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आईआईटी में शिक्षक पदों में आरक्षण खत्म करने का प्रस्ताव दोषपूर्ण!
सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों पर सरसरी नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि सामान्य रूप से उच्च शिक्षा संस्थानों और विशेष रूप से आईआईटी में संवैधानिक रूप से अनिवार्य आरक्षण के प्रावधानों को लागू करने में कोताही बरती जा रही है। 
निखिल वरगिस मैथ्यू
27 Jan 2021
Translated by महेश कुमार
iit

इस वर्ष की शुरुआत में भारत सरकार को सौंपी गई एक रिपोर्ट में देश की 23 आईआईटी में आरक्षण की नीति को और अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने की दिशा में उपायों का प्रस्ताव देने के लिए गठित की गई समिति ने उल्टा ही प्रस्ताव दे डाला और कहा है कि संकाय/शिक्षकों की नियुक्तियों में आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए।

वंचित समुदायों में पर्याप्त और योग्य उम्मीदवारों की कमी को देखते हुए और "अकादमिक उत्कृष्टता" को बनाए रखने की जरूरत का हवाला देते हुए रिपोर्ट में प्रस्ताव किया गया कि जो संस्थान, "संसद के अधिनियम के तहत राष्ट्रीय महत्व के संस्थान हैं जैसे कि आईआईटी को (अनुछेद 4) के खंड के तहत सूचीबद्ध कर दिया जाना चाहिए।" 

और सीइआई (CEI)(शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 के तहत आरक्षण से छूट दे देनी चाहिए। ऐसा करने से आईआईटी भी अन्य आठ संस्थानों की तरह "उत्कृष्टता के संस्थान" की सूची जुड़ जाएगी जिन्हें आरक्षण प्रावधानों को न लागू करने की छूट मिली हुई है।

जाति व्यवस्था और "योग्यता" के हौवे को लंबे समय से नैतिक और कानूनी दोनों तरीकों से  इस्तेमाल किया जाता रहा है, जो प्रमुख जाति के लोगों का अवसरों को हड़पने और सामाजिक-आर्थिक ढांचे में विशेषाधिकार के औचित्य को साबित करने का साधन रहा है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के घरों में इंजीनियरिंग जैसे छात्रों का कम अनुपात इसके सिस्टेमेटिक डिजाइन के वजह से है न कि प्रमुख घरों के उम्मीदवारों की "योग्यता" के मामले में कोई अनुपातहीन आवंटन किया गया है, ताकि बाद में दिखाया जा सके कि मध्यकालीन और प्राचीन भारत के इंजीनियर और आर्किटेक्ट वंचित जातियों से आते थे।

जब भारत के शिक्षा क्षेत्र को संपूर्णता में देखा जाता है, तो उसके मर्म को भी साफ तौर पर देखा जा सकता है- विशेष रूप से उच्च शिक्षा संस्थानों में- जो लंबे समय से कुछ समुदायों के व्यवस्थित बहिष्करण के साधन बन गए हैं और जो उन्हे गरिमापूर्ण जीवन जीने से रोकता है।

उच्च शिक्षा पर हुए अखिल भारतीय सर्वेक्षण 2018-19 से पता चलता है कि उच्च शिक्षा में एससी और एसटी छात्रों का नामांकन क्रमशः 14.9 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत है। उच्च शिक्षा में एससी और एसटी छात्रों का सकल नामांकन अनुपात (GER) क्रमशः 23.3 प्रतिशत और 17.2 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 26.3 प्रतिशत से कम है। यह शिक्षण समुदाय की संरचना की गंभीर स्थिति की तरफ इशारा करती है। सामान्य वर्ग के उम्मीदवार शिक्षण पदों की नियुक्तियों के मामले में एससी और एसटी के 8.8 प्रतिशत और 2.36 प्रतिशत के मुक़ाबले 56.7 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। गैर-शिक्षण कर्मचारियों में भी सामान्य श्रेणी के लोगों का सभी पदों पर 54.7 प्रतिशत पर कब्जा हैं।

