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क्या लिव-इन संबंधों पर न्यायिक स्पष्टता की कमी है?

न्यायालयों को किसी व्यक्ति के बिना विवाह के किसी के साथ रहने के मौलिक अधिकार को मान्यता देनी होगी। 
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13 अप्रैल को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने अभिषेक बनाम् महाराष्ट्र राज्य केस में “लिव-इन संबंधों के चलते हाल में अपराधों की बढ़ोत्तरी” का संज्ञान लिया और कहा, “लिव-इन का अभिशाप संविधान के अनुच्छेद 21 में उपलब्ध कराई गई संवैधानिक गारंटी का सह उत्पाद है, जिससे भारतीय समाज के मूल्यों का ह्रास हो रहा है और संकीर्ण व कामुक व्यवहार को प्रोत्साहन मिल रहा है, जिसके चलते यौन अपराधों में बढ़ोत्तरी हो रही है।” कोर्ट ने यह भी कहा कि जो लोग “इस स्वतंत्रता का फायदा उठाना” चाहते हैं, वे तेजी से इसे अपना लेते हैं, लेकिन वे यह पूरी तरह भूल जाते हैं कि इसकी अपनी सीमा है और ऐसे संबंधों में रहने वाले साथियों को कोई अधिकार हासिल नहीं होता।  

इस मामले में आरोपी शिकायतकर्ता के साथ लिव-इन में रह रहा था, शिकायतकर्ता ने आरोपी पर रेप का मामला दर्ज करवाया, जिसके बाद आरोपी ने अपनी गिरफ़्तारी की आशंका के चलते अग्रिम ज़मानत की याचिका लगाई थी। कोर्ट को लगता है कि जांच के लिए आरोपी को हिरासत में लिया जाना जरूरी है, इसके बाद कोर्ट आरोपी की अग्रिम जमानत की याचिका को खारिज़ करते हुए टिप्पणी करता है, "ऐसा लगता है कि आवेदक इस जाल में फंसा गया और अब खुद को पीड़ित के तौर पर प्रदर्शित कर रहा है, उसे लगता है कि अगर प्रार्थी के साथ उसका संबंध एक बार बन जाता है, तो आगे मनमुताबिक़ ढंग से जोर-जबरदस्ती कर सकता है, क्योंकि उसके पास प्रार्थी के अलग-अलग फोटो और वीडियो क्लिप हैं।" इस मामले में प्रार्थी ने 15 फरवरी को रेप, लगातार धमकी मिलने और उसे कई गर्भपात करने के लिए मजबूर किए जाने के अपराध में एफआईआर दर्ज कराई थी।  

लिव-इन संबंध, पारंपरिक शादी की अवधारणा से संगत में नहीं है और भारतीय समाज में इसकी मान्यता की कमी है, लेकिन इसे यौन अपराधों को बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया जाना कहीं से तार्किक नहीं है। 

जस्टिस सुबोध अभयंकर के आदेश में लिव-इन संबंधों को ऐसा व्यवहार बताया गया है, जो "भारतीय समाज का ह्रास कर रहा है", यह बताता है कि दो वयस्कों की सहमति से एक-दूसर के साथ रहने के प्रति अब भी न्यायपालिका कितनी प्रतिबंधात्मक और निरोधक धारणाएं रखती है। कठोर मत वाले इस फ़ैसले से भी स्पष्ट है, यह मत हद तक जाता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए अधिकारों पर भी इसे संशय होता है, जो बिना विवाह साथ रहने के अधिकार और व्यवहार की रक्षा करता है। कोर्ट कहता है कि "संविधान की इस स्वतंत्ररता का शोषण" किया जा रहा है।

कोर्ट ने बढ़ते यौन अपराधों और लिव-इन संबंधों में हैरानी भरा संबंध निकाला है। लिव-इन संबंध, पारंपरिक शादी की अवधारणा से संगत नहीं है और भारतीय समाज में मान्यता की कमी है, लेकिन इसे यौन अपराधों को बढ़ने के लिए जिम्मेदार बताया जाना कहीं से तार्किक नहीं है। इससे सवाल उठता है कि क्या कोर्ट द्वारा यौन अपराधों को यौन स्वायत्ता का सह-उत्पाद बताना सही है?

भारतीय कानून कैसे लिव-इन संबंधों की रक्षा करते हैं?

अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ बिना हस्तक्षेप के सहवास की स्वतंत्रता की भी रक्षा करता है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 2(f) "घरेलू संबंधों" को "दो व्यक्तियों के बीच ऐसा संबंध बताती है, जहां दोनों एक ही घर में ...शादी की प्रवृत्ति के रिश्ते के साथ साझा तौर पर रह रहे हैं या किसी वक़्त पर रहे हैं।" तो इस तरह लिव-इन में रहने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा से वही सुरक्षा प्रदान हैं, जो शादी के रिश्ते में होती हैं।

न्यायपालिका ने लिव-इन संबंधों को परिभाषित किया है?

