मोदी का अमरीका दौरा और डिजिटल उपनिवेशवाद को न्यौता
मोदी ने अपना साउंड एंड लाइट शो, जो उनकी पहचान ही बन गया है, इस बार लॉस एंजेल्स के एसएपी सेंटर में किया। वह सिलकॉन वैली की यात्रा पर थे, जिसे अमरीका में उच्च-प्रौद्योगिकी आधारित सूचना-प्रौद्योगिकी उद्योग का घर माना जाता है। उन्होंने इसके साथ ही गूगल, माइक्रोसाफ्ट तथा टेस्ला जैसी कंपनियों के सीईओ के साथ एक बैठक भी की और फेसबुक के संस्थापक तथा मुखिया, मार्क जकरबर्ग के साथ एक ‘‘टाउन हॉल’’ का भी आयोजन किया। मोदी के लिए यह जबर्दस्त कामयाबी थी और भारतीय मीडिया ने मोदी को अपनी सुर्खियों में बनाए रखा।
डिजिटल संसाधन भी और जासूसी का हथियार भी
दूसरी ओर, फेसबुक ने एक बॉर फिर अपने बदनाम इंटरनैट डॉट आर्ग मॉडल को आगे बढ़ाया तथा ‘‘डिजिटल इंडिया’’ के समर्थन में एक अभियान शुरू किया। गूगल ने भारत के 500 रेलवे स्टेशनों पर मुफ्त वाई-फाई मुहैया कराने का वादा किया और माइक्रोसॉफ्ट ने भारत को गांवों से जोडऩे के वादे किए। बहरहाल, इस मीडिया तमाशे में यह भुला ही दिया गया कि फेसबुक, गूगल तथा माइक्रोसाफ्ट, सभी की इसमें बहुत भारी दिलचस्पी है कि भारत के डिजिटल बाजार पर कब्जा कर लें और मोदी की इस यात्रा ने सार्वजनिक रूप से इस पर अनुमोदन की मोहर लगा दी है कि आएं और भारत के डिजिटल बाजार पर कब्जा कर लें।
यह नहीं भूलना चाहिए कि जब अंग्रेज पहले-पहल भारत में आए थे, तब के भारतीय राजा और नवाब भी ऐसे ही जोश में नजर आ रहे थे। वास्तव में उन्हें तो नकदी का एक और आसान स्रोत ही खुलता नजर आ रहा था। ब्रिटिश व्यापारी--ईस्ट इंडिया कंपनीवाले--देसी धन्नासेठों से होड़ लगाकर, उन्हें अपने पतनशील तथा विलासितापूर्ण जीवन शैली के लिए पैसा कर्ज पर दे रहे थे। उन्होंने शायद सोचा होगा कि उन्हें इस ब्रिटिश कंपनी का उधार कभी चुकाना ही नहीं पड़ेगा। लेकिन, हुआ यह कि उनमें से अनेक को अपने प्राण देकर यह कर्ज चुकाना पड़ा और भारत, अंगरेजों के हाथों चला गया।
अंगरेजों ने यह साम्राज्य, जिसमें उनका कहना था कि कभी सूरज नहीं डूबता था--समुद्र पर नियंत्रण की अपनी सामर्थ के बल पर खड़ा किया था। और आज की दुनिया में जिसका भी डिजिटल सागरों पर नियंत्रण होगा, उसका ही सारी दुनिया पर नियंत्रण होगा। मोदी साहब यही नियंत्रण गूगल, फेसबुक तथा माइक्रोसॉफ्ट जैसी अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को तश्तरी में रखकर परोस रहे हैं और वह भी भारतीय मीडिया में सिर्फ चंद घंटे के अपने धूम-धड़ाके के लिए।
यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हो जाता है। स्नोडेन के रहस्योद्घाटनों से अब सारी दुनिया यह जान चुकी है कि टेलीकॉम कंपनियों के साथ ही फेसबुक, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि पूरी तरह से अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) के संजाल का और विश्व जासूसी के पंच-चक्षु (अमरीका, यूके, कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलेंड) ताने-बाने