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टू-फिंगर टेस्ट पर सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती क्या पीड़िताओं को दिलाएगी पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव से मुक्ति!

सुप्रीम कोर्ट ने यौन हिंसा जांच के लिए टू-फिंगर टेस्ट को अवैज्ञानिक बताते हुए इसे मेडिकल की पढ़ाई से हटाने का आदेश दिया है। साथ ही कोर्ट ने चेतावनी भी दी है कि टू-फिंगर टेस्ट करने वालों को दोषी ठहराया जाएगा।
two finger test

''ये पितृसत्तात्मक और लैंगिक रूप से भेदभावपूर्ण है कि एक महिला के यौन संबंधों में सक्रिय होने के कारण ये ना माना जाए कि उसके साथ रेप हुआ है।''

सुप्रीम कोर्ट की ये सख्त टिप्पणी रेप के मामलों की जांच के लिए इस्तेमाल होने वाले ''टू-फिंगर टेस्ट'' को लेकर सामने आई है। अदालत ने इस टेस्ट को पीड़ित महिलाओं के लिए री-विक्टिमाइज़सरी-ट्रॉमाटाइज़ेस बताते हुए उनकी गरिमा का अपमान माना है। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने जांच के इस तरीक़े को अवैज्ञानिकबताते हुए इसे मेडिकल की पढ़ाई से हटाने का आदेश दिया है। साथ ही कोर्ट ने चेतावनी भी दी है कि टू-फिंगर टेस्ट करने वालों को दोषी ठहराया जाएगा।

बता दें कि टू-फ़िंगर टेस्ट एक तरह से वर्जिनिटी को निर्धारित करने के लिए किया जाता रहा है। ये एक तकलीफदेह प्रक्रिया हैजिसमें पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में दो अंगुलियां डालकर डॉक्टर यह जानने की कोशिश करते हैं कि क्या पीड़िता शारीरिक संबंधों की आदी रही है। यानी महिला सेक्सुअली एक्टिव है या नहीं। ये हाथों से जांच की एक पुरानी प्रक्रिया है और इसका आधिकारिक मकसद सिर्फ़ ये साबित करना है कि बलात्कार की कथित घटना में 'पेनिट्रेशनहुआ या नहीं। आमतौर पर यह माना जाता है कि अगर हाइमन मौजूद होता है तो किसी भी तरह के शारीरिक संबंध ना होने का पता चलता है। वहीं अगर हाइमन को नुक़सान पहुंचा होता है तो उससे महिला के सेक्सुअली एक्टिव होने की पुष्टि होती है। लेकिन हाइमन टूटने की कई और वजहें भी हो सकती है।

निर्भया कांड के बाद देश में जब यौन हिंसा के लिए बने कानूनों पर बहस छिड़ीतो साल 2013 में टू-फिंगर टेस्ट पर रोक लगा दी गई। इसी साल लिलु बनाम हरियाणा राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि यह परीक्षण महिलाओं की निजताअखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है। यौन हिंसा के कानूनों की समीक्षा के लिए बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में किया था कि 'बलात्कार हुआ है या नहींये एक कानूनी पड़ताल हैमेडिकल आकलन नहीं।'

इसके बाद स्वास्थ्य मंत्रालय के 'डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ रिसर्चने साल 2014 में यौन हिंसा के पीड़ितों की फोरेंसिक जांच के लिए दिशा-निर्देश जारी किए और इनमें कहा गया कि टू-फिंगर टेस्ट अब से गैर-क़ानूनी होगा क्योंकि ये वैज्ञानिक तरीका नहीं है और इसे इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। ये तरीका मेडिकल लिहाज़ से बेकार है और औरतों के लिए अपमानजनक है।

 क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक सर्वोच्च अदालत का ये फ़ैसला साल 2004 के झारखंड नारंगी मामले से जुड़ा है। उस मामले में एक नाबालिग के बलात्कार और हत्या के आरोपों को झारखंड हाई कोर्ट ने खारिज़ करते हुए अभियुक्तों को रिहा कर दिया था। जबकि ट्रायल कोर्ट ने उन्हें दोषी ठहराया था। बरी होने के कारणों में से एक यह बताया गया था कि डॉ. मीनू मुखर्जी जिन्होंने पीड़िता का टू-फिंगर परीक्षण किया थाउन्होंने उसकी जांच के दौरान संभोग का कोई संकेत नहीं पाया क्योंकि परीक्षण के दौरान सर्वाइवर की योनि में दो उंगलियां आसानी से चली गई थीं।

