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महाराष्ट्र : बेमौसम बरसात से 40 लाख हेक्टेयर का अनाज 'पानी में', सरकार से कोई राहत नहीं

जून और अगस्त के बीच 32 ज़िलों में भारी बारिश और बाढ़ ने 2.6 लाख हेक्टेयर में फसलों को नष्ट कर दिया। जुलाई से अगस्त के बीच लगातार बारिश के कारण 9 अन्य ज़िलों में 5.5 लाख हेक्टेयर फसल जलमग्न हो गई।
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विदर्भ अंचल के खेतों का हाल। कभी सूखे तो कभी बारिश से परेशान किसान को सरकार से भ्ज्ञी खास राहत नहीं मिल रही है। तस्वीर: आकाश घिवारे

अगर खेती के जानकारों से पूछा जाए कि सत्ताईस में से नौ घटाने पर कितना बचता है, तो उनका उत्तर होगा शून्य। वजह, कुल 27 नक्षत्र होते हैं, जिनमें नौ नक्षत्र बारिश से संबंधित हैं। इसलिए किसानों का अन्य नक्षत्रों से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन, अब स्थिति यह हो गई है कि 27 में से 27 नक्षत्रों में बारिश हो जा रही है। अनुभव के आधार पर ऋतुओं का विभाजन और गर्मी, मानसून, सर्दी जैसी हमारी सुविधाएं अब बाधित हो रही हैं। तीनों ऋतुओं में वर्षा हो रही है।

इसका बुरा प्रभाव कृषि क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। महाराष्ट्र का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 307.58 लाख हेक्टेयर है। इसमें से फसल की बुवाई के लिए उपयुक्त क्षेत्र 166.50 लाख हेक्टेयर है। इसमें से खरीफ फसलों का रकबा 151.33 लाख और रबी का रकबा 51.20 लाख हेक्टेयर है। ग्रीष्म फसलों का रकबा बमुश्किल दो लाख हेक्टेयर है। लेकिन, राज्य में खरीफ की बुवाई औसतन 151.33 लाख हेक्टेयर में होती है जिसमें से बताया जा रहा है कि करीब 40 लाख हेक्टेयर में बारिश के कारण अनाज बर्बाद हो गया है।

जून और अगस्त के बीच 32 जिलों में भारी बारिश और बाढ़ ने 2.6 लाख हेक्टेयर में फसलों को नष्ट कर दिया। जुलाई से अगस्त के बीच लगातार बारिश के कारण नौ अन्य जिलों में 5.5 लाख हेक्टेयर फसल जलमग्न हो गई। इसके बाद कीड़ों ने कहर बरपाया, जबकि इसी दौरान बारिश भी जारी रही। नतीजा, चार जिलों में 73 हजार हेक्टेयर पर सोयाबीन बर्बाद हो गया। सितंबर में फिर बारिश हुई। सीजन के बीच में ढाई लाख हेक्टेयर में लगी फसल बर्बाद हो गई। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में, मानसून की बारिश ने क्षेत्र में दस्तक दी, जिससे 16 जिलों में 1.5 लाख हेक्टेयर की कटी हुई फसल नष्ट हो गई। नुकसान का रकबा करीब 40 लाख हेक्टेयर हो गया है, यह राज्य में कुल खरीफ क्षेत्र का 30 फीसदी से ज्यादा हिस्सा है।

मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की थी कि इस साल मानसून की बारिश समय पर आएगी और औसत के बराबर ही गिरेगी। लेकिन, बारिश का चक्र अनिश्चित हो गया। नतीजा, राज्य के कोंकण अंचल में धान की बुवाई प्रभावित हुई। उसके बाद मानसून की बारिश ने जोरदार रूप धारण कर लिया। जुलाई-अगस्त में हुई मूसलाधार बारिश ने सबसे पहले विदर्भ और मराठवाड़ा में भारी नुकसान किया। लंबे समय तक बारिश के कारण विदर्भ, मराठवाड़ा में बुवाई का तरीका बदल गया है। दलहन की बुआई कम होते ही किसानों ने उपाय के तौर पर सोयाबीन, अरहर और कपास की बुआई की। फसलें अच्छी थीं। लेकिन, मानसून की बारिश ने धीरे-धीरे सब मिट्टी पलीद कर दिया।

सोयाबीन, कपास और केले की फसल बर्बाद

खेत में सोयाबीन की फसल जो डेढ़ से दो फीट ऊंची हो गई थी, फसल कटाई के लिए तैयार थी कि तभी बेमौसम बारिश हुई और पूरी फसल घुटने तक पानी में डूबे गई। चार-पांच दिनों तक सोयाबीन की फसल पानी में डूबी रहने की वजह से सोयाबीन सड़ कर खेत में काला पड़ गया। इस साल सोयाबीन के भाव 10-12 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक जाने से संभावना जताई जा रही थी, इसलिए खास तौर से सोयाबीन की खेती करने वाले विदर्भ के किसानों को इससे बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन बेमौसम बारिश के कारण किसानों की उम्मीदें घुटनों तक पानी में तैर गईं।

