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नए भारत का जटिल जनादेश

हम सब यह जानते हैं कि अच्छाई के लिए उन्माद पैदा करना असंभव है, इसलिए एक लंबा संघर्ष हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।
मोदी सरकार पार्ट 2
मोदी सरकार पार्ट 2. फोटो : साभार

नए भारत के नए मतदाता ने जो जनादेश दिया है वह हममें से बहुत से लोगों के लिए इस कदर चौंकाने वाला है कि इसकी विवेचना करते करते हम भारतीय जनता के विवेक पर संदेह करने लगते हैं, हम यह भी कहने लगते हैं कि लोकतंत्र भीड़ तंत्र है और अपने वर्तमान स्वरूप में यह सही दिशा से इतना भटक गया है कि इसमें बुनियादी जन सरोकारों तथा सच्चे और योग्य व्यक्तियों के लिए कोई स्थान नहीं है। इस तरह हम अलोकतांत्रिक होने के बहुत निकट पहुंच जाते हैं और हमारी स्थिति उस कट्टरपंथी से जरा भी भिन्न नहीं होती जो अपने पुरातन और अप्रासंगिक सिद्धांतों के प्रति इतना समर्पित और आसक्त होता है कि नए विचारों एवं परिवर्तनों के लिए अपने द्वार बंद कर देता है। जब हम अपने सिद्धांतों पर संदेह और सवाल करना बंद कर देते हैं तब हम किसी वैज्ञानिक से वैज्ञानिक विचार को अंधविश्वास में बदल कर उसकी हत्या कर देते हैं।

नए भारत का नया मतदाता तकनीकी क्रांति से बहुत प्रभावित है -यह कहना मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के प्रभाव को समुचित रूप से व्यक्त नहीं कर पाता। दरअसल इस मोबाइल जनरेशन के डीएनए में ही संचार क्रांति की आधारभूत विशेषताएं समाई हुई हैं। एक नन्हे से मोबाइल के जरिए पूरी दुनिया को अपने कदमों में ला पटकने का गुरुर, बिना अपने प्रतिद्वंद्वी का सीधे सामना किए उस पर आक्रमण करने की सुविधा, किसी के द्वारा चुप कराए जाने के भय से मुक्त होकर अपने विचारों की अपरिमार्जित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, खरीदने- बेचने और पुरस्कृत होने की अनंत संभावनाएं, बहुत सारे अवसर - पाने के भी और गंवाने के भी, गलतियां करने के भी और तत्काल ही इन गलतियों को सुधार लेने के भी। कल्पना और यथार्थ का फासला इस नए जमाने में घटता जा रहा है। जिस मोबाइल का उपयोग सामाजिक संपर्क के लिए किया जाता था वह अब आर्थिक जीवन और दैनंदिन जीवन से जुड़ी गतिविधियों को सहज सुगम बना रहा है। सरकारी योजनाओं के लाभ सीधे आपके खाते में आ रहे हैं, लंबी कतारों और इन कतारों को और लंबा बनाने वाले भ्रष्टाचार से मुक्ति देने वाली व्यवस्था रूपाकार ले रही है। मोबाइल का उपयोग कर यात्रा की टिकटें बुक हो रही हैं, रसोई गैस मंगाई जा रही है, बिलों का भुगतान किया जा रहा है, गंदगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतें दर्ज की जा रही हैं। ब्रांड मोदी को गढ़ने वाले विशेषज्ञ मोदी को इन परिवर्तनों के सूत्रधार और नए भारत के निर्माता के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे राजीव गांधी को एक समय कंप्यूटरीकरण तथा सूचना और संचार क्रांति का पर्याय माना जाता था। मोदी की भ्रष्टाचार से लड़ाई और तकनीकी पर सम्पूर्ण निर्भरता का उनका आग्रह कोई मौलिक सोच नहीं है, यह पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने वाली कॉरपोरेट ताकतों की बुनियादी आवश्यकता है। नोटबन्दी के माध्यम से कैशलेस फॉर्मल इकॉनॉमी के निर्माण की कोशिश या जीएसटी के माध्यम से एक केंद्रीकृत नियंत्रण वाला कर ढांचा निश्चित ही वर्तमान सिस्टम में व्याप्त विसंगतियों, भ्रष्टाचार और अराजकता का समाधान कर सकता है किंतु यह सुव्यवस्था लोगों के आर्थिक जीवन पर मुट्ठी भर लोगों का आधिपत्य और नियंत्रण स्थापित करने का माध्यम भी बन सकती है। जब झुग्गी झोपड़ियों को उजाड़कर उनके स्थान पर कोई सुव्यवस्थित पॉश कॉलोनी बनाई जाती है तो गंदगी और बदसूरती तो समाप्त हो जाती है किंतु जो सुव्यवस्था उत्पन्न होती है उसका लाभ विस्थापित लोगों को पूरी तरह नहीं मिलता, उसका आनंद संपन्न वर्ग लेता है। इन निर्धन लोगों के जीवन में अंतहीन उथल पुथल बनी रहती है, इन्हें दूर दराज के इलाकों में अर्द्धविकसित क्षेत्रों में भेज दिया जाता है। ऐसा ही कुछ अर्थव्यवस्था में भी हो रहा है। लेकिन इसके बाद भी जन असंतोष कभी गहरा नहीं पाता क्योंकि आम जनता को अनेक लाभ, सौगातें और पुरस्कार बड़ी निरन्तरता के साथ दिए जाते हैं। यह उदारीकरण के बाद के दौर में हर सरकार करती रही है।

