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केरल सरकार ने दिखाया खेत मज़दूरों के विकास का वैकल्पिक रास्ता

केरल में खेत मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा दलित और आदिवासी समाज से आता है। उन्हें संसाधनों के आभाव में आर्थिक शोषण और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। केरल सरकार दलितों और आदिवासियों के सामाजिक भेदभाव और जातीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सख़्ती से काम कर रही है।
केरल सरकार ने दिखाया खेत मज़दूरों के विकास का वैकल्पिक रास्ता

पिछले दिनों आई राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट पर कई तरह की खबरें मीडिया में आई और उनके अलग अलग विश्लेषण भी पेश किये गए। लेकिन इस रिपोर्ट के एक हिस्से, जो ग्रामीण भारत में बढ़ रहे संकट की तरफ इशारा करता है, पर शायद ही कोई सुर्खी बनी हो। NCRB के अनुसार वर्ष 2021 में दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्या में 11.52 % की बढ़ौतरी हुई है। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2021 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 10881 लोगो (जिसमे किसान और खेत मज़दूर दोनों शामिल है) ने आत्महत्या की है।  इसमें बड़ा हिस्सा उन खेत मज़दूरों का है जो दूसरों के खेत पर काम करते हैं। आंकड़े बता रहे है कि वर्ष 2021 में खेत मज़दूरों में आत्महत्या के 5563 मामले दर्ज किए गए है। यह एक बड़ी विडम्बना है कि समाज में मेहनतकशो में सबसे हाशिए पर मौजूद खेत मज़दूरों की आत्महत्या खबर भी नहीं बनती है। एक तरफ तो  देश की आज़ादी के बाद कृषि ने तरक्की की, देश अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया परन्तु अन्न उत्पादन में लगे किसान और खेत मज़दूर आज भी जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहें हैं।

गरीब राज्यों में तो खेत मज़दूरों की हालात समझे जा सकते हैं परन्तु हरित क्रांति में अग्रणी राज्यों में भी खेत मज़दूरों की हालत दयनीय है। कृषि में अग्रणी पंजाब जैसे राज्य में खेत मज़दूरों की हालत ख़राब है। आर्थिक और सामाजिक तौर से वंचित यह तबका पंजाब जैसे राज्य में भी आत्महत्या के लिए मज़बूर हो रहा है। खेत मज़दूरों की आत्महत्या में इस वृद्धि के लिए जिम्मेवार सरकारों द्वारा लागू की जा रही नीतियां है जिनमे खेत मज़दूर गायब है। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि क्या सारे भारत में खेत मज़दूरों की हालत ऐसी ही है। क्या किसी राज्य में विकास का कोई वैकल्पिक रास्ता भी लागू किया जा रहा है जिसमे खेत मज़दूरों का जीवन भी मायने रखता हो। खेत मज़दूरों के जीवन में बदलाव के प्रयास का एक बड़ा उदाहरण मिलता है केरल की वामपंथी सरकार की नीतियों में।

एक सम्मान पूर्वक जीवन जीने के लिए खेत मज़दूरों को उनकी मेहनत की उचित मज़दूरी, उनके अपने हिस्से की ज़मीन, रहने के लिए घर, बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा, बच्चो के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा और उम्र ढलने के बाद पेंशन मिलनी चाहिए। ठहरिये इससे पहले कि आप खेत मज़दूरों के लिए दया दिखाने लगे और उपरोक्त मौलिक जरूरतों का आधार केवल करुणा मान लें, यह स्पष्ट करना बहुत जरुरी है कि एक सम्मानपूर्वक जीवन के लिए गिनाई गई उपरोक्त मूलभूत जरूरते खेत मज़दूरों का अधिकार है न कि सरकारों और समाज की दया। जब पूरे देश में खेत मज़दूर अपनी नज़रअंदाजी के खिलाफ जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे है तो देश के एक छोटे से प्रदेश में खेत मज़दूरों, किसानों और मज़दूरों की ताकत  से बनी वामपंथी सरकार रास्ता दिखा रही है।  केरल में खेत मज़दूर न केवल महत्वपूर्ण उत्पादनकर्ता समझे जाते है बल्कि LDF सरकार के विकास की नीति में उनके जीवन का विकास भी शामिल है। इस लेख के अगले कुछ हिस्सों में केरल सरकार की खेत मज़दूरों और दूसरे ग्रामीण मज़दूरों के जीवन से जुडी कुछ नीतियों पर चर्चा करेंगे और देख्नेगे कि कैसे केरल सरकार रास्ता दिखा रही है।