का अभिन्न हिस्सा हैं। ये सभी कंपनियां और एटीएंडटी तथा वेरीजॉन जैसी दूरसंचार बहुराष्ट्रीय कंपनियां, सब की सब अमरीकी खुफिया एजेंसियों के एजेंटों की भूमिका अदा कर रही हैं। ये कंपनियां अपना तमाम डाटा छाने-फटके जाने तथा डॉटा बैंकों में जमा कर रखे जाने के लिए, अगले पचास साल के लिए अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) को इजाजत दे रही हैं। याद रहे कि इसी संदेहास्पद गतिविधियों वाली एजेंसी की करतूतों को स्नोडेन ने बेनकाब किया था। इसलिए, अमरीकी बहुराष्ट्रीय निगमों को हमारा डॉटा सोंपा जाना, सिर्फ उनके हाथों में एक बहुत ही महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन पकड़ा दिया जाना ही नहीं है बल्कि अमरीका को इसका मौका देना भी है कि वह बहुत ही घनिष्ठ रूप से हमारे देश के तमाम वर्तमान तथा भावी, निर्णयकर्ताओं की जासूसी कर सके।
इंटरनैट: सार्वजनिक उपयोगिता
विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत अब तक यही रुख अपनाता आया है कि इंटरनैट एक सार्वजनिक उपयोगिता है। हम अपने देश में इंटरनैट रीढ़ विकसित करने के लिए राष्ट्रीय ऑप्टिकल फाइबर ताने-बाने के निर्माण पर पहले ही 70,000 करोड़ रु0 से ज्यादा खर्च कर रहे हैं। यह बीएसएनएल तथा अन्य दूरसंचार कंपनियों द्वारा पहले ही खड़े किए जा चुके बुनियादी ढांचे के ऊपर से है। ऐसा लगता है कि गूगल द्वारा इंडियन रेलवे द्वारा निर्मित फाइबर ऑप्टिक नैटवर्क, रेलटैल का इस्तेमाल रेलवे स्टेशनों पर अपने वाइ-फाई प्रतिष्ठान खड़े करने के लिए किया जाएगा, जिनका वह खुद भी अपने ही लिए उपयोग कर रहा होगा। वास्तव में फेसबुक, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, लॉस्ट माइल कनैक्टिविटी यानी वह सेतु मुहैया कराने जा रहे हैं, जिसके जरिए लोग अपने मोबाइलों, कंप्यूटरों के जरिए, इंटरनैट से जुड़ रहे होंगे। इस तरह, जहां इंटरनैट की रीढ़ मुहैया कराने में ज्यादातर खर्चा भारत में सरकार द्वारा किया जा रहा होगा, गूगल, फेसबुक तथा माइक्रोसॉफ्ट, इंटरनैट के इस सार्वजनिक ताने-बाने पर मुफ्त की पिठू सवारी करेंगे और बदले में सिर्फ यह लास्ट माइल कनैक्टिविटी मुहैया करा रहे होंगे। इस प्रक्रिया में इंटरनैट तक पहुंच तथा उसके उपयोग के मामले में धु्रव की हैसियत हासिल कर लेंगे और अपने हाथों से गुजरने वाला हमारा निजी डॉटा बेचने की स्थिति में होंगे। और यह सब ‘‘मुफ्त’’ इंटरनैट सेवा मुहैया कराने के नाम पर हो रहा होगा।
इसकी तुलना जरूर चीन की स्थिति से करें जिसने गूगल, फेसबुक आदि को अपने डिजिटल बाजार से बाहर रखा है। दुनिया की 10 शीर्ष सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियों में सिर्फ तीन कंपनियां हैं, जो अमरीका से बाहर की हैं। ये कंपनियां हैं, चीनी बाइडू, चीनी सर्च इंजन टेन सेंट्स और चीन की ही अली बाबा। चीन ने ऐसा इसलिए कर पाया है कि उसने अपने विशाल आंतरिक डिजिटल बाजार की हिफाजत की है और ऐसे मोबाइल तथा इंटरनैट-आधारित कारोबार खड़े किए हैं, जो अगर अपने अमरीकी समकक्षों से उन्नत नहीं हैं, तो भी उनकी टक्कर के जरूर हैं। ये चीनी उद्यम अब दुनिया के पैमाने पर और खासतौर पर उन बाजारों में अपने पांव फैला रहे हैं, जो चीन की ही तरह मोबाइल पर आधारित इंटरनैट तक पहुंच पर ही ज्यादा निर्भर हैं।