मोदी की विशेषता यह रही है उन्होंने इस जन असंतोष को नियंत्रित करने की नई और अनूठी युक्तियों का सृजन किया है। यह नैतिकता के पैमानों पर कितनी खरी हैं यदि इस सवाल को अनदेखा कर दिया जाए तो इनकी केवल प्रशंसा ही की जा सकती है। भारत के 43 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं को औसतन 18.5 रुपये प्रति जीबी की दर से डेटा उपलब्ध कराना (जबकि वैश्विक औसत 600 रुपये प्रति जीबी का है) मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को दर्शाता है। ब्रांड मोदी भारतीय जनता की नायक पूजा की प्रवृत्ति की बारीक समझ पर आधारित है। मोदी युग भारतीय सिनेमा से तब सादृश्य रखता दिखता है जब हताश, निराश और कुंठित जनता फार्मूला फिल्मों के लार्जर दैन लाइफ महानायकों के सस्ते संवादों और उनके अविश्वसनीय प्रतिशोध की दीवानी बन जाती थी और वर्ग चेतना की तार्किक बात करने वाली समानांतर सिनेमा की फिल्में दर्शकों के अभाव में दम तोड़ देती थीं। मोदी विरोधियों को समझना होगा कि उन्हें भारतीय जनता से संवाद स्थापित करने का अपना तरीका बदलना होगा।

