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उत्तराखंड के राजाजी नेशनल पार्क में वन गुर्जर महिलाओं के 'अधिकार' और उनकी नुमाइंदगी की जांच-पड़ताल

वन गुर्जर समुदाय के व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार के आलोक में समुदाय की महिलाओं के अधिकार
Van Gujjar community
Image courtesy : The Better India

निजी और सामुदायिक वन अधिकारों को हासिल करने वाले वन गुर्जर समुदाय की रौशनी में सरकार और उनके अपने समुदाय, दोनों के भीतर कई स्तरों पर प्रचलति लिंगगत व्यवहार के प्रतिरोध का सामना करते हुए अपने वन अधिकारों पर ज़ोर देकर इस समुदाय की महिलाओं की ओर से नुमाइंदगी के रुख़ पर जो कुछ कहा गया है, इस आलेख में प्रणव मेनन और तुइशा सरकार उसी की व्याख्या की है।

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"अगर कोई बोलते के बच्चे है यहा और भैसे है तो डंडा चला देते थे। "यानी अगर हमने उन्हें (वन रेंजरों को) बता दिया कि यहां बच्चे और भैंस हैं, तो वे हमें डंडों से पीट डालेंगे।  

कुनाऊं चौर, गोहरी रेंज की एक वन गुर्जर महिला, 32 वर्षीय फ़ातिमा का यह बयान राज्य के वन विभाग की ओर से अंजाम दिये गये उस हिंसक कांड की पृष्ठभूमि में दिया गया है, जिसमें उनके परिवार को बेदखल करने की कोशिश की गयी थी। तक़रीबन 70 डेरों वाला यह गांव परंपरागत रूप से वन गुर्जरों का शीतकालीन आवास राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के बीचो-बीच स्थित है। वन गुर्जरों को इस प्राकृतिक छटा वाले स्थल से बेदखल करना और फिर से ख़ुद को बसाने की यह कोशिश इस विभाग की बारहों महीने चलने वाली एक ऐसी परियोजना रही है, जिसे नवंबर 2017 में इस बस्ती में रहने वालों और ख़ासकर महिलाओं ने रोक दिया था। इस घटना की पृष्ठभूमि में इस लेख में यह पता लगाने की कोशिश की गयी है कि कैसे अनगिनत वन क़ानूनों के तहत अधिकार आधारित नज़रिया महिलाओं की वन भूमि तक पहुंच बनाने और जंगलों के भीतर उनके वजूद के सिलसिले में बातचीत करने को लेकर उनकी नुमाइंदगी को शामिल करने में विफल रहा है।

जंगलों के भीतर सार्थक सह-अस्तित्व को लेकर संघर्ष और चराई की भूमि तक पहुंच बनाने की परंपराओं से मिले अधिकारों का दावागर्मियों वाले आवास क्षेत्र में पेड़ों की शाखाओं की कटाई और प्रवासन आज इन खानाबदोश चरवाहों के लिए तेज़ी से मुश्किल होता जा रहा है। वन विभाग ने मानव हस्तक्षेप से वन्यजीवों के लिए ऐसी जगहों को 'किसी तरह के अतिक्रमण से मुक्त क्षेत्र' बनाने की अपनी कोशिश के सिलसिले में इन संरक्षित क्षेत्रों के भीतर पूरी तरह चाकचौबंद संरक्षण के तर्क को मज़बूती दी है। अतीत में हुए ऐतिहासिक अन्याय और अधिकारों से वंचित किये जाने के दर्द को हल्का करने की कोशिश करने वाले अनुसूचित जनजाति और दूसरे पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (आगे चलकर हम इसे एफ़आरए कहेंगे) के अधिनियमित होने के बावजूद, वन गुर्जर अभी भी समय-समय पर वन विभाग की ओर से जारी किये गये अतिक्रमण के नोटिस और बेदखली के फ़रमान जैसे ख़तरों से दो-चार होते रहते हैं।

जहां वन गुर्जरों और ख़ासकर वन गुर्जर आदिवासी युवा संघठन (आगे चलकर हम इसे संघठन कहेंगे) के ज़रिये ज़मीन के दावों को दर्ज किया जाने को लेकर ईमानदारी से कोशिशें की जा रही हैं, वहीं इस बात का विश्लेषण करना बेहद ज़रूरी है कि इन अधिकारों को सक्षम बनाने के लिहाज़ से यह संघर्ष स्वामित्व और संपत्ति के दावों से आगे बढ़ पा रहा है या नहीं, ताकि प्रवासन मार्गों और वनों के भीतर इस्तेमाल होने वाले अधिकारों के दावों के साथ दोनों इलाक़ों में चराई भूमि पर उनके कब्ज़े और ज़्यादा से ज़्यादा उनकी पहुंच को सुनिश्चित किया जा सके।

हम वन गुर्जर महिलाओं के बीच भू-धारण की ऐसी स्पष्ट धारणाओं का पता लगाना चाहते थे कि हम वन गुर्जर महिलाओं के बीच भूमि स्वामित्व की ऐसी ज्वलंत अवधारणाओं से यह जांच-पड़ताल की जा सके कि पारंपरिक घरेलू इस्तेमाल के सिलसिले में वन भूमि तक स्वतंत्र रूप से उनकी सुलभता और अपने पशुओं को चराने की उनकी क्षमता वन विभाग की संरक्षण की इन नीतियों से बाधित है या नहीं। हम इस बात को भी सामने लाने के इच्छुक हैं कि जहां एफ़आरए ने वन अधिकार समितियों में प्रतिनिधित्व के ज़रिये महिला वनवासियों की ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी बढ़ाये जाने की कोशिश की है, वहीं वन गुर्जर महिलाओं के इन अधिकारों को असरदार तरीक़े से ज़मीन पर उतारने के लिहाज़ से इस समुदाय के साथ-साथ मर्दवादी सरकारी मशीनरी दोनों की ओर से बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है या नहीं। इस बात का पता लगाना बेहद ज़रूरी है कि ये महिलायें वन विभाग की ओर से लागू 'क़ानून के अनुपालन' करते समय उस एजेंसी को किस तरह देखती हैं, जो उन्हें बाहरी लगती हैं और क्या वन गुर्जरों के बीच क़ानूनी बहुलवाद को विकसित करने को लेकर इस संघठन के ज़रिये कोई ऐसा क़दम उठाया जा सकता है, जो ज़मीन, पुनर्वास, वन अधिकारों या समुदाय के विकास के मुद्दों पर फ़ैसले लेने के दौरान इन महिलाओं के उन मुद्दों पर ज़्यादा से ज़्यादा दावे को मान्यता देता हो। इस तरह की जांच-पड़ताल से वन गुर्जर महिलाओं की इन वानिकी नीतियों को लेकर होने वाली बातचीत में न्यायसंगत हितधारकों के रूप में नुमाइंदगी का निर्धारण करने में काफ़ी मदद मिलेगी।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत वन गुर्जर महिलाओं की गुम होती 'भागीदारी'

न्यायसंगत और सकारात्मक संरक्षण परिणामों को सुलभ बनाने के लिहाज़ से इन वनवासियों और ख़ास तौर पर महिलाओं की इस भूमिका को अच्छी तरह से स्वीकार की जाती है। अर्थशास्त्री बीना अग्रवाल ने पहले ही इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि वन प्रबंधन भूमिकाओं में महिलाओं को शामिल करने से न सिर्फ़ वन भूमि के संरक्षण की दिशा में ज़्यादा भागीदारी बढ़ी हैं, बल्कि स्वामित्व के दावों के साथ-साथ जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र विनियमन को लेकर जानकारी के प्रवाह में भी इज़ाफ़ा हुआ है। यह महिलाओं को अपने मौजूदा पारंपरिक ज्ञान और संरक्षित किये जाने की परंपराओं को बिना किसी अवरोध के स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करने की इजाज़त देता है और स्थायी भूमि प्रबंधन योजनाओं को विकसित करने में सक्षम बनाता है।

इस एफ़आरए का मक़सद वन गुर्जर महिलाओं को पारंपरिक प्रचलति भूमि उपयोगों के वैध दावे के ज़रिये जंगलों के भीतर उनकी सुरक्षा को बढ़ाकर संरक्षण गतिविधियों में शामिल करना था और उन्हें बेदख़ली के ख़तरों से बचाना था। इस अधिनियम की धारा 4(5) में कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत अधिकारों की मान्यता पूरी होने तक कोई बेदख़ली नहीं की जा सकती है, लेकिन इसके बावजूद वन विभाग उनकी मौजूदगी को अतिक्रमण के रूप में जारी रखते हुए वन गुर्जरों पर लागू एफ़आरए को मान्यता देने का इच्छुक नहीं दिखता है।

एफ़आरए ने वन अधिकार समितियों (आगे हम इसकी जगह एफ़आरसी का इस्तेमाल करेंगे) में महिलाओं के एक तिहाई प्रतिनिधित्व को अनिवार्य किया था और उन ग्राम सभाओं के भीतर महिलाओं को प्रमुख भागीदार बनाया था, जो कि इन दावों की आख़िरी स्थिति के साथ-साथ संरक्षण और विकास के मुद्दों पर फ़ैसले लेती हैं। हालांकि, जैसा कि कई खानाबदोश चरवाहों के मामले में  इस बात पर ज़ोर दिए बिना कि क्या वे स्वतंत्र रूप से और बिना किसी अवरोध के जंगलों तक पहुंच रख सकते हैं या नहीं, इन समुदायों के भीतर महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ सांकेतिक ही है। कुनाऊं चौर में एफ़आरसी की एक सदस्य मरियम को जंगलों के बारे में उनकी जागरूकता को लेकर विधिपूर्वक चुना गया था, फिर भी वनों के भीतर महिलाओं की ओर से सामना की जाने वाली चिंताओं को दूर करने के लिहाज़ से यह नुमाइंदगी अक्सर उन्हें नहीं ही मिली है।

इसके अलावा, जहां संघठन ने एक एफ़आरसी गठित किये जाने और भूमि दावों को दाखिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, वहीं वनों के सामुदायिक स्वामित्व को एक साझा पूल संसाधन के रूप में मान्यता देने के लिए अभी तक कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। जैसा कि मानवविज्ञानी और पर्यावरण वैज्ञानिक पूरबी बोस कहती हैं कि पारंपरिक और एक से ज़्यादा उपयोग करने वाले स्वामित्व सुधार के बजाय व्यक्तिगत वन अधिकारों की प्राथमिकता ने एफ़आरए के लागू किये जाने के सिलसिले में मान्यता दे दी है, समुदाय के भीतर लिंग विषमता को फैलाया है, क्योंकि परंपरा से चले आ रहे ज़मीन के इस्तेमाल को निजी संपत्ति की धारणा की ओर ले जाया जाता है। स्वामित्व की ऐसी अवधारणा, जो इस बात को नकारती है कि बतौर 'अधिकार' यह एक ऐसा अधिकार है, जो वन भूमि तक पहुंच बनाने वाले निजी अधिकारों की मान्यता से कहीं ज़्यादा मायने रखती है, यह एक ऐसी गुंज़ाइश है, जहां महिलायें बिना किसी आशंका के अपने श्रम को स्वतंत्र रूप से अंजाम दे सकती हैं, यह धारणा इस बात पर रौशनी डालती है कि किस तरह संपत्ति या वस्तु की भाषा के ज़रिये एफ़आरए और उसके अधिकार आधारित बहस को सहयोजित कर दिया गया है।

हालांकि, समुदाय के भीतर पुरुष और महिलायें नियमित रूप से जानवरों के लिए पत्ती चारा काटने और उन्हें लाने या जलावन के लिए लकड़ी इकट्ठा करने जैसे समान गतिविधियों को जंगलों के भीतर अंजाम देते हैं, इनमें से यह ज़्यादातर पुरुष ही होते हैं, जिन्हें वन संसाधनों तक पहुंच को नियंत्रित करने और वन विभाग के साथ बातचीत करने के लिए परमिट और अन्य दस्तावेज़ रखने वालों के रूप में देखा जाता है। यह इस समुदाय के भीतर सरकार की उस मर्दवादी संरचना के प्रवेश को दिखाता है, जो महिलाओं को निजी क्षेत्र में अलग-थलग करने की क़ीमत पर अनौपचारिक या औपचारिक उपायों के ज़रिये पुरुषों के साथ बातचीत को वैध बनाता है। वन गुर्जरों के बीच एक पारंपरिक जाति पंचायत 'पैंची' होती है, जो विवाह, वित्तीय मामलों या पशुधन से जुड़े विवादों को सुलझाने के लिए 'लम्बरदारों' (डेरे के सबसे बुज़ुर्ग पुरुष सदस्य) के बीच की एक सभा है, जिसमें समझौता, जुर्माना या सामाजिक बहिष्कार जैसे दंड शामिल होते हैं। लेकिन, यह संस्था इन मुद्दों पर बातचीत करने को लेकर महिलाओं की भूमिका को समान स्तर पर लाने में विफल है और उन्हें अपनी राय को रखने की गुंज़ाइश से भी वंचित करती है, भले ही मामला उनके या उनके परिवार के सदस्यों से जुड़ा हुआ क्यों न हो।