न्यूनतम मज़दूरी: मज़दूरी का प्रश्न

खेत मज़दूरों के लिए आधारभूत प्रश्न है।  पूरे देश में कृषि में लगातार कम होते काम और खेत मज़दूरों की बढ़ती संख्या का सीधा प्रभाव पड़ा है खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी की दरों के लिए मोल भाव करने की क्षमता पर। परिणामस्वरूप ज्यादातर राज्यों में खेत मज़दूरों के लिए राज्य सरकारों द्वारा मज़दूरी की दरें घोषित ही नहीं की जाती। कई वर्ष गुजर जाते है न्यूनतम मज़दूरी की दरों ही समीक्षा किए । ऐसी में अगर दिखावे के लिए कुछ बढ़ौतरी होती भी है तो यह महंगाई की दर से बहुत कम होती है। हालाँकि यह मामूली बढ़ौतरी भी कागज़ो पर ही रह जाती है क्योंकि इसे लागू करवाने का न तो ढांचा है और न ही इच्छाशक्ति। इसके विपरीत केरल में न्यूनतम मज़दूरी कई राज्यों से दौगुनी है।  आरबीआई की 2020-21 की 'दैनिक मजदूरी श्रेणीकी रिपोर्ट में केरल सबसे ऊपर है।

इस रिपोर्ट के अनुसार देश में निर्माण मज़दूरों, खेत मज़दूरों और गैर-कृषि मज़दूरों को सबसे अधिक भुगतान केरल में किया जाता है। गौरतलब है कि इस रिपोर्ट में 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए ग्रामीण भारत में राज्य-वार औसत दैनिक वेतन की सूची दी गई है।  खेत मज़दूरों को केरल में राष्ट्रीय औसत 309.9 रुपये के मुकाबले 706.5 रुपये दिहाड़ी मिलती है। वही पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सहित 10 राज्य में राष्ट्रीय औसत से कम मज़दूरी मिलती है । केरल का एक निर्माण मज़दूर औसत 829.7 रुपये की मजदूरी कमाता है। निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों की मज़दूरी की राष्ट्रीय औसत 362.2 रुपये है । केरल में मज़दूरों को दी जाने वाली न्यूनतम मजदूरी, राष्ट्रीय औसत की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। वहीं भाजपा का मॉडल राज्य गुजरात कम वेतन वाले निचले पांच राज्यों की सूची में शामिल है।

खेत मज़दूरों के लिए वेलफेयर बोर्ड

आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हमारे देश में खेत मज़दूरों के लिए कोई अलग कोई कानून नहीं है और देश के खेत मज़दूर अपने लिए एक व्यापक केंद्रीय कानून की मांग कर रहें है। लेकिन केरल में खेत मज़दूरों के आंदोलन का यह नतीजा था कि 1974 में ही खेत मज़दूरों के लिए एक कानून बनाया गया।  इसी कानून के तहत खेत मज़दूर कल्याण कोष बोर्ड का गठन किया गया था। सन 1990 में ई. के. नायनार की वाम मोर्चे की सरकार ने इसे पूर्ण रुप से लागू किया।  इस कोष में खेत मज़दूरों और ज़मीन के मालिकों दोनों को अपना हिस्सा जमा करवाना पड़ता है। खेत मज़दूरों द्वारा जमा किये गए हिस्से को लाभार्थियों का योगदान कहा जाता है जो साल में एक बार इकट्ठा किया जाता जबकि इसकी गणना मसिक मासिक आधार पर होती है। इस फण्ड में ज़मीन के मालिकों के हिस्से का निर्धारण उनकी ज़मीन के क्षेत्रफल के हिसाब से होता है।  खेत मज़दूर 18 वर्ष की उम्र में इस फण्ड में सदस्य के रूप में पंजीकृत हो सकते है और 60 वर्ष तक सदस्य रह सकते है।  40 वर्ष तक इस फण्ड में अपना योगदान देने के बाद जब मज़दूर सेवानिवृति की (60 वर्ष) आयु में पहुंचते हैं तो उन्हें 25000 हज़ार रुपये मिलते हैं। इसके अतिरिक्त खेत मज़दूरों को उनकी बेटियों की शादी, बच्चो के पैदा होने पर, बिमारियों के इलाज, परिवार के सदस्य के मरणोपरांत अंतिम संस्कार के लिए, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक और स्नातक परीक्षाओं में बच्चों के अच्छे प्रदर्शन पर वित्तीय सहायता दी जाती है।  अलग अलग कारण के लिए अलग वित्तीय सहायता दी जाती है और इसकी समय समय पर समीक्षा भी होती है। वर्तमान में इस फण्ड में 557621 खेत मज़दूर सदस्य है।  इस बोर्ड में सरकार के सात प्रतिनिधि, खेत मज़दूरों के सात प्रतिनिथि और सात प्रतिनिधि ज़मीन के मालिकों के होते है। इनमे से ही एक अध्यक्ष बनाया जाता है। वर्तमान में अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन की केरला राज्य कमेटी (KSKTU) के सचिव एन चंद्रन इसके अध्यक्ष हैं। 

