महाराष्ट्र : बद से बदतर होते जा रहे हैं सूखे के हालात
गर्मी बढ़ती जा रही है और देश के बड़े हिस्से में सूखे के हालात हैं। लेकिन महाराष्ट्र लंबे समय से सूखे से बुरी तरह प्रभावित है। फरवरी 2019 में महाराष्ट्र सरकार के अनुसार महाराष्ट्र के 358 में से 151 तालुका सूखे की चपेट में थे। अगर गांवों के लिहाज से देखें तो इतने तालुका में तकरीबन 28524 गाँव आते हैं। यानी महाराष्ट्र के तकरीबन 28524 गाँवों में पानी की भीषण समस्या है।
माराठवाड़ा के औरंगाबाद, उस्मानाबाद, जालना, नांदेड, परभणी, बीड, लातूर, व उत्तर महाराष्ट्र के धुले, नांदुरबार जलगांव अहमदनगर जिलों और पश्चिमी महाराष्ट्र में स्थिति बहुत गंभीर है। राज्य के कई अन्य इलाकों में भी कम बारिश के कारण फसलें और पेयजल के भंडार सूखे की चपेट में हैं। जलाशयों का जल स्तर काफी नीचे पहुँच चुका है। कई कुएं सूख चुके हैं। और जिन कुओं में पानी है,वहां भीड़ लगी रहती है।
1500 से अधिक आबादी वाले गाँव में 15 -15 दिनों तक पानी नसीब नहीं हो रहा है। लोग पानी जमा कर रखते हैं। कपड़े और बर्तन धोने के लिए पानी जमा कर रखना होता है। कभी-कभी तो 15 दिनों तक बिना नहाये रहना पड़ता है। यहां के लोगों का कहना है काम की बजाय पानी के खोज में दर-दर भटकना पड़ रहा है। इससे सबसे ज़्यादा प्रभवित मराठवाड़ा हुआ है। मराठवाड़े के इलाके में पिछले साल तकरीबन 30 फीसदी का जलस्तर कम होकर अब 5 फीसदी तक पहुँच चुका है।
सूखे से जुड़े मसले पर बात करते हुए स्थानीय पत्रकार अमेय तिरोदकर कहते हैं कि इस साल सूखे की स्थिति महाराष्ट्र में विकराल बन चुकी है। महाराष्ट्र का तकरीबन आधे से अधिक इलाका सूखे के चपेट में हैं। महाराष्ट्र में औसतन 60 से 80 सेंटीमीटर की बरसात होती है। बरसात की यह मात्रा घटकर अब 18 सेंटीमीटर तक पहुँच चुकी है।
आसान भाषा में इसे ऐसे समझिये कि जितनी बरसात बिहार और उत्तर प्रदेश में होती है, उससे आधी बरसात महाराष्ट्र में औसतन होती है। और इस साल की हालत तो इतनी बुरी है कि औसत के पांचवें हिस्से से भी कम बरसात हो रही है। साल दर साल महाराष्ट्र में बारिश कम होती जा रही है। साल 2013 में बारिश 20 फीसदी कम हुई, साल 2014 में 30 फीसदी, साल 2015 में 40 फीसदी और साल 2016 में तकरीबन 50 फीसदी कम बारिश हुई। यानी बारिश लगातार कम होती जा रही है।
अमेय तिरोदकर आगे कहते हैं कि केवल बारिश की कमी की वजह से ही नहीं लेकिन भूमिगत जलस्तर में बहुत अधिक कमी आने की वजह से भी महाराष्ट्र की यह हालत हुई है। इसकी सबसे बड़ी वजह महाराष्ट्र में उन फसलों की अधिक खेती होना है, जिसमें पानी का इस्तेमाल सबसे अधिक होता है। जैसे गन्ने और कपास की खेती। इसका मतलब यह भी नहीं है कि गन्ने की खेती ही नहीं हो लेकिन गन्ने की उन किस्मों की खेती हो, जिसकी पैदवार के लिए कम पानी का इस्तेमाल होता है। ऐसी गन्ने की खेती दुनिया के कई इलाके में की जा रही है और पंजाब के एक इलाके में भी ऐसे गन्ने की खेती हो रही है। साथ में अमय यह भी कहते हैं कि मानसून की भौगोलिक दशाओं की वजह से महाराष्ट्र हमेशा से कम पानी वाला इलाका रहा है। इसलिए यहां की जमीनें ज्वार और बाजरा जैसी खेती के लिए उपयुक्त रही। लेकिन ज्वार की वजह से यहाँ पर शराब उद्योग का जमकर फैलाव हुआ। