Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

विशेष: हिंदी के कितने ही स्वरूप

हिंदी के तत्समीकरण और ब्राह्मणीकरण के हिमायती इसे छुआछूत के कितने ही नियमों में बांधने की कोशिश करते हैं किंतु यह अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी और कितनी ही लोक भाषाओं से मेल मिलाप कर ही लेती है, उनके रंग में खुद को रंग ही लेती है।
hindi diwas
साभार: द स्टैट्स्मैन

हिंदी साहित्य और आलोचना को समृद्ध करने में लगे मनीषी निरंतर यह प्रयास करते रहते हैं कि देश और दुनिया में जो कुछ भी नया घट रहा है उसकी अभिव्यक्ति हिंदी में हो या  हिंदी को इतना समर्थ बना दिया जाए कि वह जटिलवेगवानविखंडिततकनीक और विज्ञान प्रधान जीवन के स्पंदन को व्यक्त कर सके। शायद यह स्पंदन दिल की धड़कन जैसा जीवंत नहीं हैसंभव है कि यह घड़ी की टिक टिक जैसा एकरसयांत्रिक और नीरस हो। आज का मनुष्य अनेक विषयों में जिस नैतिकता का पालन करता है अधिक समय नहीं हुआ है जब उसे अनैतिकता के रूप में व्याख्यायित किया जाता था।

अब विज्ञान और तकनीकी के असर से जीवन की गति इतनी तीव्र और नियंत्रित है कि मनुष्य किसी एक भाव को आत्मसात नहीं कर पाताजी नहीं पाता और उसे दूसरे भाव की ओर जबरन धकेल दिया जाता है। एक ऐसी पीढ़ी रूपाकार ले रही है जो प्रेम को जिए बिना प्रेम कर लेती है। घृणा को समझे बिना घृणा कर सकती है। हिंसा की आग में झुलस जाती हैझुलसा देती है किंतु उसी तरह अपरिवर्तित रहती है जैसे कोई निर्जीव अस्त्र हो। यह संवेदनहीनता इतनी सहजइतनी सर्वव्यापी है कि इसे नव सामान्य व्यवहार का अंग मानकर स्वयं को इसके साथ अनुकूलित करना पड़ता है।

हम देखते हैं कि हिंदी को इस नए मनुष्य को अभिव्यक्त करने के लिए सक्षम और उससे भी अधिक  इस नए मनुष्य के लिए रुचिकर बनाने की जद्दोजहद में बहुत समर्थ रचनाकार तथा आलोचक कथ्य, शिल्प और भाषा के ऐसे प्रयोगों में उलझ जाते हैं जो दयनीय रूप से असफल सिद्ध होते हैं। हो सकता है कि इस तरह की चुनौतियों से जूझकर विद्वज्जन स्वयं को इस ग्लानि से मुक्त कर लेते हों कि उन्होंने बतौर रचनाकार या आलोचक अपना धर्म निभाया किंतु उनका यह परिश्रम और पुरुषार्थ कितना हिंदी के आम प्रयोक्ता को मोहित और शिक्षित करता है और कितना नए मनुष्य को उस समय की याद दिलाता है जब वह अधिक मानवोचित विशेषताओं से युक्त थाकहना कठिन है। 

विद्वज्जनों का यह बंद समाज कभी कभी आत्ममुग्ध और आत्मरति से ग्रस्त भी लगता है। हम तुकांत रचनाओं कोमहाकाव्यों कोअप्रासंगिक कह खारिज कर सकते हैंहम प्रेमचंद की "उदार और उदात्त नैतिकता" को अव्यावहारिक आदर्शवाद बताकर उसका मखौल बना सकते हैं लेकिन इसी विशाल विश्व में हमारी उत्तर आधुनिक सोच से अछूती भी एक दुनिया है जो हमारे लिए इतिहास बन चुके साहित्यिक रूपों में रस तलाशती है।

