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भगत सिंह पर लिखी नई पुस्तक औपनिवेशिक भारत में बर्तानवी कानून के शासन को झूठा करार देती है 

द एग्ज़िक्युशन ऑफ़ भगत सिंह: लीगल हेरेसीज़ ऑफ़ द राज में महान स्वतंत्रता सेनानी के झूठे मुकदमे का पर्दाफ़ाश किया गया है। 
bhagat singh

21वीं सदी की शुरुआत से ही, ब्रिटिश, अमेरिकी सहित कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में विदेशी विद्वानों के बीच में भगत सिंह और उनके साथियों के बारे में शोध करने को लेकर महत्वपूर्ण रूचि रही है। 

कामा मैक्लीन और क्रिस मोफ़ात की शोध पर आधारित पुस्तकों ने पहले से ही सिंह पर साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।  योगदानकर्ताओं की सूची में डेनियल एलम और क्रिस्टोफर पिन्नी जैसे दो अन्य महत्वपूर्ण नाम हैं। विदेशों में भारतीय शोधकर्ताओं में नीति नायर और मैया रामनाथ निरंतर भारतीय क्रांतिकारी आंदोलनों पर अपने शोध को जारी रखे हुए हैं। 

अब, सतविंदर सिंह जस जो कि पंजाबी पृष्ठभूमि से हैं और लंदन में कानून के प्रोफेसर होने के साथ-साथ बैरिस्टर हैं, भी इस सूची में शामिल हो गए हैं।  उनकी पुस्तक द एक्ज़ीक्यूशन ऑफ़ भगत सिंह: लीगल हेरिसीज़ ऑफ़ द राज, इससे पूर्व एजी नूरानी की मशहूर किताब द ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह: पॉलिटिक्स ऑफ़ जस्टिस, जो 1996 में प्रकाशित हुई थी, भगत सिंह पर चलाए गये झूठे मुकदमे के बारे में एक और अध्ययन हमारे सामने पेश करती है। 

जस की किताब के निचले हिस्से में, किम ए. वैगनर जिन्हें जलियांवाला बाग़ पर लिखी गयी उनकी पुस्तक के लिए जाना जाता है, ने अपनी सक्षिप्त टिप्पणी से इस पर कील ठोंक दी है: “यह पुस्तक उस उबाऊ ठप्पे का शक्तिशाली खंडन प्रस्तुत करती है जिसे अंग्रेजों ने औपनिवेशिक भारत में कानून के राज के तौर पर प्रस्तुत किया था। “

जॉन न्यूसिंगर के द्वारा 2006 में लिखी गई, द ब्लड नेवर ड्राइड: ए पीपुल्स हिस्ट्री ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर  नामक किताब में एशियाई और अफ्रीकी मुल्कों में बर्तानवी औपनिवेशिक शासन की तथाकथित न्यायिक प्रणाली का उल्लेख किया गया है, जहाँ पर शाही शासन को जारी रखने के लिए इतना अधिक मानव रक्त  बिखरा हुआ था कि यह कभी सूखता नहीं था, जैसा कि अंग्रेज कवि अर्नेस्ट जोंस द्वारा अपनी विख्यात कविता द रिवोल्ट ऑफ़ हिन्दोस्तान, जो कि 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित थी,  में उद्धृत किया गया है। 

जस की पुस्तक को पहली बार 2020 में इंग्लैंड में एम्बरले पब्लिशिंग द्वारा प्रकाशित किया गया था और इसका भारतीय संस्करण हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया के द्वारा 2021 में छापा गया था। भारतीय संस्करण वाले पुस्तक की प्रस्तावना का शीर्षक ‘व्हाई भगत सिंह मैटर्स’ है और इसकी शुरुआत 1,25,000 किसानों के ऐतिहासिक और सबसे बड़े श्रमिक विरोध प्रदर्शनों से होती है। इसके उपरांत, जस भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह को संदर्भित करते हैं, जिन्होंने 1907 में इसी प्रकार के किसान-विरोधी कानूनों के खिलाफ किसानों के विरोध का नेतृत्व किया था।  

लेखक ने अपनी प्रस्तावना में 8 अप्रैल, 1929 का जिक्र किया है, जिसमें सिंह (और बटुकेश्वर दत्त) की गिरफ्तारी का उल्लेख किया है, जब उन्होंने दिल्ली की केंद्रीय विधान सभा में बम फेंका था, को उनके जीवन के एक निर्णायक क्षण के रूप में निरुपित किया है। उन्होंने भगत सिंह की जेल नोटबुक और अन्य लेखों और व्लादिमीर लेनिन पर लिखी गई किताब का हवाला दिया है, जिसे उन्होंने फांसी पर चढ़ने से कुछ घंटे पहले ही पढ़ा था।  

पुस्तक की विषयवस्तु में परिशिष्ट, नोट्स और एक ग्रंथ सूची के अलावा एक प्रस्तावना और 11 अध्याय शामिल हैं। परिशिष्टों में पंजाब अभिलेखागार सहित लाहौर में भगत सिंह की केस फाइलों के विवरणों के आठ पृष्ठ शामिल हैं, जो अभी तक ज्ञात नहीं थे और कई पत्रों और अन्य दस्तावेजों को स्कैन की शक्ल में पुनः प्रस्तुत किया गया है, जो पुस्तक का एक मूल्यवान हिस्सा है। 

प्रस्तावना में, लेखक ने पंजाब के अभिलेखागार के भीतर अनारकली के मकबरे की कहानी का उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने गलती से ‘द भगत सिंह अभिलेखागार’ के तौर पर वर्णित कर दिया है।  हाँ, लाहौर षड्यंत्र केस की 134 केस फाइलें निश्चित रूप से पंजाब अभिलेखागार का हिस्सा हैं, जिसका संक्षिप्त विवरण पहली बार इस पुस्तक के परिशिस्ट में साझा किया गया है। 

क्रांतिकारियों के कई ज्खुले पते के साथ-साथ गुप्त ठिकानों को भी इसमें संदर्भित किया गया है - जैसे रावी रोड पर एक कारखाने, ग्वाल मंडी में एक किराए के मकान, मोज़ंग में एक और घर और मैक लेओड रोड पर कश्मीर भवन में एक स्थान का जिक्र किया गया है। किसी समय एक पत्रकार अमारा अहमद लाहोर में सिंह के नक्शेकदम पर शोध करने की योजना बना रही थीं, हालाँकि उनके शोध की वर्तमान स्थिति के बारे में जानकारी नहीं है।  विडंबना यह है कि जस को पंजाब अभिलेखागार तक पूर्ण पहुँच मिली हुई थी, अन्यथा यह बाकियों के लिए पहुँच से बाहर है, लेकिन उनकी अनिवासी भारतीय होने की वजह से उन्हें भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार तक समान पहुँच से वंचित कर दिया गया था, जैसा कि उन्होंने अपनी प्रस्तावना में इस बारे में वर्णित किया है।  

पुस्तक का प्रत्येक अध्याय उर्दू के एक शेर के साथ शुरू होता है और साथ में अंग्रेजी अनुवाद है - जैसे हबीब जालिब, अकबर इलाहाबादी, फैज़, साहिर लुधियानवी अदि।  पहला अध्याय, ‘बलात औपनिवेशिक कानूनवाद”, औपनिवेशिक शासनकाल की तथाकथित न्याय व्यवस्था को सामने लाता है, जो खुद में भारतीय या किसी भी उपनिवेशवाद के शिकार लोगों के साथ जोर-जबरदस्ती के सिद्धांत पर आधारित था, जिसकी विशेषताओं का विवरण इस अध्याय में दिया गया है। 

एक अन्य अध्याय, ‘द स्लिपर एंड द मजिस्ट्रेट’ व्याख्यायित करता है कि कैसे लाहौर षड्यंत्र केस में सबसे कम उम्र के सह-अभियुक्त प्रेम वर्मा ने सरकारी गवाह जय गोपाल की उकसावे वाली भाव-भंगिमा से चिढ़कर उस पर चप्पल फेंककर मारी थी।  बाद में, क्रांतिकारियों पर मजिस्ट्रेट पंडित श्री किशन के सामने ही बर्बरतापूर्ण तरीके से हमला किया गया, जो न्यायिक मजिस्ट्रेट से कहीं अधिक कार्यकारी मजिस्ट्रेट के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। 

एक पूरा अध्याय क्रांतिकारियों के द्वारा शानदार भूख हड़ताल को लेकर समर्पित है, जिसके दौरान 13 सितंबर, 1929 को जतिन दास की मृत्यु हो गई थी।  12 सितंबर को केंद्रीय विधानसभा में मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने भाषण की शुरुआत दास के उल्लेख के साथ की थी। 

पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि कैसे अंग्रेजों द्वारा मनमानेपूर्ण ढंग से अध्यादेशों को पेश किया जा रहा था जब वे उन्हें विधानसभा में पारित करा पाने में सक्षम नहीं हो पाते थे, क्योंकि उनके पास निर्वाचित सदस्यों की तुलना में मनोनीत सदस्य अधिक थे।  भारतीय प्रतिरोध को, वो चाहे विधासनभा में किया गया हो या अदालतों में, को राष्ट्रवादी अधिवक्ताओं के द्वारा लाहौर बार में, बेहद वृहद स्तर पर प्रस्तुत किया गया है।  

एक पूरा अध्याय ही “इंकलाबी न्यायमूर्ति आगा हैदर” पर समर्पित किया गया है।  सहारनपुर में जन्मे न्यायमूर्ति आगा हैदर के द्वारा निभाई गई महान भूमिका का इसमें उल्लेख किया गया है, जिन्हें मई 1930 में स्पेशल ट्रिब्यूनल में सदस्य के तौर पर नामित किया गया था। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बतौर वे लाहौर षड्यंत्र के आरोपियों के साथ निष्पक्ष बने रहे। न्यायमूर्ति हैदर ने आरोपियों को दोषी करार देने के लिए अंग्रेजों द्वारा भेजे गये व्यक्ति के हाथ रिश्वत की पेशकश पर उसे बाहर फिंकवा दिया था। अंततः औपनिवेशिक शासकों ने न्यायाधिकरण के पुनर्गठन के बहाने पंजाब उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर शादीलाल के माध्यम से न्यायमूर्ति हैदर से किसी तरह अपना पीछा छुड़ाया।    

न्यायमूर्ति हैदर बाद में यूपी विधानसभा के सदस्य बने और विधानसभा द्वारा उनकी मृत्यु पर पारित एक शोक पस्ताव को परिशिष्ट के तौर पर दिया गया है। 1876 में जन्में न्यायमूर्ति हैदर का निधन आजादी मिलने से कुछ महीने पूर्व 5 फरवरी, 1947 को हुआ था।  उनके वंशज आज भी सहारनपुर के उसी घर में रहते हैं क्योंकि परिवार ने विभाजन के दौरान पाकिस्तान नहीं जाने का फैसला लिया था। 

सिंह पर चले झूठे मुकदमे का भंडाफोड़ हो चुका है क्योंकि इसे अभियुक्तों की अनुपस्थिति में चलाया गया था और राज के झूठे पाखण्ड में इस बात को रेखांकित किया गया था कि फैसला पहले से ही तय था।  लेखक को उद्ध्रत करते हुए, “वास्तव में देखें तो न्यायाधिकरण का पूर्वाग्रह स्पष्ट नजर आता है, कि कितनी बुरी तरह से फैसले के प्रारूप को तैयार किया गया था।“ (पृष्ठ 179)

द एग्जेक्युशन ऑफ़ भगत सिंह पिछले एक दशक या इससे पहले से महान क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों पर लिखी गई सबसे बेहतर पुस्तकों में से एक है। यह पुस्तक एक मार्क्सवादी विचारक के तौर पर भगत सिंह के व्यक्तित्व पर भी ध्यान केंद्रित करती है, जो कि मौजूदा भारतीय सरकार के लिए आँख की किरकिरी बनी हुई है। उसकी कोशिश उन्हें एक लोकप्रिय प्रतीक के रूप में हस्तगत करने में है, लेकिन उनके क्रांतिकारी विचारों के बगैर। 

भगत सिंह की मौत के बाद भी उनकी उर्जा इतनी प्रचंड बनी हुई है कि सरकार के द्वारा उनके क्रांतिकारी विचारों को दबाने के सभी प्रयासों के बावजूद, यह तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन की प्रमुख ताकत बन गया था।  सिंह के क्रांतिकारी विचारों से किसानों को प्रेरणा और ताकत मिली और वे आखिरकार वे विजयी हुए। अपने लिए जानबूझकर शहादत का मार्ग चुनते वक्त भगत सिंह ने जैसा अपने बारे में सोचा होगा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली रूप में वे जिंदा हैं – जैसा कि पुस्तक इस ताकत को रेखांकित करती है। 

लेखक जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और भगत सिंह अभिलेखागार एवं संसाधन केंद्र, दिल्ली के मानद सलाहकार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

New Bhagat Singh Book Rebuts British Rule of Law in Colonial India

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