पेंशन

खेत मज़दूर कल्याण कोष बोर्ड के सदस्यों को काम की उम्र ख़त्म होने पर (रिटायरमेंट, जो कभी खेत मज़दूरों में होती नहीं है) मासिक पेंशन दी जाती है।  जिन खेत मज़दूरों की सलाना आय एक लाख से कम है, जिनके पास दो एकड़ से ज्यादा ज़मीन की मालकियत नहीं है और जिनकी उम्र 60 वर्ष हो गई है वह इस पेंशन के अधिकारी होते है। इसके लिए केवल स्थानीय निकाय में अर्जी देनी होती है। फॉर्म के सत्यापन के बाद प्रशासनिक परिषद सरकार को सूचित कर देती है, जो पेंशन बांटने का प्रबंध करती है। यह पेंशन स्कीम केरल में 1982 में शुरू की गई थी।  केरल में एक दशक तक खेत मज़दूरों के संघर्ष का परिणाम है यह पेंशन। एक समय था जब पेंशन की मांग उठाने के लिए केरल की वुर्जुआ पार्टिया हमारा मज़ाक उड़ाया करती थी लेकिन केरल की वामपंथी सरकार ने हमारे संघर्षो को सुनते हुए पेंशन स्कीम शुरू की जो आज तक जारी है चाहे सरकार किसी की भी हो।  उस समय पूरे देश में यह अपने तरह ही अलग पहल थी जिसने काम की उम्र बीत जाने पर खेत मज़दूरों के लिए एक सम्मानपूर्वक जीवन जीने में मदद की। उस समय 45 रुपये मासिक दर शुरू होकर आज यह पेंशन 1600 रूपये मासिक पहुँच गई है।  इसके लिए पूरा बजट राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध करवाया जाता है।  इस समय कुल मिलकर 394444 खेत मज़दूरों को यह पेंशन मिल रही है।  वर्तमान सरकार बिना किसी की रूकावट के हर महीने स्थानीय सहकारी बैंक की मदद से खेत मज़दूरों के घर पर ही पेंशन पहुंचा रही है।  

ज़मीन का पट्टा

जब हमारे देश ने आजादी हासिल की तो खेतिहर मजदूरों का एक सपना था कि उनके पास अपनी खुद की जमीन का एक टुकड़ा खेती के लिए हो। उनका यह सपना एक गरिमामय जीवन से जुड़ा था। लेकिन देश में असंख्य लोग आज भी अपने हिस्से की भूमि की आस लगाए बैठे है। 