फेसबुक प्रकरण के निहितार्थ
सिलिकॉन वैली के अपने दौरे के क्रम में मोदी ने फेसबुक के मुख्यालय का भी दौरा किया था, जहां उन्होंने जकरबर्ग के साथ एक इंटरनैट आधारित टाउन हॉल का आयोजन किया था। ऐसा कर के उन्होंने निहितार्थत: फेसबुक के मंसूबे पर अपने अनुमोदन की मोहर लगा दी थी, जिसके जवाब में फेसबुक ने भी उपने उपयोक्ताओं को इसका मौका दिया था कि फेसबुक पर डिजिटल इंडिया का अनुमोदन करें और इस क्रम में अपने फेसबुक पेज का रंग बदल लें। पहली बात तो यह है कि इस अभियान ये हासिल होने वाले कोड का इस्तेमाल फेसबुक द्वारा इंटरनैट डॅाट आर्ग के अपने अभियान के लिए किया जाएगा। इसके अलावा यह सवाल भी अपनी जगह बना रहता है कि प्रधानमंत्री मोदी और जकरबर्ग के बीच इस तरह की सार्वजनिक गलबहियों को क्या तब कोई असर नहीं पड़ेगा जब भारतीय दूरसंचार अधिकारीगण, फेसबुक की निगरानी में कटा-छंटा इंटरनैट मुहैया करने के जकरबर्ग के ही प्रस्तावों पर विचार कर रहे होंगे? क्या भारत के प्रधानमंत्री ने, अपने इस बहुप्रचारित दौरे के जरिए, भारतीय नियमनकारी प्रक्रिया को ही अनुचित रूप से प्रभावित करने का काम नहीं किया है। याद रहे कि दूरसंचार नियमन प्राधिकार (ट्राई), दूरसंचार विभाग तथा भारतीय प्रतिस्पद्र्घा आयोग द्वारा फेसबुक के इंटरनैट डॉट आर्ग की इसके लिए छानबीन की जा रही है कि कहीं यह भारत के दूरसंचार के नियमों का तो उल्लंघन नहीं करता है?
जकरबर्ग का दावा है कि वह गरीबों को इंटरनैट से जोडऩा चाहता है, ताकि उन्हें गरीबी से उबारा जा सके। लेकिन, वास्तव में उनके इंटरनैट डॉट ऑर्ग की पेशकश यह है कि दुनिया में जो करीब एक अरब वैबसाइट चल रही हैं उनमें से गरीबों के लिए मूट्ठीभर देखना ही काफी है और ये वैबसाइटें कौन सी होंगी, यह भी फेसबुक ही तय करेगा। उसने गरीबों के लिए इंटरनैट के गेटकीपर की भूमिका सुरक्षित कर ली है। और ऐसा सेवा मुहैया कराने के लिए उन्हें नैट-तटस्थता का उल्लंघन करने की इजाजत चाहिए! यही है इंटरनैट डॉट ऑर्ग प्लेटफार्म का सच, जिसका नाम बदलकर अब फ्रीसर्विसेज़ डॉट ऑर्ग कर दिया गया।
इससे भी ज्यादा खतरनाक है फेसबुक का यह सुझाव कि उसके इस प्लेटफार्म को, सभी सरकारी सेवाएं मुहैया कराने का माध्यम भी बनाया जाए। दूसरे शब्दों में ई-गवर्नेंस को फेसबुक के माध्यम से ही लागू किया जाए। अगर कोई नागरिक किसी सरकारी सेवा का उपयोग करना चाहता है, तो उसे खुद को फेसबुक पर रजिस्टर कराना होगा, फेसबुक को अपने निजी डॉटा तक पहुंच मुहैया करानी होगी और हमारी इंटरनैट तक पहुंच दिलाने वाली मशीनों में वह अपना जासूसी का खास साफ्टवेयर चढ़ा देगा। इस तरह भारत, रिपब्लिक ऑफ फेसबुक का एक प्रांत बन जाएगा!