हालांकि, महिलायें सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर चर्चा करने के लिए वन गुर्जर पुरुषों के बीच आयोजित 'बीथक' की चर्चा में शामिल होती हैं, लेकिन ज़्यादातर पुरुष आमतौर पर मानकर चलते हैं कि महिलाओं के पास आमतौर पर सरकारी मामलों, क़ानून और नीतियों के के बारे में जानकारी की कमी होती है। पांच बच्चों की मां और एक डेरे की मुखिया सुखा बीबी, इन महिलाओं के बीच शिक्षा की कमी को महसूस करते हुए कहती हैं, "हमें तो क़ानून की ज़्यादा जानकारी नहीं है, पर हमें जंगल में हक़ मिलें, वो बेहतर है।" दुर्भाग्य से अदालत का कोई भी आदेश आज तक वन गुर्जर महिलाओं के अधिकारों को स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं कर पाया है या उनकी चिंताओं को सामने नहीं रख पाया है। इस तरह, इन महिलाओं को संस्थागत सरकारी तंत्र के साथ-साथ समुदाय के भीतर, यानी कि दोहरे स्तर पर किनारे किये जाने का सामना करना पड़ता है और इससे उन्हें जंगलों के भीतर नुमाइंदगी की किसी भी वैध क़वायद से वंचित होना पड़ता है।

वन गुर्जर महिलाओं को लेकर रूढ़िवादी नीतियों की लैंगिक प्रकृति की पड़ताल 

अमेरिकी राजनीतिक विचारक वेंडी ब्राउन का कहना है कि सरकारी संरचना नौकरशाही तौर-तरीक़ों की बुनियाद और नेटवर्क के ज़रिये काम करती रही है, उसकी प्रकृति स्वाभाविक रूप से मर्दवादी है।महिलाओं के इस लिंगगत निकाय को कुछ सुरक्षा संहिताओं के ज़रिये नियंत्रित किया जाता है। इनमें ऐसी प्रमुख शब्दावलियां भी हैं, जो उन विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं को नियंत्रित करती हैं और साथ ही साथ उन लोगों की कमज़ोरियों और गिरावट को और तेज़ कर देती हैं, जो कुछ सामाजिक रूप से निर्मित पहचानों और व्यवसायों के आधार पर पहले से ही हाशिये पर हैं। इस तरह, भारतीय संविधान या एफ़आरए जैसे कई क़ानूनों के तहत दिये गये अधिकारों की व्यापकता के बावजूद  महिलाओं की नुमाइंदगी का सवाल अक्सर वन भूमि तक उनकी पहुंच, वन प्रबंधन या सामुदायिक विकास पर निर्णय लेने की उनकी क्षमता, या घर के भीतर वित्तीय स्वायत्तता को लेकर की जाने वाली पूछताछ से निर्धारित किया जाता है।

वनों में लगने वाली आग की रोकथाम, आक्रामक प्रजातियों और एकफ़सली कृषि व्यवस्थाओं पर रोक, और वन गुर्जरों की निरंतर मौजूदगी से प्रचलित जंगलों के भीतर जानवरों के पीने के जलकुंडों के नियमित प्रबंधन जैसे ज़्यादातर पारिस्थितिक फ़ायदों के बावजूद इन खानाबदोश चरवाहों और वन्यजीवों के बीच सह-अस्तित्व की गुंज़ाइश को देख पाने को लेकर वन विभाग की अक्षमता सरकार की तरफ़ से प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण करने वाले एक मर्दवादी पूर्वाग्रह को ही इंगित करती है। नेशनल कमिशन फ़ॉर डिनोटिफ़ाइड, नॉमेडिक एंड सेमी-नॉमेडिक ट्राइब्स ने 2008 और 2017 की अपनी रिपोर्ट में वन्यजीव संरक्षण क़ानूनों और राष्ट्रीय उद्यानों के निर्माण के उस प्रतिकूल प्रभाव को स्वीकार किया था, जिसने ऐसी खानाबदोश जनजातियों को उनकी आजीविका और पुश्तैनी घरों से बेदखल कर दिया है, और वहां ऐसे समुदायों से जुड़ी एक आपराधिकता बनी हुई है, जो उनकी महिलाओं और बच्चों तक फैली हुई है।

