बेलगाम बुलडोज़र: इस तरह के विध्वंस पर अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय क़ानून क्या कहता है?

नागरिकों की निजी सम्पत्तियों पर सरकार ने बुलडोज़र चला कर न केवल संयुक्त राष्ट्र, यूडीएचआर, आईसीईएससीआर, जिनेवा कन्वेंशन में निर्धारित दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया, बल्कि ऐसा करके उसने रुल ऑफ़ लॉ और कंस्टीटूशनल आर्डर की भी अवहेलना की।
हाल के समय में घटित हो रही घटनाएं भारतीय राजनीति और देश के लोकतंत्र के लिए चिंताजनक हैं। भारतीय राजनीति में न्याय व्यवस्था के इस्तेमाल के बजाय "बुलडोज़र व्यवस्था" का इस्तेमाल हो रहा है। "बुलडोज़र व्यवस्था" के सामने ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे न्यायलय मूकदर्शक बन कर बैठे हों। दरअसल पिछले महीने देश की राजधानी दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हनुमान जयंती की शोभा यात्रा के दौरान दो समुदायों के बीच दंगा हो गया था। दंगे के अगले ही दिन भाजपा शासित उत्तरी दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) द्वारा तथाकथित आरोपित "दंगाइयों" के दुकानों और मकानों को ज़मींदोज़ कर दिया गया।
एनडीएमसी ने इसे सामान्य घटना बताते हुए असैंवधानिक रुप से बने दुकानों और मकानों को तोड़ने की प्रक्रिया बताया। हालाँकि विध्वंस करने के समय और जगह को देखकर इस कार्रवाई पर कोई भी सवाल उठा सकता है। जहांगीरपुरी में हुए विध्वंस के अलावा भी देश के और भी कई हिस्सों में इसी "बुलडोज़र व्यवस्था" का पालन किया गया। इन तमाम विध्वंस अभियानों के पीछे की मंशा बहरहाल जो भी हो लेकिन इसका अनुसरण करने के क्रम में बीजेपी शासित सरकारों द्वारा न केवल देश के कानूनों को ताक पर रख दिया गया बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की भी धज्जिया उड़ाई गई, जिसका पालन करने के लिए भारत बाध्य है।
यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स (यूडीएचआर)-1948 का अनुच्छेद 25 कहता है कि "हर किसी को अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए पर्याप्त जीवन स्तर का अधिकार है, जिसमें भोजन, कपड़े, आवास, चिकित्सा देखभाल और आवश्यक सामाजिक सेवाएं शामिल हैं।" वहीं राइट टू हाउसिंग का अधिकार अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून ढांचे के तहत स्पष्ट तौर पर प्रलेखित अधिकार है। इसके अलावा यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मान्यता प्राप्त एक मौलिक अधिकार भी है। कथित आरोपित "दंगाइयों" के घरो और दुकानों को बुलडोज़ कर सरकार ने इन तमाम कानूनों को नज़रअंदाज़ किया, जिसका पालन करने के लिए भारत बाध्यकारी है।
कथित “दंगाइयों” के घरों और मकानों को किसी भी सरकार द्वारा बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के पालन के ज़मींदोज़ करना न केवल "जबरन बेदखली" है बल्कि उनके साथ "मनमाना हस्तक्षेप" भी है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय करार (आईसीईएससीआर) का अनुच्छेद 11.1 कहता है कि हर किसी को "पर्याप्त भोजन, कपड़े और आवास सहित अपने और अपने परिवार के लिए पर्याप्त जीवन स्तर तथा इसमें निरंतर सुधार जैसे अधिकारों की मान्यता है।" इस अनुच्छेद के तहत, देश इन अधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए "उचित कदम" उठाने के लिए बाध्य है।
आईसीईएससीआर के तहत जितने भी मान्यता प्राप्त अधिकार हैं, उन्हें राज्यों द्वारा केवल तभी प्रतिबंधित किया जा सकता है जब राज्य का मकसद समाज के सामान्य कल्याण को बढ़ावा देना हो। लेकिन मध्य प्रदेश, गुजरात या दिल्ली में हुई कार्रवाई से तो यह कहीं से भी ज़ाहिर नहीं होता है कि सरकार ने किसी कल्याण के लिए यह कार्रवाई की है। ऐसा कर सरकार ने आईसीईएससीआर के अनुच्छेद 11.1 का साफ़ तौर पर उल्लंघन किया है।
जिस दंड को युद्धबंदियों के ऊपर भी कोई देश लागू नहीं कर सकती वह बीजेपी की सरकार, देश में रहने वाले नागरिकों के ऊपर लागू कर रही है। कलेक्टिव पनिशमेंट यानी की सामूहिक दंड का विचार, 1949 के जिनेवा कन्वेंशन सहित कई अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों के तहत निषिद्ध है। जिसका पालन करने के लिए भारत देश भी बाध्यकारी है। अगर आप या कोई भी व्यक्ति यह समझ रहा है कि भारतीय जनता पार्टी का मकसद डेमोलिशन ड्राइव के ज़रिये आरोपित “दंगाइयों” को सबक सिखाना था तो ऐसा कतई नहीं है। पिछले समय में चलाए गए डेमोलिशन ड्राइव को देखकर कोई भी व्यक्ति यह अंदाज़ा आसानी से लगा सकता है कि यह तमाम डेमोलिशन ड्राइव एकपक्षीय, सांप्रदायिक और घृणा से प्रेरित थी। इसका अहम मकसद “कलेक्टिव पनिशमेंट” देकर अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम समुदाय के बीच एक डर को पैदा करना था। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि "अगर मुसलमान इस तरह के हमले करते हैं, तो उन्हें न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए"। उनके द्वारा दिया गया यह बयान देखकर तो साफ तौर पर यही प्रतीत होता है कि वह इस "बुलडोज़र व्यवस्था" की मदद से सामूहिक दंड की धारणा को आगे बढ़ा रहे हैं।