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया। ज्वार की पैदावार कम होने लगी और इसकी जगह गन्ने ने ले ली। हालाँकि गन्ने की खल की वजह से भी शराब बनती है और गन्ने से मिलने वाले इथोनल से पावर जेनेरेशन भी होता है। लेकिन यह इतना अधिक नहीं है कि इस इलाके में परेशानी की वजह बने।
इन सारी परेशानियों से निजात पाने के लिए फड़नवीस सरकार ने जलयुक्त शिविर अभियान योजना शुरू की। इस योजना के तहत जनसहभागिता के आधार पर जल उपलब्ध करवाने से जुड़े तमाम उपायों को शुरू करना था। जैसे कि जलाशयों का निर्माण, नाला बनाना, कुएं खोदना, जमीनी जलधाराओं को खोजना। यह सारे काम बड़े जोर शोर से शुरू हुए लेकिन बाद में जाकर इससे जनसहभागिता को बाहर कर दिया गया और केवल कॉन्ट्रेक्ट के तहत यह काम किया जाना लगा। इस पर अमेय कहते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर जलयुक्त शिविर अभियान शुरू करने की वजह से सारे काम गड़बड़ हो गए है। कॉन्ट्रैक्ट पर काम कारण वाले लोगों को स्थानीय भूगोल की जानकारी नहीं होती है और जनसहभागिता से यह लोग दूर भागते हैं। इसलिए इन लोगों ने केवल जमीन खोदने का काम किया है, जमीन से पानी निकालने का नहीं।
जलयुक्त शिविर अभियान योजना ठप हो चुकी है। इसकी जगह वाटर टैंकरों पानी पहुँचाने का काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र के तकरीबन चालीस फीसदी इलाके में वाटर टैंकर से पानी पहुँचाया जा रहा है। इसलिए वाटर टैंकर से जुडी अर्थव्यवस्था का यहां पर जमकर विकास हुआ है। चार लोगों के एक परिवार को वाटर टैंकर से पीने का पानी लेने के लिए प्रति महीना तकरीबन 3000 रुपये का खर्चा उठाना पड़ता है। बिचौलिए की वजह से इस खर्चे में बढ़ोतरी होती रहती है। यह खर्चा मुंबई में रहने वाले किसी निवासी द्वारा महीने भर की बिजली उपयोग पर किये गए भुगतान के बराबर पहुँच जाता है। कई जगहों पर जमीन खोदकर पानी निकालने के नाम पर मिनरल वाटर का धंधा शुरू हो चुका है। इस धंधे से जुड़े लोग जमीन से पानी निकालने के लिए जमीन में बहुत गहरी खुदाई करते हैं। और ऐसे पानी को औरंगाबाद जैसे इलाकों में दो गुने कीमत पर बेचते हैं।
सूखे से जुड़े क्षेत्रों के स्थानीय निवासीयों का कहना हैं कि पिछले दो चुनावों से सरकार जल संग्रहण से जुड़े प्रोजेक्ट शुरू करने और मुफ्त में वाटर ट्रैन की व्यवस्था कराने की वादा कर रही है। लेकिन हर बार निराशा हाथ लगती है। सरकार के बस का नहीं है कि वह यहां पर कुछ भी बदलाव कर पाए, कुछ भी बदलाव होगा तो स्थानीय जनता की सामूहिक भागीदारी से ही होगा। इस तरह से महाराष्ट्र के सूखे से जुड़े इलाको के लोगों की दशा बद से बदतर होती जा रही है।
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