उपयोक्ताओं का डॉटा बना माल
फेसबुक का बिजनस मॉडल उपयोक्ताओं का निजी डॉटा विज्ञापनदाताओं को बेचने पर टिका हुआ है। इसलिए, ऐसा जितना ज्यादा डॉटा अपने उपयोक्ताओं के रूप में उसके हाथ में होगा, उतनी ही ज्यादा उसकी कमाई होगी। इस समय फेसबुक का सालाना राजस्व 12.76 डालर प्रति उपयोक्ता है, जिसके 2017 तक बढक़र 17.50 डालर हो जाने की उम्मीद की जा रही है। चूंकि पश्चिमी दुनिया में वह जितने उपयोक्ता जुटा सकता था, उसने पहले ही जुटा लिए हैं, अब उसने विकासशील दुनिया की ओर रुख किया है, जहां से इंटरनैट उपयोक्ताओं की नयी फसल आने वाली है।
इसलिए, फेसबुक की इसमें बहुत दिलचस्पी है कि हमारे सारे डॉटा तक उसकी पहुंच हो क्योंकि यही उसके कारोबार का असली आधार है। फेसबुक के प्लेटफार्म को आधार बनाने वाली हरेक वैबसाइट या सेवा को अपने उपयोक्ताओं का डॉटा फेसबुक के साथ साझा करना होगा ताकि फेसबुक उसे अपने विज्ञापनदाताओं को बेच सके। इस तरह के प्लेटफार्मों पर आने वाले विज्ञापनों पर फेसबुक ही पूरी तरह से हावी रहेगा क्योंकि उसके पास ही ऐसे किसी भी प्लेटफार्म के उपयोक्ताओं का पूरा डॉटा होगा और उपयोक्ताओं तक कहीं व्यापक पहुंच हासिल होगी। स्वाभाविक रूप से फेसबुक के ऐसे प्लेटफार्म का सहारा लेने वाली दूसरी कंपनियां तो विज्ञापन के राजस्व के बचे-खुचे टुकड़े पाने की ही उम्मीद कर सकती हैं।
तमाम इंटरनैट संचार के लिए फेसबुक के सर्विस मॉडल का अर्थ यह भी है कि इसके उपयोक्ताओं को शायद ही कोई सुरक्षा हासिल होगी। हमारे डॉटा का उपयोग करने के लिए फेसबुक को यह जानने की जरूरत होती है कि हम क्या कर रहे हैं। इसलिए, वह हमारे बैंक खातों को पासवर्ड की एन्क्रिटिंग जैसे सभी सुरक्षा उपायों का अंधाधुंध अतिक्रमण करता है। इंटरनैट पर बढ़ते पैमाने पर किए जाते व्यापारिक लेन-देन के लिए डॉटा का सुरक्षित संचरण एक जरूरी शर्त है। लेकिन, फेसबुक का प्लेटफार्म सीधे बैकों के साथ तथा अन्य भुगतान द्वारों के साथ इस तरह के सुरक्षित लेन-देन नहीं होने देगा। इसके बजाय वह तो ऐसे मंच की तरह काम करेगा जिसके जरिए ये लेन-देन होने चाहिए और इसलिए उसे ऐसे हर लेन-देन में मध्यस्थ बनाना होगा। इससे बीच में से गड़बड़ की संभावना बनती है और यह ऐसा चोर दरवाजा है जिसका अपराधी इस्तेमाल कर सकते हैं और एक ही बिंदु से पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था के ही मर्म पर प्रहार कर सकते हैं।
इन भीमकाय कंपनियों के सीईओ से सार्वजनिक रूप से गलबहियां करने के लिए गूगल को भारत के रेलवे स्टेशन, माइक्रोसाफ्ट को भारतीय गांव और फेसबुक को भारतीय गरीब भेंट करने के जरिए प्रधानमंत्री मोदी, उपयोक्ताओं के डॉटा को माल में बदलने के उनके कारोबार में ही मदद कर रहे हैं। इस तरह के अमरीकी बहुराष्ट्रीय निगमों को हमारे निजी डॉटा तक इस प्रकार की विशेषाधिकारपूर्ण पहुंच मुहैया कराने का अर्थ यह भी है कि अमरीका खुफिया एजेंसियों को इस डॉटा तक बेरोक-टोक पहुंच दी जा रही तथा उसका इस्तेमाल करने का मौका दिया जा रहा है। और यह सब एक ऐसे प्रधानमंत्री के झूठे गौरव के लिए हो रहा है, जिसकी दिलचस्पी देश चलाने में उतनी नहीं है, जितनी की मीडिया कैमरों की रौशनी में रहने में है। चूंकि डिजिटल अर्थव्यवस्था निजी डॉटा को माल में तब्दील करने से ही संचालित है, यह डिजिटल उपनिवेशवाद खड़ा करने का ही शर्तिया नुस्खा है।
डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।
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