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यूपी चुनाव: प्रदेश में नहीं टिक सकी कोई भी मुस्लिम राजनीतिक पार्टी

आज़ादी के बाद से आज तक न जाने कितनी मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों ने उत्तर प्रदेश के चुनावों में हाथ आजमाया है, लेकिन जनता ने किसी को भी नहीं पसंद किया, अब ओवैसी इस इतिहास को बदल पाते हैं या नहीं, 10 मार्च को पता चलेगा।
यूपी चुनाव:  प्रदेश में नहीं टिक सकी कोई भी मुस्लिम राजनीतिक पार्टी

मुसलमान एक वोट बैंक की तरह एक पार्टी को वोट करता है ये उतना ही सच है जितना यह कि हिंदू एकजुट होकर एक पार्टी को वोट करता है! हिंदुओं की तरह मुस्लिम भी हमेशा अलग-अलग पार्टियों को वोट करता रहा है। ये इसी बात से साबित है कि जिसे हम मुस्लिम बहुल सीट कहते हैं उनपर भी गैर मुस्लिम बड़ी तादाद में जीतते रहे हैं।

ख़ैर जब कुछ दल ख़ासतौर पर भारतीय जनता पार्टी सुबह-शाम हिंदू-मुस्लिम करने में लगी है, ऐसे समय में हम गौर करेंगे कि उत्तर प्रदेश में कभी कोई मुस्लिम राजनीतिक पार्टी क्यों नहीं टिक सकी या पनप सकी। हालांकि यही इस बात की गवाही है कि कट्टरता का ठप्पा झेलने वाले मुसलमानों ने, यूपी में कभी धर्म के नाम पर किसी मुस्लिम पार्टी को नहीं चुना। उसकी पार्टी और लीडर हमेशा गैर मुस्लिम और ख़ासतौर पर धर्मनिरपेक्ष ही रहे हैं चाहे वो कांग्रेस रही हो, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाजवादी पार्टी। हेमवती नंदन बहुगुणा रहे हों, नारायण दत्त तिवारी, चौधऱी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव या मायावती या अब अखिलेश यादव। यहां तक कि यूपी में मुस्लिमों की बड़ी तादाद ने अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बीजेपी को भी चुना।

जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है, यही कारण है यहां की सियासत भी बहुत बड़ी है। यहां हर पांच साल में प्रदेश के लिए 403 विधायक चुने जाते हैं, तो देश के लिए 80 सांसद भी यहीं से चुनकर जाते हैं। प्रदेश की जनसंख्या आज 22 करोड़ से ज़्यादा है। इस जनसंख्या का करीब बीस फ़ीसद मुस्लिम आबादी होगी। जिसे आधार बनाकर ही योगी जी ने परोक्ष रूप से 80-20 का नारा उछाला है। कहा जाता है कि राज्य की करीब 143 सीटों पर मुसलमान अपना असर रखते हैं। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां 122 सीटें हैं। अभी जहां दूसरे दौर में 9 जिलों की 55 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुआ है वहां तो कहा जाता है कि मुसलमान वोटर्स ही नतीजा तय करते हैं। इसके बावजूद मुसलमानों के प्रति समर्पित कोई भी राजनीतिक पार्टी आज़ादी के बाद से आज तक प्रदेश में अपनी स्थाई जगह नहीं बना पाई है, और न ही किसी अन्य पार्टी ने ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार बनाए हैं।

सबसे पहले बात करते हैं “मुस्लिम मजलिस पार्टी” की...

डॉ. अब्दुल जलील फरीदी... आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों से लोहा लेने के बाद इन्होंने जगह-जगह सभाएं करनी शुरू कर दी, जागरुकता अभियान शुरू कर दिया। अपनी सभा में मुसलमानों की भीड़ उमड़ती देख फरीदी ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक में एक बड़े पद की मांग करने लगे, लेकिन ऐसा नहीं होने पर इन्होंने आज़ादी के 20 साल बाद आखिरकार ‘’मुस्लिम मजलिस’’ नाम की राजनीतिक पार्टी बना दी। जिसका मकसद फरीदी ने मुस्लिम बिरादरी को उनका हक दिलवाना बताया।   

पार्टी बनने के एक साल बाद यानी 1969 में विधानसभा चुनाव हुए, इन चुनावों में मुस्लिम मजलिस पार्टी ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा और दोनों पर ज़मानत ज़ब्त हो गई। दरअसल फरीदी की पार्टी को दोनों सीटों पर मिलाकर सिर्फ 4000 वोट मिले। साल 1974 में डॉ फरीदी की मौत हो गई और मुस्लिम मजलिस का भी अंत हो गया।  

इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग

डॉ. अब्दुल जलील फरीदी की मृत्यु के बाद गुलाम महमूद बनातवाला मुस्लिम नेता के तौर पर उभरने लगे थे, लेकिन इनका मकसद इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को रिचार्ज कर उसे अपने इशारों पर चलाना था। इन्होंने साल 1974 विधानसभा चुनावों में अपने 54 कैंडिडेट उतारे जिसमें 43 की तो ज़मानत ज़ब्त हो गई, बाकि एक सीट पर बेहद कम वोटों से जीत हासिल हुई। चुनावों में नीचे से दूसरे या तीसरे नंबर रहने से टूट चुकी पार्टी सन्नाटे में चली गई। लेकिन करीब 28 साल बाद गुलाम महमूद ने फिर दम भरा और 2002 विधानसभा चुनावों में उन्होंने 18 सीटों पर अपने कैंडिडेट उतार दिए, लेकिन एक पर भी उन्हें जीत हासिल नहीं हुई। रही-सही कसर 2007 के विधानसभा चुनाव में पूरी हो गई, यानी इस बार गुलाम महमूद ने 2 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। दोनों ही सीट हारने के बाद दुबारा ये उत्तर प्रदेश में कभी दिखे नहीं।

नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी

साल 1995 में जब भाजपा से समर्थन लेकर बसपा प्रमुख मायावती मुख्यमंत्री बनीं, तब डॉ मसूद अहमद शिक्षा मंत्री बनाए गए थे, जिसका कारण था मुसलमानों का बसपा को अथाह समर्थन। डॉ मसूद ने शिक्षामंत्री रहते हुए अल्पसंख्यकों के लिए काफी काम भी किया था, लेकिन किसी कारणवश उन्हें कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया गया, जिसके बाद अपनी बेज्जती का बदला लेने के लिए डॉ मसूद अहमद ने साल 2002 में नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी यानी नेलोपा बनाई।

खुद को मुसलमानों का नेता बताकर डॉ मसूद अहमद ने अपनी पार्टी के 130 उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे, लेकिन यूपी की जनता के मतों ने 126 सीटों पर नेलोपा की ज़मानत ज़ब्त करवा दी। जबकि सिर्फ एक सीट पर जीत मिली। हार से निराश डॉ मसूद ने साल 2007 में सिर्फ 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और सभी की ज़मानत ज़ब्त हो गई, जिसके बाद डॉ मसूद जयंत चौधरी की पार्टी रालोद में विलय हो गए।

यूपी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट

दिल्ली में मौजूद देश के मुसलमानों का सबसे बड़ा इबादत घर जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी ने भी यूपी की राजनीति में गोते लगाए हैं, हालांकि कोई सफलता नहीं मिली। साल 2007 में सैयद अहमद बुखारी ने अपनी यूपी डेमोक्रेटिक फ्रंट के 54 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था। सैयद अहमद बुखारी के 54 में से सिर्फ एक प्रत्याशी को जीत मिली जबकि 51 सीटों पर ज़मानत ज़ब्त हो गई। इस शर्मनाक हार के बाद अहमद बुखारी उत्तर प्रदेश से गायब हो गए।

पीस पार्टी

नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के उपाध्यक्ष रहे डॉ अय्यूब सर्जन ने साल 2008 में पीस पार्टी का गठन किया। डॉ अय्यूब ने राजनीति का एक अलग रास्ता अख्तियार किया और गांव-गांव जाकर मुसलमानों के मुद्दों को समझा। बारीकी से मुसलमानों को परखने के बाद साल 2012 के चुनाव में इन्होंने 208 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और सिर्फ 4 विधानसभा सीटें जीतीं। उम्मीदों से कम सीटें जीत पीस पार्टी ने साल 2017 में एक बार फिर दम भरा लेकिन इस बार खाता तक नहीं खुला।

अब बात AIMIM यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन की

मुसलमानों के लिए बनाई गई राजनीतिक पार्टियों में अब तक सबसे बड़ी और मशहूर AIMIM ही है, इस पार्टी ने साल 2017 में यूपी की 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन एक भी सीट पर जमानत नहीं बच सकी।

लेकिन अब साल 2022 में पार्टी के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी नई तैयारियों के साथ आए हैं, उन्होंने 403 सीटों में से 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। हालांकि ओवैसी के तेवर के हिसाब से पहले और दूसरे चरण में कामयाबी जरा कम दिख रही है, लेकिन वक्त अभी बाकी है, ऐसे में देखना होगा कि बाबू सिंह कुशवाहा की जन अधिकार पार्टी और भारत मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर ये कहां तक जा पाते हैं।

हालांकि सिर्फ़ पार्टी का सवाल नहीं है, सवाल यह है कि आज़ादी के आंदोलन में बराबर की भागीदारी रखने वाले मुसलमान अभी तक सबसे बड़े प्रदेश में अपना राजनीतिक अस्तित्व क्यों नहीं बना पाए हैं, इन राजनीतिक पार्टियों के अलावा भी अगर हम आज़ादी के बाद से प्रदेश में मुसलमान प्रतिनिधियों की संख्या पर नज़र डालें तो बेहद कम है..

आज़ादी से अभी तक चुने गए मुस्लिम विधायक

भले ही राजनीति में मुस्लिमों की भागीदारी को ज्यादा तरजीह न दी जाती हो, लेकिन मुसलमान वोटर को भी पूरा हक़ है कि वह अपनी मांगों को रखते हुए वोट करे।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक

· यूपी की 143 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटर का असर है।
· करीब 70 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20 से 30 प्रतिशत के बीच है।
· 43 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम आबादी 30 फीसदी से ज्यादा है।
· यूपी की 36 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम प्रत्याशी अपने बूते जीत हासिल कर सकते हैं।
· 107 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम जीत हार तय कर सकते हैं।
· मौजूदा विधानसभा में 23 मुस्लिम विधायक हैं, यह संख्या बीते 50 साल में सबसे कम है।  
 

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