जीवन की विराटता में तकनीकी के रथ पर सवार तूफानी गति से भागता नया मनुष्य भी है जो हमारी - "सुनो तो! रुको!! ठहरो!!!" - की पुकार को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी के स्वरूप कोउसकी अभिव्यक्तियों कोउसके शब्द भंडार और प्रकृति को निर्धारित करने वाली शक्तियां हमारी सदिच्छा से कहीं अलग बाजार और तकनीकी के द्वारा निर्धारित हो रही हैं।

हिंदी के कितने ही स्वरूप गढ़े जा रहे हैं- विज्ञापनोंटीवी सीरियलों,फिल्मों और वेब सीरीजों की अंग्रेजीनुमा हिंदीदक्षिण की ब्लॉकबस्टर फिल्मों की डबिंग में प्रयुक्त दृश्यात्मक हिंदीव्हाट्सएप पर स्टेटस सुझाने वाले एप्स के अनगढ़नकलची शायरों और कवियों की कमजोर हिंदीमंचों पर धमाल मचाने वाले और सोशल मीडिया व यू ट्यूब पर लाखों लोगों द्वारा देखे जाने वाले बेतुकी तुकबंदियों वाले कवियों की सजावटी-दिखावटी हिंदीलाखों शिष्यों और श्रद्धालुओं को अपने सम्मोहन में रखने वाले धर्मगुरुओं एवं प्रवचनकर्त्ताओं की वाचाल हिंदी, 280 कैरेक्टर्स में अपनी बात रखने को मजबूर करने वाले ट्विटर की तीखी हिंदीस्वयं को रचनाकार और पत्रकार समझने वाले लाखों युवाओं की फ़ेसबुकिया हिंदीटीवी चैनलों के महान प्रस्तोताओं की लड़खड़ाती-गड़गड़ाती हिंदीहिंदी के तत्समीकरण के घातक प्रयासों को सोशल मीडिया के जरिये नए पंख लगाते घृणा के उपासकों की अन्य भाषाओं के शब्दों के स्पर्श से अपवित्र हो जाने वाली संकीर्ण हिंदी

विश्वविद्यालयों में हिंदी के जरिये अपनी आजीविका चलाते प्राध्यापकों की डराने वाली आडम्बरप्रियउत्सवधर्मी हिंदीअंग्रेजी के बेस्ट सेलर्स को जल्दी से जल्दी पाठकों तक पहुंचाकर रुपया कमाने की हड़बड़ी से ग्रस्त प्रकाशकों के अंग्रेजी दाँ अनुवादकों की सतही हिंदीबेरोजगारी से निजात ढूंढते वेबसाइट्स के कंटेंट राइटर्स की मजबूर हिंदीआम लोगों की समझ में आने वाली हिंदी, लिखने की कॉरपोरेट मालिक की सलाह का दबाव झेलते संपादकों की सतर्क हिंदीछत्तीसगढ़ में दक्षिण भारतीय व्यंजन बेचते अन्ना की व्यवसाय सुलभ हिंदीउड़ीसा और बंगाल से हिंदी पट्टी में काम की तलाश करते मजदूरों की डरी सहमी हिंदीकॉल सेंटर में बैठे युवाओं की यांत्रिक हिंदीबहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रबंधकों को सिखाई गई चालाक हिंदी आदि आदि।

तकनीक ने हिंदी लिखने का हमारा तरीका बदला है। सबसे लोकप्रिय गूगल इंडिक की बोर्ड अंग्रेजी वर्णमाला की सहायता से हिंदी लिखता है। हमारे दिमाग में हिंदी के शब्दों के जो बिम्ब बन रहे हैं उनकी रचना अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षरों द्वारा हो रही है। फॉन्ट उपयोगकर्त्ता की तकनीकी और भाषिक सीमाओं के कारण अनुस्वार और अनुनासिक का खुलकर गलत प्रयोग हो रहा है लेकिन पाठक संदर्भानुसार सही अर्थ समझ भी ले रहा है। आज की आपाधापी में विराम कहाँ इसलिए विराम चिह्न अप्रासंगिक हो गए हैं। गूगल कहता है-बोलने से सब होता है। लोग फोनेटिक टूल्स का जमकर उपयोग कर रहे हैंबिना विराम चिह्नों के सही गलत लिखा जा रहा है और भावार्थ समझा भी जा रहा है। गूगल ट्रांसलेट तत्काल अन्य भाषा से हिंदी में अनुवाद कर रहा हैअनेक बार अर्थ का अनर्थ करने के बावजूद यह लोगों को उपयोगी लगता है और यह बेहतर भी होता जा रहा है।