ब्रांड मोदी का जोर समग्र विकास से अधिक उन प्रतीकों पर रहा है जो जनता के मन को स्पर्श करते हैं। भव्य अम्बेडकर स्मारक बनाते मोदी जी, कुंभ में दलितों के चरण पखारते मोदी जी, सरदार पटेल के सम्मान में विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा गढ़ते मोदी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की स्मृति में द्वीपों का नामकरण करते मोदी जी -ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनके माध्यम से मोदी ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने पैतृक संगठन की भागीदारी न होने की कमी को बड़ी चतुराई से न केवल दूर किया बल्कि जनता में यह भाव पैदा करने में सफल रहे कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास गलत ढंग से लिखा गया है और इसमें एक परिवार विशेष के सदस्यों को महिमामण्डित करने के लिए देश के स्वतंत्रता आंदोलन में वास्तविक योगदान देने वाली विभूतियों को जानबूझकर उपेक्षित किया गया है। मोदी जी जिस वैचारिक पृष्ठभूमि से निकल कर आए हैं उसमें गांधी जी की विचारधारा से गहन असहमति छिपी हुई है। किंतु वे यह जानते थे कि गांधी को नकार कर वे भारतीय जनता का विश्वास नहीं जीत सकते। इसलिए उन्होंने गांधी दर्शन से स्वच्छता का बिंदु ढूंढ़ निकाला और अपने स्वच्छता अभियान को इस पर आधारित कर दिया। भारतीय राजनीति में जाति और धर्म हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। कन्हैया कुमार का जय भीम- लाल सलाम का नारा सामाजिक दमन और आर्थिक शोषण को संयुक्त करता था और वंचितों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों तथा भीषण बेरोजगारी व किसान असंतोष के इस दौर में यह सार्थक भी लगता था। किंतु मोदी ने आयु समूह और लिंग के आधार पर अपने प्रचार अभियान की रचना की। युवाओं और महिलाओं में वे यह बोध उत्पन्न करने में सफल रहे कि बतौर मतदाता वे निर्णायक और महत्वपूर्ण हैं तथा उनका मौलिक चयन देश और समाज को नई दिशा दे सकता है। इस मौलिकता को मोदी और उनके प्रचार तंत्र ने बड़ी कुशलता से दिशा दी। प्रत्येक युवा में राष्ट्र के लिए कुछ न कुछ करने की इच्छा होती है। युवा स्वभाव से ही आक्रामक और ऊर्जावान होते हैं। उनके निर्णयों में प्रायः तार्किकता का अभाव होता है और वे भावना से संचालित होते हैं। मोदी जी के राष्ट्रवाद का नैरेटिव हिंसा को स्पर्श करती  अतार्किक आक्रामकता और युवकोचित उत्साह को न केवल स्थान देता है बल्कि इन्हें महिमामण्डित भी करता है। युवाओं में यह वृत्ति होती है कि वे पुरानी स्थापनाओं को नकारें और ऐसा कुछ नया गढ़ें जो उन्हें अलग पहचान दे। युवाओं में परिवर्तन करने की इस लालसा को मोदी जी ने जो भोजन दिया  उसमें क्रांतिकारी लगने वाले सनसनीखेज तत्व भरपूर थे। अब युवा पंडित नेहरू और महात्मा गांधी जैसे निर्विवाद राष्ट्र पुरुषों पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर सकते थे। उन्हें खारिज कर सकते थे। अब उन्हें पता चल रहा था कि जिन सड़कों पर वे चल रहे हैं या जिन शहरों में वे रहते हैं उनके नाम किस प्रकार आक्रांताओं के नाम पर रखे गए हैं। अब वे इन कथित आक्रांताओं के कथित वंशजों की पहचान कर रहे थे और उन्हें अनुशासित कर रहे थे। वे नए राष्ट्रनायकों से परिचित हो रहे थे। परिवर्तनकामी युवाओं को जो मानसिक भोजन सोशल मीडिया द्वारा दिया गया वह उन्हें तार्किकता और वैज्ञानिकता से दूर एक ऐसे लोक में ले गया जहां यथार्थ और कल्पना तथा मिथकीय इतिहास एक ऐसा सम्मिश्रण था जो मानव के अवचेतन मन से संगति रखता था। मोबाइल जनता के आर्थिक जीवन में अपना सकारात्मक योगदान देकर अपनी विश्वसनीयता बना ही चुका था। जब इस मोबाइल का उपयोग सत्ताधारी दल को मदद पहुंचाने वाले सोशल मीडिया समूहों द्वारा जनता तक अपने इतिहास बोध को पहुंचाने के लिए किया गया तो अल्पशिक्षित वर्ग ने इसे हाथों हाथ लिया। मोदी जी के आक्रामक भाषण और जोशीले संवाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति के यथार्थ से कोसों दूर एवं स्वयं उनकी विदेश नीति से संगत न होते हुए भी युवा मतदाताओं को आकर्षित करने में सफल रहे। अपने साक्षात्कारों में बालाकोट एयर स्ट्राइक से जुड़े अनछुए पहलुओं को साझा करते प्रधानमंत्री यह जताने में सफल रहे कि वे किसी सेनानायक से कम नहीं हैं।  पुलवामा हमले के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक का कुशल राजनीतिक उपयोग कर मोदी जी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर चुनाव को केंद्रित कर दिया किंतु उनकी चुनावी सफलता का यह एकमात्र कारण न था। ब्रांड मोदी की अनेक विशेषताओं में राष्ट्र रक्षक मोदी की छवि भी समाहित थी। किंतु हिंदू हृदय सम्राट मोदी, भ्रष्टाचार के उन्मूलन को कटिबद्ध मोदी जैसी अन्य कितनी ही छवियां भी ब्रांड मोदी का भाग थीं जिनका उपयोग चुनाव अभियान के अलग अलग चरणों के अनेक संभावित क्लाइमेक्स के लिए किए जाने की तैयारी थी।

