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पुण्यतिथि पर विशेष: दुर्गा भाभी ने भगत सिंह को कैसे लाहौर से बाहर निकाला

“उस रात भगत सिंह और राजगुरु मेरे यहाँ ही रहे। तीसरे दिन, अभी ठीक से भोर भी नहीं हुई थी। मैं, भगत सिंह और राजगुरु लाहौर स्टेशन पहुँच गए। खुफिया पुलिस की भरमार थी”।
Durga bhabhi
दुर्गा देवी वोहरा (दुर्गा भाभी) और भगत सिंह

सॉन्डर्स वध के बाद पुलिस भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आज़ाद आदि को ढूंढ रही थी। संगठन के लिए इन लोगों को लाहौर से निकालना एक चुनौती से कम नहीं था, क्यूंकि पुलिस लगातार क्रांतिकारियों के गुप्त ठिकानों की तलाश में छापा मार रही थी, साथ ही साथ खुफिया पुलिस का जाल बिछ चुका था और लाहौर से निकलने वाले सारे रास्तों पर पुलिस की कड़ी निगरानी थी। ऐसे में संगठन को दुर्गा देवी वोहरा की याद आयी और हिसप्रस के पंजाब प्रान्त के मुखिया, सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को लाहौर से निकालने की योजना के साथ दुर्गा देवी के घर पहुँचे।

जिस दिन सॉन्डर्स का वध हुआ उस दिन दुर्गा देवी अपने विद्यालय में थी। जैसे ही उनको इस  घटना की खबर मिली वो मौका-ए-वारदात पर पहुँची। चूँकि पुलिस को दुर्गा देवी के पति, भगवती चरण वोहरा पर शक था पुलिस ने उनके पीछे भी जासूस लगा रहे थे। पुलिस का एक मुखबिर दुर्गा देवी के घर में ही किरायेदार के बतौर रह रहा था। जिस बस से दुर्गा भाभी स्कूल जाती थी उस बस के ड्राइवर को भी पुलिस ने पैसा दे कर अपना मुखबिर बना लिया था।   इन सब के बावजूद दुर्गा देवी क्रांतिकारियों को लाहौर से निकालने के जटिल और जोखिम भरे काम को करने के लिए पूरे उत्साह और समर्पण के साथ राज़ी हो गयीं।

आम जनमानस में दुर्गा भाभी को उस महिला के बतौर ही याद  किया जाता है जिन्होंने भगत सिंह को लाहौर से निकलने में मदद की। यह प्रसिद्ध  प्रसंग दुर्गा भाभी के शब्दों में इस प्रकार घटित हुआ—

“…सॉण्डर्स वध की रात मैं संस्कृत पढ़ रही थी कि सुखदेव आए। उस समय करीब नौ बजे का समय रहा होगा...सुखदेव का बर्ताव मुझे रोज जैसा सामान्य नहीं लगा। वे कहने लगे, "क्या पढ़ती हो ये सब?"

"संस्कृत पढ़ रही हूँ", मैंने कहा।

"पढ़ना छोड़ो, यह बताओ कि क्या किसी को लेकर बाहर जा सकोगी?"

सुखदेव ने उसी असामान्य मन:स्थिति में पूछा था।

मैं बोली, "छुट्टियाँ होने में अभी तीन-चार दिन बाकी हैं।"

"छुट्टी ले सकोगी?" सुखदेव एक-पर-एक प्रश्न करता गया था।

और मैंने उसी रात छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र लिखा…बताया गया की कि जिसको लेकर जाना है, मैं उसके साथ शची को भी ले जाऊँगी।

मैंने यह भी नहीं पूछा कि कहाँ और  किसके साथ जाना है। पूछने का नियम भी नहीं था। सुखदेव को मैं एकदम तत्पर ही मिली। मेरी तत्परता देखकर सुखदेव बोले, "भाभी, यह सोच लो कि अगर रास्ते में कुछ हो गया तो सब के सब (यही शची भी) खत्म हो जाओगे।"

मैंने कहा, "ठीक है।"   सुखदेव उस वक्त मुझसे पाँच सौ रुपए लेकर चले गए थे…   

…मुझको तैयारी के लिए चौबीस घंटे का समय मिल गया। दूसरे दिन के 10 या 11 बजे होंगे, सुखदेव आए। साथ में और भी दो लोग थे...सुखदेव के साथ आए लम्बे व्यक्ति की और संकेत करके पूछा, "भाभी, पहचाना?"

मैं उसे नहीं पहचान सकी, यद्यपि वो भगत सिंह ही थे। एकदम नया वेश। सिर पर हैट! चमचमाते हुए काले जूते। चेस्टर (लम्बी ऊनी कोट) पहने थे।              

भगत सिंह हँस पड़े। सुखदेव से कहने लगे- “अब मैं पास हो गया । इन्होंने  नहीं पहचाना  पुलिस मुझे क्या पहचानेगी।”

साथ ही उनके दूसरा आदमी था। देखने में एकदम नौकर जैसा। उसे मैं फिर भी नहीं पहचान सकी। परिचय भी नहीं था।  मैं नहीं जान सकी कि वही राजगुरु हैं...

भगत सिंह ने मेरे पास बैठे शची को देखा। कहने लगे, "भाभी, मुझे फिक्र होती है कि अगर तुम्हारा बेटा मारा गया तो..."

"भैया, यह बेवक्त की 'तो’ कैसी? तुम भी तो किसी के बेटे हो।  अगर एक बेटा (भगत सिंह मारा जाएगा तो इसे (शची) भी क्यों नहीं मरना चाहिए।" मैंने उस दिन भगत सिंह को बीच में ही टोक कर कहा था।

उस रात भगत सिंह और राजगुरु मेरे यहाँ ही रहे। तीसरे दिन, अभी ठीक से भोर भी नहीं हुई थी। मैं, भगत सिंह और राजगुरु लाहौर स्टेशन पहुँच गए। खुफिया पुलिस की भरमार थी। दो टिकट प्रथम श्रेणी के और राजगुरु के लिए तृतीय श्रेणी का टिकट लिया गया...शची भगत सिंह की गोद में था। प्लेटफॉर्म पर चलते-चलते भगत सिंह ने शची को ठीक अपने चेहरे के सामने (ताकि मुंह ढँक जाए) कर लिया। उसकी आड़ में चेहरा कुछ छिप-सा गया। ठंड के बहाने कोट का कॉलर भी ऊपर चढ़ा था। फेल्ट हैट थोड़ी एक तरफ झुकी हुई थी। शची बाएँ हाथ में। भरी हुई पिस्तौल भगत सिंह के दाएँ हाथ में चेस्टर की जेब में। उँगलियाँ उसके घोड़े पर जमी थीं। भरी हुई एक पिस्तौल मेरे पास भी थी। एकदम सतर्क कि कहीं कुछ रोक-टोक हुई नहीं कि "धायँ-धायँ” ।

गाड़ी चली। किसी ने पहचाना नहीं।  

 …मैं और भगत सिंह लखनऊ पहुँच गए। भगत सिंह ने वहीं प्लेटफॉर्म से सुशीला दीदी को कलकत्ता तार किया ताकि वे स्टेशन आ सकें। तार में मेरे नाम की जगह भगत सिंह ने 'दुर्गावती' लिख दिया जिससे कि खुफिया पुलिस को पता न चले।

सुशीला दीदी सोचती रहीं कि ये दुर्गावती कौन है?

दीदी ठीक समय पर हावड़ा स्टेशन पहुँची। वे (भगवती चरण) भी आए। जब मैं भगत सिंह को लेकर स्टेशन पर उतरी तो वो भाव-विभोर हो उठे। मुझे वहीं प्लेटफॉर्म पर शाबाशी देने लग गए। पीठ थपथपाकर कहा, "मैंने तुम्हें आज पहचाना है… मैं समझता हूँ कि हमारी-तुम्हारी शादी सच पूछो आज हुई है..."         

भगत सिंह और राजगुरु को लाहौर से निकालने के लिए दुर्गा भाभी ने न तो अपनी जान की परवाह की न ही अपने तीन साल के मासूम बच्चे की!

इस पूरे घटनाक्रम के बाद दुर्गा भाभी की भगत सिंह से जेल के बाहर आखिरी मुलाकात असेंबली बम कांड के दिन हुई। दल के नियमानुसार दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी को असेंबली बम 'एक्शन' के बारे में नहीं पता था।   भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जब असेंबली में बहरों को सुनाने के लिए धमाका करने जा रहे थे, तब दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी को इतना ही पता था की कोई बड़ा 'एक्शन' होने वाला हैं। असेंबली में जाने से पहले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने भाभी और दीदी के साथ भोजन किया। बम धमाके के दौरान भाभी और दीदी असेंबली के बाहर ही मौजूद थीं। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को इनके सामने से जेल ले जाया गया था… 

('भगत सिंह के साथी' पुस्तक का एक अंश, जिसे लिखा है प्रबल सरन अग्रवाल, हर्षवर्धन त्रिपाठी और अंकुर गोस्वामी ने। इसे हाल ही में वाम प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। यह किताब mayday.leftword.com से ऑर्डर की जा सकती है।) 

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