हो सकता है कि कभी भक्ति और अध्यात्म या कभी स्वातंत्र्य चेतना और स्वाभिमान हिंदी के स्वरूप के निर्धारक रहे हों किंतु आज तो ऐसा लगता है कि हिंदी बाजार और तकनीक के हवाले है। क्या हिंदी के भविष्य के निर्धारण में उन तकनीकी विशेषज्ञों के हिंदी ज्ञान,कौशल और हिंदी प्रेम की अहम भूमिका रहेगी जो डिजिटल हिंदी को सुलभ बनाने के प्रयासों में लगे हैंयह भी विचारणीय है कि हिंदी के लिए जब बाजार द्वारा प्रयास किए जाते हैं तो इनका उद्देश्य हिंदी की बेहतरी से अधिक अपनी बाजारी जरूरतों को पूरा करना होता है। ऐसी दशा में हिंदी का भावी स्वरूप कैसा होगा?

लोकप्रिय बनाम गुणवत्तापूर्ण की बहस जासूसी और रूमानी उपन्यासों के जमाने से चलती रही है। हिंदी में ऐसे समर्थ लेखकों की बड़ी संख्या रही है जिन्होंने लोकप्रिय भी रचा और गुणवत्तापूर्ण भी। ऐसे लेखकों में जो सबसे पहला नाम स्मरण आता है वह है प्रेमचंद का। आज भी हिंदी में ऐसे लेखकों की कमी नहीं है किंतु अब योग्य रचनाकार होने से अधिक महत्वपूर्णअभिव्यक्ति के नए डिजिटल माध्यमों के संचालन में पारंगत होना तथा इनकी तासीर और मिजाज को समझना बन गया है। हमें उस मानसिकता से बाहर निकलना होगा जो लोकप्रिय लेखन को बाजारू समझती और कमतर आंकती है और विश्वास करती है कि गुणवत्तापूर्ण साहित्य को आम नासमझ और घटिया पाठक की स्वीकृति की कोई आवश्यकता नहीं हैजब इन आम पाठकों के दिमागी स्तर और समझ में सुधार आएगा तो उन्हें पता चलेगा कि हिंदी को विद्वानों ने आसमान की किन ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है। "लोकप्रिय" को भी समझना होगा कि यदि उसे कालजयी बनना है तो बिना गुणवत्ता के उसका काम नहीं बनने वाला।

हिंदी के हितैषियों की कोशिशें हिंदी को कितना लाभ पहुंचा रही हैं यह तो पता नहीं किंतु इतना तय है कि हिंदी इन अहंकारी मददगारों और मतलबी बाजारवादियों से बेपरवाह बेधड़क आगे बढ़ती जा रही है। कभी कभी लगता है कि हिंदी एक भाषा नहीं एक संस्कार हैएक जीवन शैली है। यह संकीर्णता की विरोधी है। यह विस्तारवादी सोच को सख्त नापसंद करती है। हिंदी खुद को किसी पर थोपती नहीं। जब जब भाषा को लेकर झगड़े होते हैं हिंदी बड़ी विनम्रता से झुक जाती हैदूसरी भाषाओं को आगे बढ़ने और जीतने देती है। यह शोषकों और साम्राज्यवादियों की भाषा कभी नहीं रही- बन भी नहीं सकती। हिंदी के तत्समीकरण और ब्राह्मणीकरण के हिमायती इसे छुआछूत के कितने ही नियमों में बांधने की कोशिश करते हैं किंतु यह अरबीफ़ारसीउर्दूअंग्रेजी और कितनी ही लोक भाषाओं से मेल मिलाप कर ही लेती हैउनके रंग में खुद को रंग ही लेती है। आशा की जानी चाहिए कि हिंदी आने वाले समय में भी जोड़ने वालीमिलने और मिलाने वाली भाषा बनी रहेगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest