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विशेष : भगत सिंह की पसंदीदा शायरी और उसका सच

ऐसे कई मशहूर शे'र हैं जो भगत सिंह के नाम से याद किए जाते हैं और उन्हीं के लिखे समझे जाते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। ये शे’र उस दौर के अलग-अलग मशहूर शायरों के हैं जो भगत सिंह को बहुत पसंद थे और वे अक्सर इन्हें दोहराते थे।
bhagat singh
अमर उजाला 'काव्य' का कविता पोस्टर। इससे भी यही लगता है कि यह शे'र भगत सिंह का है।

उसे यह फ़िक्र है हर दम नई तर्ज़े जफ़ा क्या है
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इंतिहा क्या है

 
कुँवर प्रतापचन्द्र 'आज़ाद' का ये शे’र शहीदे-आज़म भगत सिंह के प्रिय अशआर में से एक है। जिसे लोग उन्हीं के नाम से मंसूब करते हैं।

इसी तरह बृजनारायण 'चकबस्त' के मशहूर शे’र
 
रहेगी आबो-हवा में ख़याल की बिजली
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे

 
को भी भगत सिंह के नाम से ही कुछ इस तरह पढ़ा जाता है
 
हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे

 
और ये शे’र भी चकबस्त का बताया जाता है-
 
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें

 
इसे भी भगत सिंह के नाम से कोट किया जाता है।
 
इस तरह से कई शे’र हैं जो भगत सिंह के नाम से याद किए जाते हैं और उन्हीं के समझे जाते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। ये शे’र उस दौर के अलग-अलग मशहूर शायरों के हैं जो भगत सिंह को बहुत पसंद थे और वे अक्सर इन्हें दोहराते थे।
 
ये शे’र भगत सिंह ने लिखे हैं, ये कैसे समझा गया? शायद इसकी एक वजह भगत सिंह का अपने छोटे भाई को लिखा अंतिम पत्र है।


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23 मार्च 1931 को फांसी से पहले 3 मार्च 1931 को भगत सिंह ने लाहौर सेंट्रल जेल से अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को पत्र लिखा था। पत्र कुछ इस प्रकार था-
 
छोटे भाई कुलतार के नाम अन्तिम पत्र
सेंट्रल जेल, लाहौर,
3 मार्च, 1931
अज़ीज़ कुलतार,

आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।
बरखुरदार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख़याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!
 
उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-जफ़ा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इंतिहा क्या है।
 
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।
 
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।
 
हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे।

 
अच्छा रुख़सत। खुश रहो अहले-वतन; हम तो सफ़र करते हैं। हिम्मत से रहना। नमस्ते।
तुम्हारा भाई,
भगत सिंह

 
इस पत्र में जो शे’र दर्ज हैं वो बाद में उन्हीं के नाम से मशहूर हो गए।
इसमें एक शे’र तो शायर मोहम्मद इक़बाल का है-
 
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल
चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ

 
इक़बाल का ये शे’र भी भगत सिंह के चाहने वालों में भगत सिंह के नाम से ही दर्ज है।
 
दिलचस्प ये है कि इसी सबको किताबों और इंटरनेट पर ढूंढते समय पता चला कि उर्दू शायरी की मशहूर वेबसाइट ‘रेख़्ता’ पर उन्हें यह फ़िक्र है हर दम नई तर्ज़े जफ़ा क्या है...ये पूरी ग़ज़ल चकबस्त के नाम से दर्ज है। जबकि साहित्य अकादमी द्वारा आज़ादी की 50वीं सालगिरह पर 1998 में प्रकाशित ‘ज़ब्तशुदा नज़्में’ नाम की किताब इसे कुँवर प्रतापचन्द्र 'आज़ाद' की ग़ज़ल बताती है। पहले उर्दू में प्रकाशित इन ज़ब्तशुदा नज़्मों का संकलन ख़लिक अंजुम और मुज़्तबा हुसैन ने किया जबकि लिप्यंतर नूरनबी अब्बासी ने किया।


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वैसे उस दौर की तमाम नज़्मों और ग़ज़लों को लेकर इस तरह के भ्रम हैं। और कुछ भी दावे से कहना मुश्किल है। जैसे क्रांतिकारियों की प्रिय ग़ज़ल सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है... को हम सब क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की ग़ज़ल के तौर पर ही जानते हैं, लेकिन इसे लेकर भी कई अलग तरह के दावे हैं। इसकी एक वजह यह है कि उस समय के कई शायरों का तख़ल्लुस यानी कवि के तौर पर उपनाम ‘बिस्मिल’ मिलता है। इसी तरह एक शायर थे सुखदेव प्रसाद ‘बिस्मिल’ इलाहाबादी। वह कहते हैं-
 
शौक़े-दिल कहता है घबराने से कुछ हासिल नहीं
मंज़िले-उल्फ़त कोई दो चार सौ मंज़िल नहीं
 
फेर लूँगा मैं छुरी गर्दन पे अपने हाथ से
मरने वाले के लिए मरना कोई मुश्किल नहीं
 
लोग कहते हैं कि वो क़ातिल बड़ा बेदर्द है
उसको भी बिस्मिल न मैं कर दूँ तो मैं ‘बिस्मिल’ नहीं
                       
                     (तरान:-ए-आज़ाद)

 
चकबस्त भी एक जगह लिखते हैं-
 
नया बिस्मिल हूँ मैं वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से
बता दे तू ही ऐ ज़ालिम तड़पने की अदा क्या है

 
बिस्मिल का अर्थ है घायल और आज़ादी के दीवाने ये शायर वाक़ई घायल ही तो थे!
इसी तरह एक ही बहर और रदीफ़-क़ाफ़िये में भी कई शे’र मिलते हैं। शायद एक दूसरे से प्रेरणा लेकर शायरों ने ऐसे शे’र कहे हों, हालांकि उस समय तरही मुशायरे की भी रिवायत मिलती है। जिसमें एक बहर में रदीफ़-क़ाफ़िय़ा देकर शे’र कहे जाते हैं।
अब आपको बताता हूं, रहे रहे न रहे रदीफ़ पर भगत और चकबस्त के अलावा क्रांतिकारी अश्फ़ाक़उल्ला ख़ां ‘अश्फ़ाक़’ के नाम से भी ऐसा ही शे’र मिलता है-
 
वतन हमारा रहे शादकाम और आज़ाद
हमारा क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे

 
ऐसे ही कई मशहूर अश'आर के पुनर्पाठ को लेकर भी भ्रम हैं। जैसे-
 
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाक़ी निशां होगा

 
ये अश्फ़ाकउल्ला अश्फ़ाक़ का शे’र है। कहा जाता है कि यहां 'चिताओं' की जगह 'मज़ारों' है और शे’र कुछ यूं है-
 
शहीदों की मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाक़ी निशां होगा

 
ये बात कुछ समझ भी आती है क्योंकि चिताओं पर मेले नहीं लगते, बल्कि समाधि या मज़ार पर ही मेले लगते हैं। चिता तो जलती है और ख़त्म हो जाती है। इसलिए ये दावा सही हो सकता है कि दोहराते समय ये शे’र बदल गया।
 
ऐसे ही एक बहुत मशहूर गीत है ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’। इसके भी दो पाठ हैं; एक 1965 की हिन्दी फ़िल्म ‘शहीद’ का गीत है, जिसे गीतकार प्रेम धवन ने लिखा। यह फ़िल्म भी शहीद भगत सिंह पर आधारित है। बाद में इसके कई और संस्करण भी आए। लेकिन इसका मूल संस्करण जो सामने आता है वो 1927 का है। काकोरी केस के मुलज़िम रामदुलारे त्रिवेदी के अनुसार इस गीत का मूल रूप बंदियों ने जेल में तैयार किया था। ‘भारत दर्शन’ के मुताबिक़ इस गीत को मूल रूप से लिखा काकोरी कांड में जेल में बंद रामप्रसाद बिस्मल ने। और उनका साथ दिया अश्फ़ाक़उल्ला और अन्य साथियों ने। यह गीत मूल रूप से कुछ यूं था
 
मेरा रंग दे बसंती चोला
इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला
यही रंग हल्दी घाटी में था खुलकर खेला
नवबसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला
मेरा रंग दे बसंती चोला...