पिछले दो दशकों में भारत में न्यायालयों ने लिव-इन संबंधों की कानूनी तौर पर व्याख्या करने की कोशिश की है। 2010 में एस खुशबू बनाम् कन्निमल एवम् अन्य में दिए गए एक अहम फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के लिव-इन में रहने के अधिकार को मान्यता दी और इसे अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षित बताया, साथ ही इस संबंध को “घरेलू संबंध” का नाम भी दिया। गौर करने वाली बात है कि कोर्ट ने कहा, “सामाजिक नैतिकता की अवधारणा अपने आपमें वैषयिक है और व्यक्तिगत स्वायत्ता के क्षेत्र में अनचाहे हस्तक्षेप के लिए आपराधिक कानून का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।”

एस पी एस बालासुब्रमण्यम बनाम् सुरुट्टायन अनदाल्ली पदयाची एवम् अन्य (1991) में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ज़्यादा लंबे वक़्त तक लिव-इन शादी का रूप ले लेता है और इससे पैदा हुए बच्चे अपने पिता के पुरुखों की संपत्ति में हिस्सेदार होते हैं।

2010 में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन में रहने के व्यक्तिगत अधिकार की पुष्टि फिर से की थी, और इसे फिर अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित बताया था और लिव-इन को “घरेलू संबंध” के तौर पर भी मान्यता दी थी। 

लेकिन लिव-इन संबंधों को लेकर जो उदारवादी नज़रिया रहा है, हाल में न्यायालयों के विचारों से उसमें कटौती होती नज़र आ रही है। जैसे- 12 मई 2021 को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने उज्जवला एवम् अन्य बनाम् हरियाणा राज्य एवम् अन्य के मामले में लिव-इन में रह रहे एक युवा जोड़े को लड़की के परिवार से सुरक्षा देने से इंकार कर दिया और कहा, “इस तरह के मामले में सुरक्षा की मांग की जा रही है, अगर यह दे दी जाती है, तो पूरा सामाजिक ताना-बाना ही खराब होने लगेगा।” 

दूसरे देशों में लिव-इन संबंधों की कैसे व्याख्या की गई है?

कनाडा जैसे देशों में लिव-इन संबंधों को सामान्य विधि वाली शादियों की तरह ही लिया जाता है। कनाडा में लिव-इन में रहने वालों को वही अधिकार प्राप्त हैं, जो एक शादीशुदा दंपत्ति को कम से कम 12 महीने साथ रहने के बाद हासिल होते हैं। जबकि अमेरिका जैसे देश अब भी लिव-इन और शादी करके रहने वाले दंपत्तियों में अंतर कर रहे हैं। 

जैसा जस्टिस अभयंकर के फ़ैसले से पता चलता है, लिव-इन संबंधों का बुरा प्रचारित किया जाता है, जो एक ऐसे समाज को डराने का काम करता है, जहां शादी के बिना साथ रहने का विचार कुछ वक़्त पहले ही शुरु हुआ है। बल्कि इससे सवाल उठता है कि क्या असल में हम जोड़ों को शादी के संस्थान में दाखिल होने के लिए जबरदस्ती मजबूर कर रहे हैं, ताकि सामाजिक नैतिकता बनी रहे। लेकिन दूसरे न्याय क्षेत्राधिकारों में चलने वाले कानूनों का अध्ययन किया जा सकता है ताकि हमें लिव-इन संबंधों को कानूनी तौर पर वैधानिक करने का प्रोत्साहन मिले। 

आगे का रास्ता

2015 में सुप्रीम कोर्ट ने धन्नू लाल बनाम् गनेशराम में एक और अहम फ़ैसले में अविवाहित जोड़ों के पारिवारिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए कहा, “यह बहुत अच्छी तरह साबित है कि जब एक पुरुष और महिला लंबे वक़्त तक साथ में रह रहे हों, उस संबंध में कानून शादी के पक्ष और बिना शादी के साथ महिला को साथ रखने के खिलाफ़ है।”

लिव-इन संबंधों का बुरा प्रचारित किया जाता है, जो एक ऐसे समाज को डराने का काम करता है, जहां शादी के बिना साथ रहने का विचार कुछ वक़्त पहले ही शुरु हुआ है। बल्कि इससे सवाल उठता है कि क्या असल में हम जोड़ों को शादी के संस्थान में दाखिल होने के लिए जबरदस्ती मजबूर कर रहे हैं, ताकि सामाजिक नैतिकता बनी रहे। 

इस मामले में लंबे वक़्त तक साथ में रहने को शादी माना गया। यह बताता है कि ऐसा कानून बनाना संभव है जो ज़्यादा लंबे वक़्त तक साथ रहने के विशेष आधार पर लिव-इन संबंधों को कानूनी वैधानिकता उपलब्ध करवा सकता है। लेकिन अच्छी शुरुआत यह हो सकती है कि कोर्ट इस बुनियादी अधिकार को मान्यता दें कि कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से बिना विवाह के किसी के साथ रहने का विकल्प चुन सकता है।

सारा थानावाला द लीफ़लेट में स्टॉफ़ राइटर हैं।

साभार: द लीफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Is There a Lack of Judicial Clarity Over Live-in Relationships?

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