मोदी जी के हिन्दू राष्ट्रवाद का मुकाबला विपक्ष ने जातिवाद के माध्यम से करने की कोशिश की जो स्वयं एक संकीर्ण अवधारणा है। जातिवादी राजनीति का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि जातियों के बंधन तोड़ने के स्थान पर जातिगत वैमनस्य को अनंत काल तक बनाए रखना अपनी अस्तित्व रक्षा हेतु इसकी मजबूरी है। हिन्दू राष्ट्रवाद अल्पसंख्यक खतरे के विरुद्ध संघर्ष के लिए जातियों को आपसी संघर्ष छोड़ एक हो जाने का आह्वान करता है। वैश्विक स्तर पर अमेरिका और यूरोपीय देशों में जहां लोकतंत्र के उच्चतम आदर्शों के अनुकूल मुक्त समाज रूपाकार ले रहा था, आईएसआईएस और अल कायदा जैसे आतंकी संगठनों ने हिंसक आक्रमण किया और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप इनमें से अनेक देशों में संकीर्ण राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करने वाले कट्टर नेतृत्व का उदय हुआ। सिद्धांततः यह बात सही हो सकती है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं हो सकता किंतु विश्व जनमत को इस पर यकीन दिलाना कठिन है। धर्मनिरपेक्ष शक्तियां यदि सच्चे अर्थ में धर्मनिरपेक्ष होतीं तो शायद कट्टरता के उभार को रोका जा सकता था किंतु वे कट्टरता के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में सेलेक्टिव होने के आरोपों से मुक्त न हो पाईं और इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। मोदी जी को सऊदी अरब, अफगानिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, फिलिस्तीन और रूस से मिले सर्वोच्च सम्मान, चाहे जिस भी कारण से मसूद अजहर का अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया जाना, डोकलाम विवाद का सम्मानजनक पटाक्षेप यह सभी ऐसी उपलब्धियां रहीं जिनसे जनता में यह विश्वास दृढ़ हुआ कि मोदी जो कर रहे हैं वह दुनिया की वर्तमान रीति नीति से संगति रखता है।

बेरोजगारी और मंदी का आर्थिक समाधान प्रस्तुत करने के स्थान पर सत्ताधारी दल के प्रचार तंत्र ने घुसपैठियों द्वारा देश के संसाधनों का उपभोग करने और जनसंख्या वृद्धि को धर्म से जोड़ने जैसे मुद्दे चर्चा में डाले और युवाओं में यह बोध उत्पन्न किया कि उनकी बदहाली के जिम्मेदार उनके इर्दगिर्द ही छिपे हुए हैं और इन पर प्रहार कर न केवल देश की सुरक्षा में योगदान दिया जा सकता है बल्कि अपनी बदहाली भी दूर की जा सकती है। सवर्ण आरक्षण भी प्रतीकों की राजनीति का एक भाग था जिससे यह संदेश दिया गया कि सरकार सवर्णों के उस परसेप्शन के साथ खड़ी है जिसके अनुसार जातीय आरक्षण उनके योग्यता की अनदेखी करता है और इसके माध्यम से उनका हक छीन कर अयोग्य लोगों को दे दिया जाता है। इधर तकनीकी क्रांति ने रोजगार के स्वरूप को बदल दिया है। आधुनिक युवा तदर्थवाद और बदलती नौकरियों का अभ्यस्त है, यह अनिश्चितता उसकी यायावरी वृत्ति और जोखिम उठाने तथा खतरों से खेलने की दुस्साहसी प्रवृत्ति को संतुष्ट भी करती है। वह अवसरवादी है, जरा से पैसों के लिए बरसों पुराने ठिकाने को छोड़ सकता है। यह आधुनिक व्यवस्था की नृशंसता के प्रति उसकी सहज प्रतिक्रिया है। फिर निर्धनों के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही ढेर सारी डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम्स बिना कुछ किए बहुत कुछ पाने का आनंद उन्हें प्रदान करती ही हैं। मोदी जी के मुफ्त इलाज और सबको आवास जैसे कार्यक्रम जनता में अपनी पैठ बना गए।

महिलाओं को भी एक मतदाता समूह के रूप में चिह्नित कर मोदी जी ने उन मुद्दों की बखूबी पहचान की जो महिलाओं में यह बोध उत्पन्न करते थे कि सरकार उन्हें विशिष्ट दर्जा देती है और इनसे संबंधित योजनाएं बनाईं- खुले में शौच से मुक्ति दिलाने हेतु शौचालयों का निर्माण, उज्ज्वला योजना द्वारा धुएं से निजात, सुकन्या समृद्धि योजना द्वारा महिलाओं को लक्ष्य कर बचत योजना की शुरुआत, तीन तलाक बिल तथा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा महिलाओं को प्रभावित करने में सफल रहे। विपक्ष इन योजनाओं को कागजी बताता रह गया। सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के कारण भले ही इन योजनाओं का अपेक्षित प्रभाव महिलाओं के जीवन पर न पड़ा हो किन्तु महिलाओं में यह संदेश तो चला ही गया कि मोदी तो हमारे लिए बहुत कुछ करना चाहता है किंतु व्यवस्था उसे करने नहीं दे रही। मोदी जी यही चाहते थे। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि चुनावी सफलता के लिए करने से अधिक महत्वपूर्ण करते दिखना है।

मोदी जनता में यह बोध उत्पन्न करने में भी सफल रहे कि वह निर्णय लेने की प्रक्रिया का एक भाग है। हाशिए पर फेंक दिए गए निर्धन लोग, भीड़ में अपनी पहचान तलाशते मध्यम वर्गीय व्यक्ति सब के सब चकित रह गए कि इतने बड़े देश का इतना ताकतवर प्रधानमंत्री उनसे कुछ मांग रहा है। कभी वह स्वच्छता अभियान में उनका सहयोग मांगता है, कभी गैस सब्सिडी छोड़ने का आग्रह करता है, कभी सीनियर सिटीजन कन्सेशन छोड़ने का अनुरोध करता है, कभी कालेधन और आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उनका सहयोग मांगता है। आम जनता में दान दाता का भाव उत्पन्न कर मोदी जी ने नोटबन्दी जैसे जनविरोधी और असफल निर्णय के बावजूद जन आक्रोश को पनपने नहीं दिया। जैसा राहुल गांधी ने कहा कि मोदी बेहतरीन कम्युनिकेटर हैं और सचमुच उन्होंने यह सिद्ध किया है। एक पुराने पड़ चुके रेडियो जैसे माध्यम के जरिए महत्वहीन लगने वाले विषयों पर चर्चा करते करते उन्होंने जाने कैसे अपने मन की न केवल कह डाली बल्कि अपने मन की कर भी ली और जनता समझती रही कि यह सब उससे पूछ कर उसके लिए किया गया है।

उदारता, क्षमा, सहिष्णुता आदि मानव मूल्य आदिम मूल प्रवृत्तियों से संघर्ष के बाद मनुष्य ने अर्जित किए हैं किन्तु उसका अवचेतन उसे निरन्तर इन मूल प्रवृत्तियों की ओर खींचता रहता है। अगर हम बहुसंख्यक की तानाशाही का परपीड़क आनंद ले रहे हैं तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। लोकतंत्र केवल बहुमत का शासन नहीं है, यह बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही तो बिल्कुल नहीं है। यूरोप और अमेरिका ने जिन उच्चतम लोकतांत्रिक मूल्यों को साकार करने की कोशिश की है वे लोकतंत्र को आधुनिक युग का मानव धर्म बना देते हैं। मोदी जी ने अपनी विजय के बाद एनडीए के नव निर्वाचित सांसदों और भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जो अद्भुत भाषण दिए वे यह दर्शाते हैं कि मोदी जी लोकतंत्र की उस शक्ति से परिचित हैं जिसके द्वारा यह पारंपरिक धार्मिक नैतिकता का स्थान ले सकता है। किंतु चंद घंटों के बाद जब उनके मंत्रिमंडल ने रूपाकार लिया तो गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति, संजीव कुमार बालियान, अमित शाह और प्रताप सारंगी जैसे आक्रामक हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले चेहरों को स्थान दिया गया। 23 मई से अब तक अल्प संख्यकों और दलितों पर हिंसा की अनेक घटनाएं भी हुई हैं। मोदी जी से क्षमादान न पाने वाली साध्वी प्रज्ञा पर पार्टी ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है। यह परिदृश्य मोदी जी की प्राथमिकताओं पर प्रश्नचिह्न तो लगाता ही है उनके अंतर्विरोधों से भरे पिछले कार्यकाल की निरंतरता का उद्घोष भी करता है। मोदी इतने कुशल रणनीतिकार हैं कि इन अंतर्विरोधों के बावजूद जनता में न केवल अपनी विश्वसनीयता बनाए हुए हैं बल्कि यह अंतर्विरोध उन्हें उदार और कट्टर दोनों वर्गों का प्रिय पात्र बना रहे हैं। इन नतीजों ने अगर यह पूर्णतः सिद्ध नहीं किया है कि रिलीजियस सेंटीमेंट और नैशनल सेंटिमेंट व्यक्ति के आर्थिक-राजनीतिक- सामाजिक जीवन की बदहाली पर भारी पड़ते हैं तब भी यह तो बता ही दिया है कि  इनकी अनदेखी से काम नहीं चलेगा। यदि इस चुनाव के नतीजे देश को पीछे ले जाने वाले हैं और इनसे सामुदायिक तथा जातीय वैमनस्य को बढ़ावा मिलेगा तो इस नकारात्मक परिवर्तन की जिम्मेदारी प्रगतिशील शक्तियों को भी लेनी होगी क्योंकि उनका प्रतिरोध प्रतीकात्मक कहलाने की सीमा तक क्षीण था। हम सब यह जानते हैं कि अच्छाई के लिए उन्माद पैदा करना असंभव है, इसलिए एक लंबा संघर्ष हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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