 
बाद में यह गीत भी ‘भगत सिंह का अंतिम गान’ शीर्षक से साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ के 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ।
 
इसके अलावा बहुत मशहूर शे’र और गीत-ग़ज़ल अज्ञात-अनाम मिलते हैं। यानी उनके कवि-शायर का नाम पता नहीं। इसकी एक वजह आज़ादी का वह दौर है जब अंग्रेज़ सरकार ऐसी हर रचना पर बेहद कड़ी नज़र रख रही थी जिससे उसे ज़रा भी ‘बग़ावत की बू’ आती थी। यानी जिस रचना में ज़रा भी देशप्रेम और आज़ादी की भावना होती थी वो बरतानिया हुकूमत के लिए ख़तरे का सबब बन जाती थी और वो न केवल रचना को ज़ब्त कर लेती थी, बल्कि रचनाकार को भी गिरफ़्तार कर लिया जाता था। शायद इसी वजह से बहुत रचनाएं अज्ञात रह गईं या कवि-शायरों की बजाय उन क्रांतिकारियों के नाम से मशहूर हो गईं जो उन्हें अक्सर गाया-दोहराया करते थे।
 
एक वजह ये भी है उस दौरान कवि-शायर के लिए अपने नाम से ज़्यादा महत्व की बात यह थी कि कैसे आज़ादी की बात आगे बढ़े। कैसे हर दिल में क्रांति की आग जले। इसलिए बहुत से कवि-शायर चुपचाप अनाम भी लिख रहे थे और उनकी रचनाएं लोक में प्रचलित होकर अंग्रेज़ सरकार को चुनौती दे रही थीं।
 
आइए पढ़ते हैं ये पूरी ग़ज़लें जो भगत सिंह के नाम से मंसूब हैं-
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हमें ये शौक़ है देखें सितम की इंतिहा क्या है
 
उन्हें ये फ़िक्र है हर दम नई तर्ज़-ए-जफ़ा क्या है
हमें ये शौक़ है देखें सितम की इंतिहा क्या है
 
गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता क्या है
 
ये रंग-ए-बे-कसी रंग-ए-जुनूँ बन जाएगा ग़ाफ़िल
समझ ले यास-ओ-हिरमाँ के मरज़ की इंतिहा क्या है
 
नया बिस्मिल हूँ मैं वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से
बता दे तू ही ऐ ज़ालिम तड़पने की अदा क्या है
 
चमकता है शहीदों का लहू पर्दे में क़ुदरत के
शफ़क़ का हुस्न क्या है शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना क्या है
 
उमीदें मिल गईं मिट्टी में दौर-ए-ज़ब्त-ए-आख़िर है
सदा-ए-ग़ैब बतला दे हमें हुक्म-ए-ख़ुदा क्या है
 

- कुँवर प्रतापचन्द्र आज़ाद...ज़ब्तशुदा नज़्में...पृष्ठ 44
(यह ग़ज़ल रेख़्ता पर बृज नारायण 'चकबस्त' के नाम से दर्ज है)
 
रहेगी आबो-हवा में ख़याल की बिजली
 
फ़ना नहीं है मुहब्बत के रंगो बू के लिए
बहार आलमे फ़ानी रहे रहे न रहे
 
जुनूने हुब्बे वतन का मज़ा शबाब में है
लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे
 
रहेगी आबो-हवा में ख़याल की बिजली
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी रहे रहे न रहे
 
