंड का स्थान आता है।

राज्य

प्रति बिस्तर पर जनसख्या का औसत

बिहार

8645.3

आन्ध्र प्रदेश

3818.9

उत्तर प्रदेश

3694.5

हरियाणा

3660.9

झारखंड

3078.9

छोटी आबादी वाले राज्य और केंद्रशासित प्रदेश इस क्षेत्र में बेहतर कर रहे हैं, और अन्य बड़े राज्यों में से, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, और केरल अन्य राज्यों की तुलना में अच्छा कर रहे हैं, ये प्रत्येक बिस्तर के द्वारा 573.71, 758.24, और 938.77 रोगियों की सेवा करते हैं। दिल्ली की सूची भी काफ़ी ऊपर है, जहां प्रत्येक 824 लोगों के लिए अस्पताल का एक बिस्तर उपलब्ध है।

डॉक्टरों की उपलब्धता का भी यही हाल है। जबकि कुछ राज्यों में औसतन प्रत्येक डॉक्टर द्वारा की जा रही सेवा में लोगों की संख्या औसत से बेहतर है, अन्य राज्यों में स्थिति ख़राब है। 29 में से 15 राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेशों में, प्रति सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर की आबादी देश के औसत से अधिक है। बिहार फिर से सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाला राज्य है, इसके बाद उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश हैं। बिहार में, एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर 29057.05 की जनसंख्या पर उप्लब्ध है, जो देश भर के औसत से 219.8 प्रतिशत अधिक है।

राज्य

जनसंख्या पर सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर
बिहार 29,057.05
उत्तर प्रदेश 20,594.10
झारखंड 18,518.13
मध्य प्रदेश 18,466.07
आंध्र प्रदेश 17,278.26

इस मामले में भी एक बार फिर, छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्थिति बेहतर है। बड़े राज्यों में, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल और केरल फिर से उच्च स्थान पर हैं, जहां प्रति डॉक्टर जनसंख्या क्रमशः 3174.64, 4713.91 और 6809.89 है। राष्ट्रीय राजधानी सूची के दूसरे स्थान पर है, जिसमें प्रत्येक 2202.83 के लिए एक सरकारी डॉक्टर उपलब्ध है।

हालांकि, यह डेटा अभी भी हमें देश भर के सरकारी अस्पतालों की स्पष्ट तस्वीर पेश नहीं करता है। राजधानी के सबसे बड़े केंद्रीय सरकारी अस्पतालों में से एक में काम कर रहे एक डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर न्यूज़क्लिक को बताया, कि “निजी अस्पतालों में, वे अपनी कमाई को बढ़ाने के लिए मरीज़ों को जितनी देर तक भर्ती रख सकते हैं, उतने समय तक भर्ती रखते हैं। हमारे अस्पतालों में, हमें रोगियों को जल्द से जल्द छुट्टी करने के लिए मजबूर किया जाता है क्योंकि उनका जीवन ख़तरे से बाहर होता है, ताकि अधिक रोगियों को बिस्तर मिल सके। यहां तक कि सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों में, आप 3-4 मरीज़ों को सामान्य वार्डों के बिस्तर को साझा करते देखे सकते हैं। और अगर यहां यह स्थिति है, तो कौन जानता है कि देश के अन्य हिस्सों में क्या चल रहा है?

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