बुलडोज़र व्यवस्था के इस्तेमाल से सरकार ने न केवल मनमाने ढंग से लोगों के सम्पत्तियों को ज़मींदोज़ किया बल्कि व्यक्तियों को मिले न्यायिक अधिकार में भी बाधा डाली। यूडीएचआर के अनुच्छेद 12 में कहा गया है कि "किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी गोपनीयता, उसके परिवार और उसके घर के साथ मनमाने ढंग से हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, और न ही उसके सम्मान और प्रतिष्ठा पर हमला किया जाएगा"। अनुच्छेद 12 यह भी निर्धारित करता है कि "हर किसी को इस तरह के हस्तक्षेप या हमलों के खिलाफ कानून के संरक्षण का अधिकार है"। नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय करार (आइसीसीपीआर) के अनुच्छेद 17 के तहत भी तमाम व्यक्तियों को यही अधिकार प्रदान किए गए हैं। भारतीय संविधान में भी संपत्ति के अधिकार को संवैधानिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है।
सरकार द्वारा चलाई जा रही विध्वंस नीति ने न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों को दरकिनार किया बल्कि राष्ट्रीय कानूनों का भी उपहास उड़ाया। दिल्ली नगरपालिका अधिनियम-1957 और दिल्ली विकास अधिनियम-1957 खुद यह साफ़-साफ़ कहता है कि कॉलोनी की कानूनी स्थिति जैसी भी हो कोई भी सरकारी अधिकारी वहां मौजूद घर को नोटिस भेजे बिना उसे ध्वस्त नहीं कर सकता है। यह नियम कहता है कि किसी भी घर को या दुकान को विध्वंस करने के लिए कोई आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि प्रभावित व्यक्ति को "कारण बताने का एक उचित अवसर" का नोटिस नहीं दिया गया हो। और जहां विध्वंस की कार्रवाई हुई है वहां किसी के पास भी उचित नोटिस नहीं भेजा गया था जो अपने आप में कई सारे सवाल खड़े करता है।
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह साफ़ तौर पर स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी प्राधिकरण ‘बिना नोटिस दिए’ और ‘कब्जा करने वालों को सुनवाई का अवसर दिए बिना’, अवैध निर्माणों का सीधे तौर पर विध्वंस नहीं कर सकता है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और दिल्ली में हुए विध्वंसो में नोटिस की आवश्यकता का पालन किए बिना ही वहां की सरकारों ने विध्वंस अभियान को अंजाम तक पहुंचाया। इस प्रकार यह कार्रवाई प्रथम दृष्टया प्रभावित व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा निर्देशों का उल्लंघन भी करता है।
भारतीय सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फ़ैसलों के माध्यम से बार-बार कहा है कि अगर किसी भी कारणवश लोगों को सरकार उनके घर से बेदखल करती है तो इसके लिए तमाम क़ानूनी रास्तों का पालन करना आवश्यक है। इस बात का ज़िक्र यूएन चार्टर में भी है। सर्वोच्च न्यायलय का साफ़ आदेश है की कोई भी प्राधिकारी बिना क़ानूनी प्रक्रिया का पालन किए किसी के घर को नहीं तोड़ सकता है। अजय माकन बनाम भारतीय संघ के 2014 में दिए फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने अंतरराष्ट्रीय कानून का सहारा लेते हुए फैसला सुनाया था और कहा था कि हर व्यक्ति को "पर्याप्त आवास" है और साथ ही "राइट टू द सिटी" का अधिकार है।
भाजपा शासित प्रदेशों की सरकारें न केवल मकानों और दुकानों पर बुलडोज़र चला रही है बल्कि वह "कानून का शासन" यानी की रूल ऑफ़ लॉ और "संवैधानिक व्यवस्था" यानी की कंस्टीटूशनल आर्डर पर बुलडोज़र चला रही है। दंगे में शामिल आरोपित “दंगाइयों" को न्यायिक प्रक्रिया से गुज़रे बिना सजा देना किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सभ्य नहीं माना जाता है। बिना न्यायिक प्रक्रिया का पालन किए किसी की भी संपत्ति को बुलडोज़ कर देना "त्वरित न्याय" की श्रेणी में आता है, और यह प्रक्रिया हर तरफ से निंदा की पात्र है।
दरअसल यह “त्वरित न्याय” देने की जो प्रक्रिया है वह किसी भी लोकतान्त्रिक और सभ्य समाज के लिए उचित नहीं है। बीते समय में इस व्यवस्था का प्रयोग व्यापक स्तर पर देखने को मिल रहा है चाहे वह मध्यप्रदेश हो या गुजरात या दिल्ली, सब जगह न्यायिक प्रक्रिया का पालन करने के बजाए बीजेपी सरकार "बुलडोज़र व्यवस्था" पर विश्वास कर रही है। इस "बुलडोज़र व्यवस्था" का इस्तेमाल कर एक तरफ सरकार एक वर्ग को "खुश" करना चाहती है। वहीं दूसरी तरफ इस व्यवस्था के इस्तेमाल से मुस्लिम समुदाय के अंदर एक डर को पैदा करना चाहती है, ताकि वोट बैंक की राजनीति जारी रहे, भले ही इस कारण देश की सद्भावना व भाईचारे के ऊपर बुलडोज़र क्यों न चल जाए!
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