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भारत में संस्थाएं ही फेल कर रही हैं बुद्धिजीवियों को 

‘देश में तेजी से बढ़ते ध्रुवीकरण एवं अनावश्यक शत्रुतापूर्ण माहौल में सार्वजनिक बुद्धिजीवी सत्ता से सच बोलने का प्रयास कर रहे हैं’, न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूड़ की यह हालिया टिप्पणी बहुत देर से आई और एक बेहद अल्प प्रतिक्रिया है-हालांकि यह ध्यान देने लायक और प्रासंगिक है, इसी विषय पर लिखती हैं-अंशु सलुजा।
भारत में संस्थाएं ही फेल कर रही हैं बुद्धिजीवियों को 

हमारी संस्थाओं की सत्यनिष्ठा में तेजी से होता क्षरण, असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जाना, और यहां तक कि असहमतियों से हद तक नफरत करना, असंतुष्टों का तत्परता से दमन कर देना, सटीक सूचनाओं को रोक लेना और इसके विपरीत, फर्जी खबरों का व्यापक रूप से प्रसार करना-ये आज के हमारे देश-समाज की बड़ी गंभीर समस्याएं हैं। हमारे सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को इस तेजी से बढ़ते प्रतिकूल वातावरण में उन मसलों के हल के लिए अपनी आवाज बुलंद करने में परेशानी हो रही है। 

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने छठे एम सी छागला स्मृति व्याख्यान में जर्मन के प्रख्यात दार्शनिक इमैनुएल कांट के बरअक्स अमेरिकी दार्शनिक नोम चोमस्की की बातों को रखते हुए कहा कि “राज्य-सत्ता से सवाल करना” एवं लोकतंत्र को सचारु रखने के लिए “राज्य-सत्ता एवं उसके विशेषज्ञों के असत्य” को उजागर करते रहना, सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का विशेष कर्तव्य है।

यह तो निश्चित है कि भारत में सार्वजनिक बुद्धिजीवियों ने तीखे सवाल पूछने एवं सत्ता से सच बोलने का अपना फर्ज निभाया है। लेकिन क्या न्यायपालिका समेत अन्य संस्थानों ने तथाकथित इन सार्वजनिक बुद्धिजीवियों के प्रति अपने कर्तव्यों का निबाह किया है? क्या उन्होंने ताकतवर लोगों से इनके टकराव मोल लेने एवं धारा के विरुद्ध चलने के लिए एक आवश्यक समर्थन प्रणाली की पेशकश की है, जो कि ऐसे मामलों में अहम है?

अब यहां इस समर्थन प्रणाली के घटकों के बारे में पूछा जा सकता है। तो यकीनन, इसमें सबसे पहला यह आश्वासन शामिल है कि आप सुरक्षित रहेंगे, चाहे आप किसी से सवाल करें या फिर उनका विरोध करें। दूसरा, उनके साथ संबद्ध होने, उनसे जुड़ने की इच्छा रखना और सच को स्वीकार करना, चाहे वह स्वीकार्य हो अथवा कितने भी असुविधाजनक क्यों न हो। इन चीजों को न कर पाने की विफलता ने दुरुपयोग, दमन एवं उत्पीड़न के लिए सारा मैदान खुला छोड़ दिया है। निश्चित ही यह स्थिति लोगों में डर पैदा करती है और सच में, उसने अपने खास उपायों के जरिए ऐसा किया भी है। 