हालांकि, आईआईटी में आरक्षण नीति को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए बनी समिति ने आरक्षित वर्गों से पर्याप्त और योग्य उम्मीदवारों की कमी का हवाला देते हुए संकाय/शिक्षक नियुक्तियों में आरक्षण को समाप्त करने के अपने प्रस्ताव को सही ठहराया है, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटा पर सरसरी नज़र डालने (चित्र 1 देखें) से पता चलता है कि उच्च शिक्षा संस्थानों और विशेष रूप आईआईटी में संवैधानिक रूप से अनिवार्य आरक्षण प्रावधानों को धता बताया जा रहा है। 

आईआईटी में डॉक्टरेट पीएचडी कार्यक्रमों के श्रेणी-वार दाखिले का अध्ययन करने पर पता चलता है (जिसके स्नातक के बारे में आईआईटी संकाय पदों पर सबसे अधिक विचार करती हैं) कि: एससी छात्रों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के विपरीत 2015 और 2019 के बीच औसतन 9.07 प्रतिशत भर्ती हुई जो 2015 में 9.21 प्रतिशत से गिरकर 2017 में 8.77 प्रतिशत रह गया था। एससी छात्रों की स्थिति आईआईटी गांधीनगर में सबसे खतरनाक मिली जहां 2015 और 2019 के बीच संस्थान में पीएचडी कार्यक्रम में औसत 4.54 प्रतिशत भर्ती हुई थी। 

एसटी छात्रों का आंकड़ा और भी अधिक दुखी करने वाला आंकड़ा है, जिसमें पीएचडी कार्यक्रम में उसी समयावधि में एसटी छात्रों की औसत उम्मीदवारी लगभग 2.09 प्रतिशत पाई जाती है। 2018 में आईआईटी पीएचडी कार्याक्रम में एसटी छात्रों के दाखिले का प्रतिशत अनिवार्य 7.5 प्रतिशत के मुक़ाबले 1.84 सबसे कम था। हालांकि ओबीसी छात्रों की स्थिति मामूली रूप से बेहतर है, लेकिन चिंताजनक है, 2015 और 2019 के बीच उनकी पीएचडी की भर्ती औसत 23.23 प्रतिशत पर थी। 

आईआईटी, 2015-19 में पीएचडी कार्यक्रमों में एससी, एसटी, और ओबीसी छात्रों का श्रेणी-वार दाखिला 

(स्रोत: 05/03/2020 को राज्यसभा में अतारांकित प्रश्न सं 1681 का जवाब से लिया गया) 

हालाँकि, उपरोक्त समुदायायों का भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों के भीतर संस्थागत भेदभाव के कारण अभी भी अधूरा प्रतिनिधित्व है। जैसा कि एक हालिया अध्ययन में कहा गया है, कि भारत में एससी और एसटी परिवार की सालाना आय 0.8 गुना और 0.7 गुना कम है, जो कि भारत की औसत आय 1,13,222 रुपये से कम है। जबकि प्रमुख जाति (गैर-ब्राह्मण) के परिवार आम तौर पर 1,64,633 रुपये की वार्षिक आय अर्जित करते हैं और ब्राह्मण परिवार 1,67,013 रुपये की वार्षिक आय अर्जित करते हैं। भारत में औसत एससी परिवार की वार्षिक आय 89,356 है, जबकि औसत एसटी घरेलू वार्षिक आय 75,216 है।

यह अध्ययन एससी और एसटी परिवारों के पास संपत्ति के स्वामित्व के बारे में भी समान प्रवृत्ति दिखाता है, जो ब्राह्मण परिवार के मुक़ाबले औसतन 0.69 गुना और 0.56 गुना स्वामित्व वाली संपत्ति दिखाता है। इसकी पुष्टि एनएफएचएस-3 के डेटा में की गई है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी 53.27 प्रतिशत एससी को वेल्थ इंडेक्स पर या तो "बहुत गरीब" या "गरीब" के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जबकि प्रभुत्व वाली जातियों के लिए यह औसत 8.36 प्रतिशत है। एनएफएचएस-4 ने भी कुछ ऐसा ही नोट किया है कि अनुसूचित जाति के परिवारों में से 50 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के 73 प्रतिशत घरों के पास सबसे कम संपत्ति हैं।