जो दिल में ज़ख़्म लगे हैं वो ख़ुद पुकारेंगे
ज़बाँ की सैफ़ बयानी रहे रहे न रहे
 
मिटा रहा है ज़माना वतन के मन्दिर को
ये मर मिटों की निशानी रहे रहे न रहे
 
दिलों में आग लगे ये वफ़ा का जौहर है
ये जमा ख़र्च ज़बानी रहे रहे न रहे
 
जो माँगना हो अभी माँग लो वतन के लिए
ये आरज़ू की जवानी रहे रहे न रहे

 
-  बृज नारायण 'चकबस्त' (कविता कोश)
 
चिराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
 
तिरे इश्क़ की इंतहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख, क्या चाहता हूँ
 
सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ
 
वो जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आपका सामना चाहता हूँ
 
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल
चिराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
 
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ

 
-    इक़बाल (कविता कोश)
 
ख़ैर, ये सब कहने-लिखने का मक़सद ये बताना नहीं है कि भगत सिंह कविता नहीं लिखते थे, बल्कि इस बहाने भगत सिंह को फिर-फिर याद करना है और ये बताना है कि दरअसल इन शे’र के असल शायर कौन हैं। जो भगत सिंह के पसंदीदा थे। और जो हमारी भी दाद-ओ-तहसीन के हक़दार हैं।


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साथ ही ये भी बताना है कि भगत सिंह और उनके विचारों ने जाने कितने लोगों को कविता-शायरी की प्रेरणा दी। वाक़ई ‘ज़ब्तशुदा नज़्में’ पढ़ते हुए पता चलता है कि आज़ादी की लड़ाई के उस दौर में अगर सबसे ज़्यादा क्रांतिकारी कविताएं लिखी गईं तो वो भगत सिंह के नाम और काम पर थीं। भगत सिंह के विचार, उनकी हिम्मत-हौसले और कार्रवाई ने ऐसा असर किया कि वह तमाम कविता-कहानी के पहले पसंदीदा विषय बन गए। उस दौर के तमाम कवि-शायर उनका नाम ले-लेकर गीत-ग़ज़ल लिखने लगे। उस दौर की तमाम ग़ज़लों-नज़्मों में भगत सिंह और उनका एक्शन यानी एसेंबली बम कांड छाया हुआ है। देखते हैं एक नज़र-
 
कुँवर प्रतापचन्द्र ‘आज़ाद’ दीवाना भगत सिंह के नाम से लिखते हैं-
 
आज़ादी का दीवाना है मस्ताना भगत सिंह
बम केस में पकड़ा गया दीवाना भगत सिंह
 
भारत की एक शान है दीवाना भगत सिंह
हर बाग़ी का अरमान है दीवाना भगत सिंह
 
होती थी मीटिंग असेम्बली में जिस दम फेंका बम
इस केस में पकड़ा गया दीवाना भगत सिंह
 
देता था लाल पर्चा वो लाहौर के थानों में
हो जाओ होशियार- यह कहता था भगत सिंह

 
इसी तरह का स्वर ‘मैं धन्य हुई’ कविता में दिखता है-
 
मैं धन्य हुई ऐ लाल तेरी क़ुरबानी के हो जाने से
लाखों ही मुझको लाल मिले, बस तेरे ही खो जाने से
 
तेरी अस्थियों की माला मैं वक्षस्थल पर धारूँगी
चौरासी के चक्कर में भी तुझको नहीं बिसारूँगी
 
भस्मी तेरी से भाल शुद्ध कर, तन पर उसे संवारूंगी
ऐ मेरे अभिमन्यु, तुझे मैं चित से नहीं उतारूँगी

 
        (‘भगत सिंह की वीरता’ पुस्तक से)
 
और आख़िर में एक बार फिर भगत सिंह को सलाम करते हुए उसी दौर के एक अज्ञात शायर के हौसले और उम्मीद भरे ये दो शे’र-
 
हैं अभी तैयार मर-मिटने को मस्ताने बहुत
लिक्खे जाएंगे हमारे ख़ूँ से अफ़साने बहुत
 
उनकी क़ुरबानी कभी बेसूद जा सकती नहीं
सर कटाने आएंगे मक़्तल में दीवाने बहुत

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