बढ़ता खौफ 

निकट अतीत में, उच्च शिक्षण की हमारी कई सार्वजनिक संस्थाएं, जिनमें हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे संस्थान तक शामिल हैं, वे अपने छात्रों के बड़े-बड़े प्रदर्शनों के स्थल बन कर उभरे हैं, जिनके स्वरों को अनर्गल तरीके शक्तिशाली हो गए एवं सवालों को बर्दाश्त न करने वाले विश्वविद्यालय-प्रशासनों ने दबा दिया है-कभी-कभी तो राज्य समर्थित अधिकारियों के हिंसक प्रतिरोध द्वारा भी उनकी आवाजों को घोंट दिया गया है। यहां तक कि बड़े-बड़े निजी विश्वविद्यालय, जो स्पष्ट रूप से आइवी लीग संस्थानों की तरह अपने लिए एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बनाने की मांग कर रहे हैं, वे भी असहिष्णुता की तेज होती आंच में झुलस गए हैं। जबकि यह उम्मीद की जाती थी कि निजी विश्वविद्यालय निजी पूंजी के बल पर अपना बचाव कर सकते हैं और जारी रह सकते हैं। यह भी उम्मीद की जाती थी कि निजी पूंजी की ताकत पर बने येनिजी विश्वविद्यालय एक तैयार स्थानों के रूप में अपनी बेहतर सेवाएं दे सकते हैं, जहां वे बौद्धिक पूछताछ की स्वतंत्र भावना की रक्षा कर सकते हैं, और उन्हें जारी रख सकते हैं। हालांकि ऐसी उम्मीदें अब बेबुनियाद साबित हो रही हैं।

देश के बौद्धिक, जो बड़े मेट्रोपॉलिटन केंद्रों के प्रलोभनों से बहुत दूर रह कर सरजमीनी स्तर पर अथक परिश्रम कर रहे हैं, उनकी नियति पर अधिक खतरा है। यह विडम्बना है कि जमीनी स्तर पर संलग्नता का विचार पर उत्तेजक नारों एवं चमकदार विज्ञापनों का दखल हो गया है, जिसे लगातार कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के एक हिस्से के रूप में अवधारणाबद्ध किया गया है। लेकिन विभिन्न स्थानीय संदर्भों में कमजोर समूहों को प्रभावित करने वाले जमीनी स्तर की चिंताओं के साथ सार्वजनिक बुद्धिजीवियों की भागीदारी राज्य की तरफ से वैसी ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया पाने में विफल रही है। 

राज्य प्रशासन अपनी तरफ से इस आसन्न संकट को दबाने, उनके नेताओं एवं प्रतिभागियों का दमन करने में अपनी सभी शक्ति का इस्तेमाल करता है। लेकिन इस दमनकारी मुहिम के प्रति हमारी संस्थाओं, खास कर, न्यायपालिका के व्यापक हिस्से की हालिया प्रतिक्रिया एकदम निराशाजनक रही है, इतना तो कम से कहा ही जा सकता है। 

यह बात तेजी से सच होती जा रही है कि राज्य-सत्ता से असहमति-असंतोष जताने वाले अकादमिकों एवं कार्यकर्ताओं का निबटना कभी आसान नहीं रहा है। वे हमेशा से ही अपनी आवाजों के लिए एक जगह बनाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, उनका यह रास्ता अधिक कंटीला, संघर्षमय और कठिन होता गया है, क्योंकि उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स की सेना से मुकाबला बढ़ गया है, टीवी चैनलों पर प्राइम टाइम में निंदा-अभियान बढ़ गया है, और इन सबसे बुरा तो यह हुआ है कि उन्हें आपराधिक मामले में जेल भेजा जाने लगा है, जो एक लंबे समय तक चलने वाली कानूनी लड़ाई की तरफ ले जाता है, जिसकी सुनवाई शुरू होने और उस पर फैसला आने में, दोनों ही प्रक्रियाओं में सालों साल लग जाते हैं। कई मामलों में यह तय प्रक्रिया किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले उस बद्धिजीवी की असमायिक मृत्यु के साथ ही खत्म होती है। 