प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम, 2016 जैसे वनरोपण क़ानूनों का आना भी संरक्षणवादी नीतियों की उस मर्दवादी प्रकृति को ही दर्शाते हैं जो पेड़ों के नज़र से हरित आच्छादन को चिह्नित करते हैं और घास के मैदानों को 'बंज़र भूमि' के रूप में वर्गीकृत करते हुए उत्पादक बता दिया जाता है। वनों के घेरे के साथ मिलकर ऐसी नीतियां ख़ास तौर पर महिलाओं को जंगलों के भीतर उनके श्रम को कम आंकते हुए और उन्हें पैदावार के इस्तेमाल से अलग करते हुए चराई का पारंपरिक इस्तेमाल से संबद्ध नहीं कर पाती हैं। पहले, जिस जंगल को उनके पारंपरिक उपयोग में महिलाओं के लिए विविधता और सुरक्षा की एक गुंज़ाइश के तौर पर देखा जाता था, अब तेज़ी से पेड़ों की चुनिंदा प्रजातियों के बाड़ लगाने वाले वृक्षारोपण के ज़रिये उन्हें मुख्य धारा से अलग-थलग किया जा रहा है और जो चराई, कटाई और इनसे जुड़ी दूसरी गतिविधियों को अंजाम देने से रोक लेते हैं।

वन अधिकार अधिनियम इस शर्त के बावजूद कि इस अधिनियम के तहत अधिकारों की मान्यता पूरी हो जाने तक कोई बेदखली नहीं की जा सकती है, वन विभाग उनकी उपस्थिति को अतिक्रमण के रूप में जारी रखते हुए वन गुर्जरों पर लागू अधिनियम को मान्यता देने का इच्छुक नहीं है।

इन गतिविधियों को अब आधुनिक वैज्ञानिक वानिकी की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से उत्पादक के रूप में नहीं देखा जाता है। रोशन बीबी का कहना है, "जंगलात हम गुर्जरों के काम को पर्यावरण के हित में नहीं देखता, लेकिन गुर्जर के कोई काम जंगल को ख़तम करने के लिए नहीं, पर उसके परवरिश के लिए हैं।"  

राजाजी नेशनल पार्क के कोर ज़ोन के भीतर छोटे-छोटे आवासीय इलाक़े के सीमांकन का नतीजा यह हुआ है कि जंगलों के भीतर महिलाओं की सुरक्षा और उनकी निगरानी के लिहाज़ से कई परेशानियां पैदा हो गयी हैं। दूसरी ओर, चराई के लिए वन भूमि तक पहुंच से उन्हें वंचित होना पड़ता है और मामूली वन उप्तादों के इस्तेमाल से वन गुर्जर महिलाओं के कार्यभार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिन्हें उत्पाद के संग्रह और घरेलू कामों को अंजाम देने में ज़्यादा समय देना पड़ता है। कुनाऊं चौर की एक अन्य निवासी ज़ुलेखा का मानना है कि जलवान की लकड़ी और घास इकट्ठा करने का दैनिक श्रम दोगुना हो गया है, क्योंकि एक वन्यजीव जांच चौकी के बन जाने से उनके पारंपरिक मार्ग पर आने-जाने से रोक दिया गया है, जिससे कि अब उन्हें जंगल से उत्पाद को पाने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है।