नेशनल सैंपल सर्वे के 71 वें दौर के आंकड़ों के विश्लेषण से भी पता चलता है कि जब भारत की आबादी का (19 प्रतिशत) होने के बावजूद एससी का प्रतिनिधित्व सभी व्यवसायों या मुख्य कार्यकारी अधिकारी में केवल 10.4 प्रतिशत हैं। हालांकि, प्रमुख जातियों का अनुपात इसमें 42.3 मुख्य कार्यकारी अधिकारी है, जब कि भारत की आबादी में उनकी कुल हिस्सेदारी केवल 28.8 मुख्य कार्यकारी अधिकारी है।

यह प्रवृत्ति तब ओर बढ़ती नज़र आती है अगर कोई उन लोगों के सामाजिक स्थान पर विचार करता है जो प्रबंधकों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, पेशेवरों या प्रोफेसरों के रूप में रोजगार पाते हैं। जबकि उपरोक्त श्रेणी पदों पर अनुसूचित जाति के घरों से केवल 10.1 प्रतिशत लोग हैं, जबकि प्रमुख जाति के घरों से यह आंकड़ा 51 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि, भारत के एससी नागरिक को वानिकी, मछली पकड़ने, शिकार और कृषि श्रमिकों के रूप में दिखाया जाता है, जहां वे उन सभी लोगों का लगभग 33 प्रतिशत हिस्सा हैं जो वहाँ कार्यरत हैं। हालांकि, उपरोक्त व्यवसायों में प्रमुख जातियों का अनुपात केवल 12.7 प्रतिशत है। उपरोक्त तथ्य जरूरी रूप से छात्रों के सामाजिक स्थानों के संदर्भ में अपने परिणाम हैं जो भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा भी कर सकते हैं।

उच्च जाती के सभी 15-17 वर्षीय बच्चों में जो माध्यमिक शिक्षा में दाखिला नहीं लेते हैं या उससे बाहर हो जाते हैं के 19.63 प्रतिशत की तुलना में एससी जाति के समुदायों के बच्चों का आंकड़ा 33.3 प्रतिशत है। एसटी परिवारों के बच्चों के लिए यह आंकड़ा लगभग दोगुना हो जाता है, सभी एसटी बच्चों में यह आंकड़ा 37.54 प्रतिशत हैं जो माध्यमिक शिक्षा में कभी दाखिला नहीं लेते हैं या इससे बाहर हो जाते हैं। वंचित जाति समूहों के मामले में उच्च शिक्षा की संस्थागत अयोग्यता को उस समय सामने लाया जाता है जब एक नोट 18-21 आयु वर्ग में अनुसूचित जाति के बच्चों का ड्रॉपआउट का आंकड़ा 70.61 प्रतिशत तक बढ़ जाता है, जबकि प्रमुख जातियों के लिए यह आंकड़ा केवल 50.1 प्रतिशत होता है। जाति और वर्ग के बीच अंतर करते वक़्त इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि सामाजिक हालातों को देखते हुए ड्रॉपआउट की दर में कितनी गिरावट आई है क्योंकि कोई न कोई मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (एमपीसीई) चतुर्थांश में ऊपर निकाल जाता है।