अब सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाई कोर्ट के इसी फ़ैसले को पलटते हुए अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सर्वाइवर के चरित्र या किसी भी व्यक्ति के साथ उसके पिछले यौन अनुभव का सबूत सहमति के मुद्दे के लिए प्रासंगिक नहीं होगा। टू-फिंगर टेस्ट को अदालत ने पीड़ित को दोबारा प्रताड़ित करने जैसै बताया है।

फैसले के दौरान अदालत ने स्पष्ट तौर पर ज़ोर देकर कहा कि सच्चाई से आगे कुछ भी नहीं हो सकता है यह तय करने में कि क्या आरोपी ने उसका बलात्कार किया है और यहां एक महिला का यौन इतिहास पूरी तरह से महत्वहीन है। कई बार एक महिला पर विश्वास नहीं किया जाता है जब वह बताती है कि उसके साथ बलात्कार किया गया हैसिर्फ इसलिए कि वह यौन रूप से सक्रिय है। यह पितृसत्तात्मक और महिला-विरोधी मानसिकता है। अदालत ने यह भी कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 53 ए में कहा गया है कि किसी व्यक्ति के चरित्र या उसके पिछले यौन अनुभव का सबूत यौन अपराधों के अभियोजन में सहमति या सहमति की गुणवत्ता के मुद्दे के लिए प्रासंगिक नहीं होगा।

केंद्र और राज्य सरकारों को अदालत का दिशा-निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने टू फिंगर टेस्ट पर बैन लगाने के साथ-साथ यह फैसला सुनाया कि परीक्षण करने वाला कोई भी व्यक्ति कदाचार का दोषी होगा। न्यायालय ने केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी तीन दिशा-निर्देश जारी किए। न्यायालय ने कहा कि सरकारों को निर्देशित किया जाता है कि वो सुनिश्चित करें कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा तैयार दिशा-निर्देश सभी सरकारी और निजी अस्पतालों में परिचालित किए गए हैं। कोर्ट ने यौन उत्पीड़न और बलात्कार के सर्वाइवर्स की जांच करते समय अपनाई जानेवाली उचित प्रक्रिया के बारे में बताने के लिए हेल्थवर्कर्स के लिए वर्कशॉप्स आयोजित करने की बात कही। इसके अलावा अदालत ने मेडिकल स्कूलों के पाठ्यक्रम में टू-फिंगर टेस्ट को हटाने का आदेश भी दिया।

गौरतलब है कि बलात्कार किसी महिला या नाबालिग बच्ची के लिए किस कदर भयावह हो सकता हैइसकी कल्पना भी शायद हम और आप नहीं कर सकते। बलात्कारी तो एक बार महिला की अस्मिता पर हमला करता है लेकिन हमारी व्यवस्थाहमारा समाज उस महिला को बार-बार मानसिक प्रताड़ना का शिकार बनाता है। इसी मानसिक यातना का एक हिस्सा है दुष्कर्म पीड़िता का दो उंगलियों वाला परीक्षण यानी टू फिंगर टेस्टजिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन आज भी देश में कई डॉक्टर इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं।

यौन हिंसा के मामलों में परीक्षण के निष्कर्षों का दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए। केवल उन्हीं बातों का दस्तावेजीकरण किया जाना जो हमले की घटना के लिए प्रासंगिक हैं जैसे फ्रेश टीयर्सरक्तस्रावएडिमा आदि। इसके बावजूद गाहे-बगाहे यह परीक्षण आज भी बलात्कार सर्वाइवर्स पर किया जाता रहा है।

यौन हिंसा की शिकार पीड़िताओं ने सुप्रीम कोर्ट से लगाई थी गुहार

साल 2019 में यौन हिंसा की शिकार करीब 1500 पीड़िताओं और उनके परिजनों ने उच्चतम न्यायालय को एक पत्र लिखकर उन डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द करने की मांग की थीजो शीर्ष अदालत की पाबंदी के बावजूद 'शर्मिंदगी पूर्ण दो उंगलियों वाला परीक्षण करते हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का ये ताज़ा फैसला निश्चित तौर पर एक उम्मीद हैसही न्याय मिलने के लिए।

बहरहालहमारे समाज में आज भी यौन शोषण के मामलों में अपराधी की जगह पीड़िता ही प्रताड़ित हो जाती है। कई बार पीड़ित के चरित्र पर उंगली उठाई जाती हैंतो कई बार उसके मान-सम्मान को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। आज जरूरत है समाज को मानसिकता बदलने की। पीड़िता के पक्ष में खड़े होने कीजिससे उसे सामाजिक और मानसिक मजबूती मिल सकेवो अपनी न्याय की लड़ाई लड़ सके।

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