इस बार कपास की स्थिति भी सोयाबीन जैसी ही रही। मराठवाड़ा और विदर्भ में सफेद सोना के तौर पर प्रसिद्ध कपास बारिश में भीग गया, सड़ गया, पानी में तैर लगा। भीगे हुए कपास से अच्छा सूत नहीं बनता है, इसलिए इसे 50 प्रतिशत कम पर बेचा जाता है। बारिश में भीगने के बाद कपास काला हो जाता है, वजन घटता है। वहीं, इन अंचलों में घर पर कपास को स्टोर करने के लिए जगह नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक कपास उत्पादन में गिरावट के कारण किसानों को अच्छी कीमत मिल रही है, लेकिन यहां भी बारिश ने किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। यवतमाल, भंडारा, अकोला, वाशिम, नांदेड़ जैसे जिलों में कपास की फसल को भारी नुकसान हुआ है।

जलगांव जिले में केले के बागानों में काफी लंबे समय तक पानी जमा रहा, जिससे केले के पेड़ की जड़ें सड़ गईं और पत्ते पीले हो गए। गर्मी कम होने से केले के पकने का समय बढ़ता गया। जाहिर है कि इससे केले की गुणवत्ता में भी कमी आएगी। विदर्भ में, संतरे और मौसंबी की फसल की स्थिति भी केले की फसल से अलग नहीं है। भारी बारिश के कारण मौसंबी   के फूल और फल नष्ट हो गए हैं और पेड़ पीले हो गए है। लेकिन, भारी बारिश से मौसंबी की फसल बर्बादी का क्रम यह पिछले तीन-चार सालों से चल रहा है।

इधर, पश्चिमी महाराष्ट्र में भारी बारिश ने गन्ना किसानों का गणित बिगाड़ दिया है। गन्ने के खेतों में कीचड़ और नदी किनारे की सड़कों के कारण पानी वाली सड़कें अभी भी कीचड़ से ढकी हुई हैं, गन्ने की कटाई धीमी है। कटे हुए गन्ने को फैक्ट्री में लाने की कवायद चल रही है। दशहरे के अवसर पर शुरू होने वाली चीनी मिलें अभी भी पूरी क्षमता से नहीं चल रही हैं। ऐसे संकेत हैं कि मराठवाड़ा में गन्ने का मौसम पिछले साल की तुलना में इस साल लंबा हो जाएगा।

वहीं, नासिक, जलगांव, पुणे, नगर, सोलापुर, सांगली जिलों में अब अंगूर की खेती बढ़ गई है। 15 अगस्त के बाद सांगली के पूर्वी हिस्से और नासिक के कलवान, सतना, मालेगांव, देवला (कसमाडे) हिस्सों में अंगूर की छंटाई शुरू हो जाती है। हर साल सितंबर के अंत तक लगभग 70 प्रतिशत फलों की छंटाई पूरी हो जाती है। लेकिन, इस साल दिवाली होने के बावजूद केवल 20 प्रतिशत फलों की ही कांट-छांट की गई। अंगूर उत्पादक बारिश से इस कदर डरे हुए हैं कि जब तक बारिश पूरी तरह से थम नहीं जाती, तब तक किसान बगीचे में नहीं जाते। कोरोना के कारण अंगूर को पिछले कुछ वर्षों से अपेक्षित मूल्य नहीं मिल रहा है। अंगूर बहुत नाजुक फसल होने के कारण दवा के छिड़काव पर लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। इसके चलते इस साल कई जगह अंगूर की खेती बंद रही। किसान किसी भी तरह का आर्थिक जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं।

पंचनामा की बहस में उलझा शासन प्रशासन

प्रकृति की मार के बीच उम्मीद थी कि प्रशासन और सरकार से कुछ राहत मिलेगी। लेकिन, भारी बारिश के बाद सरकारी स्तर पर बहस छिड़ गई। कृषि, राजस्व एवं ग्रामीण विकास विभाग में इस बात पर बहस छिड़ गई कि जुलाई में भारी बारिश से क्षतिग्रस्त हुए विदर्भ में कृषि का पंचनामा कौन करे, कौन सूचना एकत्र करे और वेबसाइट पर जानकारी कौन भरे।

दूसरी तरफ, फसल बीमा कंपनियों को केंद्र और राज्य सरकारें कितनी भी मदद क्यों न दें, किसानों को दिया जाने वाला मुआवजा सीमित है। वहीं, किसान ग्लोबल वार्मिंग के कारण चक्रवात, गर्मी की लहरों, ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का लगातार सामना कर रहा है। बेहतर विकल्प के तौर पर प्लास्टिक कवर के तहत नकदी फसलों और फलों की फसलों का उत्पादन बताया जा रहा है। लेकिन, यह योजना पिछले तीन साल से कागजों पर है।

इस साल किसानों द्वारा फसल कटाई के बाद की फसल भीगने की कई घटनाएं उजागर हुई हैं। इससे बचने के लिए सरकारी स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में गोदाम एवं कोल्ड चेन स्थापित किए जाने चाहिए। किसानों को फलों और सब्जियों सहित नकदी फसलों में भारी निवेश करना पड़ता है। लेकिन, बढ़ते आर्थिक जोखिम के कारण किसान आर्थिक रूप से निवेश करने को तैयार नहीं हैं। कृषि से वैसे भी बहुत लाभ नहीं होता है। इसलिए, ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि करने की कोई आवश्यकता नहीं होने की मानसिकता बढ़ने लगी है। करीब 130 करोड़ की आबादी वाले देश के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।

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