हालत यह है कि पिछले दशकों में विशेष रूप से नव-उदारवादी सुधारों के बाद से भूमि सुधारों की उपलब्धियों को पलटा जा रहा है। अगर हम एनएसएसओ के 43वें दौर के सर्वेक्षण (1987-88) की तुलना एनएसएसओ के 68वें दौर (2011-12)  के सर्वेक्षण से करे तो पाते है कि इस अवधि के दौरान ग्रामीण इलाकों में भूमिहीन परिवार (0.01 हेक्टेयर से कम भूमि वाले) 35 प्रतिशत से बढ़कर 49 प्रतिशत हो गए।    केरल में भूमि सुधार देश की पहली वामपंथी सरकार का प्रमुख एजेंडा था। केरल के मेहनतकश और वहां की वाम आंदोलन का भूमि सुधार को लेकर आंदोलन का गौरवशाली इतिहास रहा है और इसके लिए असंख्य कुर्बानिया दी गई है। केरल की वामपंथी सरकार द्वारा लागू किये गए समूचे भूमि सुधार जैसे उदाहरण विरले ही देखने को मिलते है, जिसके जरिए लाखो लोगो को ज़मीन का हक़ मिला था ।  इसके बारे में बहुत कुछ लिखा -कहा गया है, हालाँकि उसे बार बार दोहराने की ज़रूरत है।   

जहां केंद्र की सरकार के एजेंडे से भूमि सुधार और भूमिहीनों में ज़मीन के वितरण गायब है उल्टा कुछ लोगों का मानना है कि भारत में भूमि सुधार की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं  और भविष्य में ग्रामीण क्षेत्रों में विकास केवल निजी निवेश से ही हो सकता है। वही केरल की वामपंथी सरकार आज भी भूमिहीनों में पट्टे बाँट रही है।  यह समझने की जरुरत है कि खेत्रफल की दृष्टि से केरल एक छोटा सा राज्य है और कृषि के लिए सिमित ज़मीन उपलब्ध है।  ऐसी हालत में यह वामपंथी सरकार की भूमिहित खेत मज़दूरों के प्रति प्रतिबद्धता और राजीनीतिक इच्छाशक्ति ही है जिसके चलते पिछले 6 वर्षो में 234567 भूमि विलेखों (land deeds) का वितरण किया गया।  इनमे वह किसान भी शामिल है जो ज़मीन पर खेती तो कर रहे थे परन्तु उनके पास उसकी मालकियत के कोई कागज़ नहीं थे।  अब वह ज़मीन के मालिक है।

रहने के  लिए घर

हर इंसान का सपना है कि उसका अपना घर हो जिसमे वह अपने परिवार के साथ सुरक्षा और सम्मान से रह सके। लेकिन हमारे देश में लाखों लोगो के पास अपना घर नहीं है। खेतिहर मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा बेघर है। सबको घर उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेवारी है परन्तु केंद्र में पूर्व की यूपीए और वर्तमान एनडीए सरकार द्वारा अपनाई गई नई आर्थिक नीतिय लोगों को उनके घरों से विस्थापित कर रही हैं। आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों को भूमि का अधिकार देने वाले वनाधिकार अधिनियम जैसे अधिनियमों का उपयोग लाखों आदिवासियों को उनके घरो से खदेड़ने के लिए किया जा रहा है। भारत में जबरन बेदखली पर द हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (HLRN) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों ने 2017, 2018, और 2019 में 177,700 से अधिक घरों को तोडा है ।  जिसका अर्थ है कि इस दौरान प्रतिदिन कम से कम 519 लोगों ने अपने घरों को खो दिया।  लगभग पांच घरों को प्रति घंटा नष्ट किया जा रहा हैलगभग 22 लोगों को हर घंटे अपने घरो से बेदखल किया जा रहा है। एचएलआरएन  की ही रिपोर्ट के अनुसार ही महामारी के दौरान (16 मार्च और 31 जुलाई, 2020 के बीच) भी, भारत में राज्यों के अधिकारियों ने कम से कम 20,000 लोगों को उनके घरों से  जबरन बेदखल कर दिया है। इसके विपरीत केरल की वामपंथी सरकार ने पिछले 6 वर्षो में 296008 बेघर परिवारों को घर  उपलब्ध करवाए है जिनमे से अधिकतर खेत मज़दूर है।  इसके अलग एक पहलू यह भी है कि केरल में सरकार द्वारा बनाए घर घरो और अन्य राज्यों में सरकारी अनुदान से बने घरो की गुणवत्ता में बहुत बड़ा अंतर है। केरल सरकार द्वारा वितरित घरो की गुणवत्ता काफी उच्च दर्जे की होती है।