इंस्टीट्यूशन में भेदभाव 

जबकि वंचित जातियों के छात्रों को उच्च शिक्षा में निर्विवाद रूप से कम प्रतिनिधित्व मिलता है, और जो दाखिला लेने में कामयाब हो भी जाते है वे संस्थागत भेदभाव का सामना करते हैं और इन संस्थानों में शिकायत निवारण के तंत्र का अभाव होता हैं। सुखदेव थोराट समिति ने 2006 में दिल्ली के एम्स में वंचित समुदायों के छात्रों के खिलाफ भेदभाव के कई उदाहरणों के बारे में बताया था जिसमें शिक्षण संस्थानों में संकाय सदस्यों के साथ भेदभाव या दुर्व्यवहार का सामना करने वाले 72 प्रतिशत एससी और एसटी छात्र थी। 

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की एक रिपोर्ट में पहचान-आधारित भेदभाव, छात्रावासों में वंचित समुदायों के छात्रों को एक जगह रखा जाता है, संवैधानिक रूप से अनिवार्य आरक्षण के प्रावधानों की अवेलहना की जाती है और समुदाय के वाजिब फैकल्टी सदस्यों को पदों से वंचित किया जाता है। 

कई न्यायिक फैंसलों, समितियों और वैधानिक अधिकारियों ने उच्च शिक्षा में व्याप्त भेदभाव के मुद्दे को संबोधित करने का प्रयास किया है। हालांकि, उनकी अधिकांश सिफारिशें केवल कागज पर ही राखी रह गई। 

थोराट समिति ने वंचित समुदायों के छात्रों की शिकायतों के “स्वतंत्र और निष्पक्ष समाधान” के लिए एम्स दिल्ली में एक “समान अवसर कार्यालय” के गठन की सिफारिश की थी। हालाँकि, इन सिफारिशों को एम्स के दिल्ली प्रशासन ने अस्वीकार कर दिया था।

जुलाई 2013 में, आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित और आदिवासी छात्रों की आत्महत्या का संज्ञान लेते हुए सिफारिश की थी कि, “विश्वविद्यालयों द्वारा गठित सभी समितियों में एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के बाहरी सदस्य होने चाहिए।” न्यायालय ने यह भी सिफारिश की थी कि, "सभी विश्वविद्यालयों में एससी/एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक छात्रों की पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों और आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों का समर्थन करने के लिए तैयारी पाठ्यक्रम, सहकर्मी शिक्षण तंत्र सहित ब्रिज पाठ्यक्रम होना चाहिए।"

आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी और दूसरे संस्थानों में अन्य चीजों के अलावा दिशानिर्देशों देने के लिए समान अवसर सेल होने चाहिए जो उदाहरणात्मक हों। जिन 132 संस्थानों का सर्वेक्षण किया गया है, उनमें से केवल 42 संस्थानों की वेबसाइटों पर ही ऐसी कोई जानकारी पाई गई, जो किसी को भी समान अवसर सेल तक पहुँचने या शिकायत दर्ज करने में मदद करती हो।

उपर्युक्त उदाहरण इस बात पर ज़ोर देते है कि भारत के शैक्षिक स्थानों में आरक्षण को खत्म करने के बजाय, संवैधानिक रूप से अनिवार्य आरक्षण के प्रावधानों मजबूती से लागू करने की तत्काल आवश्यकता है। समिति की सिफारिशें समाज में व्याप्त उत्पीड़न से आंखे चुराती हैं, क्योंकि आज के भारत में जो निर्णय लेने की स्थिति में हैं वे प्रमुख रूप से उच्च जाति के घरों से हैं और वे ही इन संस्थानों बहुतायत में हैं। हाशिए पर पड़े जातिगत पृष्ठभूमि की फैकल्टी की पहले से ही कम संख्या को ओर कम करने के प्रयास के बजाय, समिति अगर शिक्षा को और अधिक सुलभ और समावेशी बनाने की दिशा में कदम उठाने की सिफारिश करती तो एक अच्छा काम किया होता।

 

(लेखक, सोश्ल एंड पोलिटिकल फाउंडेशन में एक असिस्टेंट शोध करता है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें


Centre-Appointed Panel’s Proposal to Exempt IITs From Reservation in Faculty Posts is Faulty)

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