हालांकि, महिलायें प्रव्रजन के मामले में सबसे आगे हुआ करती थीं और उन्हें अक्सर वन विभाग के साथ अपने ग्रीष्मकालीन घरों तक रास्ता मुहैया कराने को लेकर बातचीत करने के लिए कहा जाता था। लेकिन, वन गुर्जरों के प्रवास मार्गों पर बढ़ते संघर्षों ने उनमें से कई को राजाजी पार्क में ही सर्दियों में रहने को लेकर अपने परिवारों को छोड़ देने के लिए मजबूर कर दिया है। सालों भर संरक्षित क्षेत्र के भीतर चराई भूमि पर बढ़ता दबाव वन विभाग और समुदाय के बीच ज़मीन पर चलती लगातार टकराहट को बढ़ावा देता है। यह टकरहाट वन विभाग की ओर से जारी किये जाने वाले बेशुमार अतिक्रमण नोटिसों और बेदखली अभियान के ज़रिये सामने आती है, जिसमें महिलायें भी हिंसा का शिकार होती रहती हैं। न तो वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और न ही उत्तराखंड वन अधिनियम, 2001, इस लैंगिक रूप से संवेदनशील हालात को लेकर ऐसी बेदखली से होने वाले ख़तरों के दौरान महिला कर्मचारियों की उपस्थिति जैसा कोई सुरक्षा उपाय निर्धारित कर पा रहा है।  

सरकार के प्रतिरोध में वन गुर्जर महिलाओं की नुमाइंदगी की पड़ताल 

2017 का वह प्रकरण इन महिलाओं की यादों में आज भी ताज़ा बना हुआ है, जब वन विभाग की ओर से उचित प्रक्रिया सुरक्षा उपायों का पालन नहीं किया गया था। फ़ातिमा को आज भी वह बात पूरी तरह याद है कि 'जंगलात' ज़बरदस्ती कुनाऊं चौर में घुस गयी और वन भूमि से बेदखल करने के लिए उनकी 'छप्पर' को तोड़ना शुरू कर दिया।

इसके बाद जो कुछ हुआ, वह महिलाओं की नुमाइंदगी की उस क़वायद को सामने लाता है, जो इन महिलाओं की भूमिका को डेरे और ज़मीन के साथ-साथ बच्चों और मवेशियों की देखभाल करने वालों के रूप में सामने रखती है। भले ही 'जंगलात' ने कुछ 'छप्परों' को कामयाबी के साथ तोड़ दिया था, फिर भी महिलायें पीछे नहीं हटीं, और जंगलात के जाने तक महिलायें पूरे जोश के साथ विरोध करती रहीं। यहां की जंगलात उस पुरुषवादी सरकारी संरचना का प्रतिनिधित्व करती है, जहां उन लोगों के ख़िलाफ़ ताक़त और हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है, और बतौर वनवासी उनके अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। फ़ातिमा के मुताबिक़ जंगल ही उनका घर है और जंगलात चाहे कुछ भी कर लें, वन गुर्जर अपना घर नहीं छोड़ेंगे। वह यह भी याद करती हैं कि समुदाय की एक बूढ़ी और सम्मानित महिला के साथ किस तरह मारपीट की गयी थी, क्योंकि उन्होंने सीधे तौर पर जंगलात को चुनौती दे दी थी।

यह घटना एक बहुत ही उस अहम पहलू को सामने लाती है कि कैसे वन गुर्जर महिलाओं ने अपनी नुमाइंदगी को मुखर तरीक़े से समाने रखा था और सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच की खाई को किस तरह तोड़कर रख दिया था। परंपरागत रूप से वन गुर्जर महिलायें अपने समुदाय के भीतर की जो अधीनता वाला ढांचा है, उसके ही भीतर रहती हैं, जहां मर्द आजीविका और फ़ैसले लेने से जुड़ी ज़िम्मेदारियों को निभाते हैं। कुछ महिलायें पानी लाने, जंगल से जलावन की लकड़ियां इकट्ठा करने, चराने या लकड़ी काटने जैसी गतिविधियों में लगी होती हैं। लेकिन, ज़्यादातर महिलायें खाना बनाती हैं, कपड़े धोती हैं और अपने घरों में बच्चों की देखभाल करती हैं। हालांकि, अलग-अलग उम्र की कई और महिलाओं से बात करने से यह अहसास हुआ कि उनके इस नुमाइंदगी के वजूद के पीछे प्रेरणाओं, इच्छाओं और लक्ष्यों की एक विशाल श्रृंखला काम करती है। उनकी वास्तविकता के इस प्रदर्शन को वर्चस्व और प्रतिरोध के चश्मे से ही पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है, बल्कि इसमें तो उनके रोज़मर्रा के अनुकूलन और लचीलापन का प्रदर्शन को भी शामिल किया जाना चाहिए।