सार्वजानिक संस्थानों का लाभ

पूरे देश में कल्याणकारी राज्यों की सार्वजानिक संस्थानों के जरिये खेत मज़दूरों सहित आम जनता के जीवन को आसान बनाने में केरल न केवल अव्वल है बल्कि अन्य राज्यों से कहीं आगे भी है।  केरल की सार्वजानिक शिक्षा विशेष तौर पर प्राथमिक शिक्षा का ढांचा और गुणवत्ता का पूरे देश में कोई सानी नहीं है। उसी तरह केरल में सार्वजानिक स्वास्थय का ढांचा तो पूरे विश्व में प्रसिद्द है विशेष तौर पर जिस तरह केरल ने कोविड महामारी को अपने मज़बूत सार्वजानिक ढांचे की मदद से हराया और आम जनता के जीवन की देखभाल की यह एक मॉडल के रूप में उभरा है।  इसके लिए कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने केरल को सम्मानित भी किया है। इसका मुख्य कारण केरल के वामपंथी सरकार की आर्थिक नीति है जिसमे सार्वजानिक संस्थानों को प्राथमिकता दी जाती है न कि मुनाफे के लिए मानवता दांव पर लगा देने वाले निजी क्षेत्र को। हालाँकि मुश्किल काम है जब आप नवउदारवाद के इस युग में एक राज्य के सिमित संसाधनों से कोई विकल्प पेश करते है।  यही कारण है कि जहाँ पूरे देश में सरकारी स्कूल बंद किये जा रहे है, केरल सरकार ने राज्य में कांग्रेस नेतृत्व वाली पिछली UDF सरकार द्वारा बंद स्कूलों को फिर से खोला।  केरल में पूरे देश के विपरीत सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़ रही है और निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या घट रही है।

स्वास्थ्य पर अपनी जेब से नागरिको द्वारा खर्च वहन करने के मामले में हमारा देश शीर्ष के कुछ देशो में  आता है।  इसका मतलब है कि स्वास्थ्य के निजीकरण के चलते लोगो को अपने इलाज का खर्च खुद उठाना पड़ रहा है। यह गरीबी बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक बन रहा है। ऐसी स्तिथि में ग्रामीण भारत में खेत मज़दूर घोर अनिश्चितताओं में जी रहे है।  वही केरल में खेत मज़दूरों को न तो अपने बच्चो के शिक्षा का खर्च उठाने की चिंता है और न ही बीमार पड़ने पर महंगे इलाज की।  एक मज़बूत सार्वजानिक वितरण प्रणाली जो केवल कुछ खाद्यानों तक सिमित नहीं है बल्कि रसोई घर में पौष्टिक खाना बनाने के लिए सभी जरूरी सामान मसलन दालो, खाद्य तेल, नमक, हल्दी, मसालों, इत्यादि को भी नागरिकों को उपलब्ध करवाती है, खेत मज़दूरों के लिए एक बड़ा सहारा है। भुखमरी के राक्षस को इस सार्वजानिक वितरण प्रणांली के रहते किसी भी नागरिक को अपना शिकार बनाने का मौका नहीं मिलता है। केरल सरकार के प्रयासों से कल्याणकारी राज्य के हिस्से के तौर पर विकसित कल्याणकारी योजनाओं का एक जीवन रक्षक जाल गरीबो सहित खेत मज़दूरों के जीवन की रक्षा कर रहा है जिसका मतलब है कि उनको दूसरो की दया पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है बल्कि अधिकार अपना जीवन जीते हुए एक बेहतरीन समाज के निर्माण में अपना सृजनात्मक योगदार दे रहे है।  

आर्थिक ही नहीं सामाजिक तौर पर भी केरल की वामपंथी सरकार खेत मज़दूरों के साथ खड़ी है। खेत मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा दलित और आदिवासी समाज से आता है। उन्हें संसाधनों के आभाव में आर्थिक शोषण और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। केरल सरकार दलितों और आदिवासियों के सामाजिक भेदभाव और जातीय उत्पीड़न के खिलाफ सख्ती से काम कर रही है। केरल देश का पहला राज्य था यहां मंदिरों में दलित पुजारी लगाए है। एक उदाहरण पेश करते हुए वर्तमान में केरल में मंदिरो के रखरखाव के मंत्रालय में एक दलित को मंत्री बनाया गया है। इसकी हम अन्य राज्यों में कामना भी नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि केरल की वामपंथी सरकार खेत मज़दूरों के आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए मज़बूती से काम कर रही है।

 

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