“अधिक सतर्क”, “पारदर्शी” और “अन्य लोगों के विचारों को खुले तौर पर स्वीकार करने” के लिए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की चेतावनी के आने में शायद बहुत देर हो गई है। वर्तमान माहौल में केवल चेतावनी देने वाले संदेश पर्याप्त नहीं होने वाले हैं। इन संदेशों के साथ हमारे संस्थानों, जिनमें न्यापालिका सबसे अग्रणी है, उनकी ओर से भी मजबूत संकेत देने होंगे और इसके लिए तत्काल सुधारात्मक उपाय भी अमल में लाने होंगे। 

संस्थागत साख को बचाना

सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा विभिन्न संस्थाओं में जारी क्षरणों के बारे में हमें  सचेत करने के लिए खतरे की घंटी लगातार बजाता रहेगा। लेकिन अंतिम विश्लेषण में, बात यहीं आकर टिकती है कि इन संस्थाओं में तेजी से हो रहे क्षरण को बचाने का सारा दारोमदार उन्हीं संस्थाओं के कंधे पर है, जिनमें नौकरशाही, न्यायपालिका, लोकप्रिय या मुख्यधारा का मीडिया जैसी कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण संस्थाएं शामिल हैं। ये वे संस्थाएं हैं, जिन्हें अपने घरों को ठीक करने के लिए पूरी लगन से लगना होगा। उन्हें धारणात्मक एवं वस्तुगत दोनों ही संदर्भो में, अपनी सिकुड़ती गई जगहों पर फिर से अपना दावा जताना होगा। 

लेकिन मरम्मत के इन कामों को शुरू करने और भवन-निर्माण किए जाने के पहले, उन्हें अपने हुए नुकसान का साफ-साफ अंदाजा अवश्य लगा लेना चाहिए। आत्मनिरीक्षण और स्वीकार का भाव उसी के भीतर से ही आना है। उसे आवश्यक रूप से मौलिक सुधार करने के मकसद से ठोस उपायों के साथ किया जाना चाहिए। 

विरोधियों के बीच संतुलन खोजने की क्षमता एक लाभ दिलाने वाली योग्यता है, लेकिन केवल अपने हित में संतुलन बनाने की इस कला को हमें त्यागना होगा। हमें बिना लाग लपेट के सच कहना होगा, और सच को स्वीकार करना होगा, भले ही यह हमारी सबसे अधिक पोषित धारणाओं से मुठभेड़ क्यों न करता हो। उदाहरण के लिए, हमें नफरत फैलाने वाले या धमकी वाले वक्तव्य एवं भाषण को पहचानना होगा, बिना इस दबाव में आए कि इसको किसने दिया है, संस्थाओं की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर हो रहीं फिसलनों को रोकना होगा तथा भ्रामक सूचनाओं का प्रतिकार करना होगा। यह करते हुए, हमें सभी स्तरों पर जवाबदेही निभाए जाने की मांग के लिए कड़ी मेहनत भी जारी रखनी होगी। 

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने व्याख्यान में “उत्तर-सत्य वाले विश्व” में रहने की चुनौतियों का जिक्र किया, जिसमें “हमारे सच” बनाम “तुम्हारे सच” के बीच लड़ाई मची हुई है, और यह भी कहा कि “लोकतंत्र एवं सच दोनों जुड़े हुए हैं। लोकतंत्र की निरंतरता के लिए सच की ताकत की जरूरत है।“ अपने व्याख्यान के अंत में, न्यायमूर्ति का सुझाव था कि “सच को झूठ से अलगाना” कठिन है और यह नागरिकों की जिम्मेदारी है कि वे सच को सुनिश्चित करने के लिए राज्य-सत्ता से सवाल पूछें। उनके व्याख्यान के ये कुछ अमूल्य सबक हैं, जिनका हमारी संस्थाओं को अनुसरण करना चाहिए एवं उन्हें लागू करना चाहिए। 

(अंशु सलुजा एक स्वंतत्र शोधार्थी एवं लेखिका हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

पहली बार लीफ्लेट में प्रकाशित 

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Intellectuals are Being Failed by Institutions in India

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