विद्वान डॉ. रुबीना नुसरत की दलील है कि वन गुर्जर महिलाओं ने अलग-थलग कर दिये जाने की स्थिति में भी मुक़ाबला करने के अनगिनत तरीक़े विकसित किये हैं। उनका काम इस बात को दर्शाता है कि ख़ास तौर पर मवेशियों और दूध के उन उत्पादों के सिलसिले में फ़ैसले लेने की प्रक्रियाओं में महिलाओं की ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी है, जिन्हें पुरुष बाज़ार में बेचते हैं। ये महिलायें ज़रूरी चारे का निर्धारण करने वाले पशुधन के प्रबंधकों के रूप में भी अपनी भूमिका निभाती हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ज़्यादतर वन गुर्जर महिलाओं को 'मेहर' के रूप में मवेशी मिलते हैं, जिससे उन्हें इस पर पूर्ण स्वामित्व होता है और इसलिए पशुधन पर उनका नियंत्रण होता है।

दूसरी ओर, इस अलग-थलग कर दिये जाने ने सार्वजनिक-निजी विभाजन के संस्थागतकरण को भी बढ़ा दिया है, और यह बात फ़ातिमा की कहानी से भी सामने आती है। एक दूसरी वन गुर्जर महिला जैतुन का मानना था कि "हमें यही ज़मीन मिले वो बेहतर है, ताकि जंगल और पराली की सुविधा मिले।" इस तरह, इन महिलाओं की आवाजें उनके रोज़मर्रे के जीवन में सामूहिक नुमाइंदगी की आकांक्षा को प्रदर्शित करती हैं। हालांकि, जबकि महिलाओं की सामूहिक भागीदारी उनकी दिन-प्रतिदिन की वास्तविकता में प्रमुख स्थान रखती है और वन के संरक्षण के लिहाज़ से अहम बनी हुई है, फिर भी एफ़आरए के तहत ऐसे मुद्दों पर निर्णयात्मक स्वायत्तता का अभाव है।

संघठन इन ढांचागत बाधाओं को स्वीकार करता है, जिसका सामना महिलाओं को जंगलों के भीतर करना पड़ता है, और शैक्षिक पहल, संरक्षण अभियान, क़ानूनी साक्षरता, स्वास्थ्य देखभाल और प्रजनन स्वास्थ्य कार्यशालाओं को बढ़ावा देने, महिलाओं के पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेज़ीकरण को पुनर्जीवित करने और संलग्न करने की मांग करते हुए इस समुदाय को समान रूप से पुनर्गठित करने और उन्हें आभूषण, दरी (चादर), टोपी, पंखा (हाथ के पंखे), आदि जैसी अपनी सांस्कृतिक कला और हस्तशिल्प वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए स्वयं सहायता समूहों में संलग्न करने का इरादा जताता है। यह संघटन औपनिवेशिक वानिकी नीतियों के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ प्रतिरोध में शामिल होने के लिहाज़ से भी एक ऐसा विश्वसनीय मंच बना हुआ है, जिसमें महिलाओं को बेहतर ढंग से समायोजित किया जा सकता है।

इसके बावजूद, वन गुर्जर महिलाओं के लिए सशक्तिकरण और उनकी मान्यता इस समुदाय के साथ-साथ सरकार के बीच एक लगातार चल रही वार्ता का हिस्सा बनी हुई है। यह उम्मीद की जाती है कि जमीन को लेकर एक बहुलवादी मॉडल की परिकल्पना की जा सकती है, जो उन महिलाओं की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करने के लिए बेरोकटोक पहुंच और विविध तरह की क़वायदों को मान्यता दे सके, जो जंगलों के भीतर लगातर रहने की इच्छा रखती हैं।

(सभी चुनिंदा तस्वीरें कुनाओ चौर की हैं, और लेखकों के सौजन्य से हैं।)

(प्रणव मेनन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर लॉ एंड गवर्नेंस में रिसर्च स्कॉलर हैं। तुइशा सरकार एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

साभार: The Leaflet & The Better India

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:

Locating Agency – Interrogating ‘Adhikaar’ of Van Gujjar Women at Rajaji National Park, Uttarakhand

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