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इप्टा : एक जनपक्षीय सांस्कृतिक आंदोलन के 75 साल, होमी जहांगीर भाभा ने किया था नामकरण

भारतीय जन नाट्य संघ अपने संघर्षशील कलात्मक सफर के 75 वर्ष पूरे कर चुका है
हस्तक्षेप

इप्टा  (Indian People's Theatre Association) के लोकप्रिय नाम से जाना जाने वाला यह नाट्य आंदोलन असल में सम्पूर्ण रूप से एक सांस्कृतिक आंदोलन रहा है जिस का मक़सद जनता के बीच राजनैतिक चेतना जगाना ही नहीं बल्कि एक ऐसा सांस्कृतिक नवजागरण है जिस के द्वारा मेहनतकश अवाम को उनकी प्रगतिशील और जनपक्षीय सांस्कृतिक विरासत से साक्षात्कार कराया जा सके। बहुत नाजुक हालत में 25 मई 1943 को बम्बई में मूर्तरूप से उभर कर सामने आया था हालांकि इप्टा की कई मंडलियों ने देश के कुछ हिस्सों में 1942 से ही प्रस्तुतियां आरम्भ कर दी थीं।  

 

यह वह दौर था जब भारत के लोग और भारतीय जनता का स्वतंत्रता संग्राम बहुत कठिन हालात से गुजर रहा था। दूसरे महायुद्ध के विनाश तांडव, ब्रिटिश साम्राज्यवादी शोषण और यूरोप में फासीवादी कुकर्मो के परिणामों को भारत की जनता को भयानक तरीके से झेलना पड़ा था। विदेशी शासकों के षड़यंत्रों के चलते सारे देश में साम्प्रदायिक दंगों की झड़ी सी लग गई थी। इन्हीं स्थितियों के चलते बंगाल में भीषण अकाल भी पड़ा। इस अकाल के लिए सामंती लूट, विदेशी शासक और देशी कालाबाजारी करने वाले तत्व सीधे-तौर पर जिम्मेदार थे। देश के विभिन्न इलाकों में रह रहे संस्कृतिकर्मी, कलाकार और नाटककार इन स्थितियों में केवल तमाशाई बनकर नहीं बैठे रहे। फासीवादी, विदेशी लूट, बंगाल के अकाल और साम्प्रदायिकता को चुनौती देती हुई पचासों सांस्कृतिक टोलियां सड़कों पर निकल आईं।

 

विनय रॉय और बंगाल कल्चरल स्कवॉयड

इस नये सांस्कृतिक जागरण में बंगाल ने एक बार फिर नेतृत्व किया था। विनय रॉय के नेतृत्व में 1942 में ही ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉयड’ ने जबरदस्त काम करना शुरू कर दिया था। यह स्कवॉयड या मंडली सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये बंगाल के अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए धन भी इकट्ठा करता था।

बंगाल कल्चरल स्कवॉयड ने देश के कोने-कोने में जाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए। इस स्क्वॉयड के जिन गानों में सारे देश में तहलका मचा दिया वे थे,

‘पूरब देश में डुग्गी बाजी, फैला दुख का जाल/ दुख की अग्नि कौन बुझाये सूख गए सब ताल/ जिनके हाथों ने मोती रोपे आज वही कंगाल-रे साथी, आज वही कंगाल/ भूखा है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल/ ‘इप्टा चाहे आजादी’, ‘लानत है सरमायेदारी जिसने दुनिया भूखो मारी/ ऐसा चौपट राज हो इसका हो मजदूर की दुनिया सारी’।

‘हिंदी उर्दू और बांग्ला ही नहीं, इप्टा ने देश की हर भाषा और लोक भाषाओँ में प्रस्तुतियां कीं। 

 

एन.एम. जोशी पहले अध्यक्ष

यह स्क्वॉयड जहां भी जाता वहां प्रस्तुतियां ही नहीं करता था बल्कि स्थानीय कलाकारों को प्रशिक्षण भी देता था। इस तरह इप्टा की एक और मंडली बन जाती। इसके ही प्रयासों का परिणाम था कि 15 मई 1943 को सारे देश के प्रगतिशील संस्कृतिकर्मी बम्बई में जुटे और इप्टा की स्थापना की गई। मजदूर नेता एन.एम. जोशी को अध्यक्ष चुना गया, महामंत्री थे अनिल डिसिलवा, विनय रॉय, ख्वाजा अहमद अब्बास, मकदूम मोहिउद्दीन, डांगे, सज्जाद जहीर, मनोरंजन भट्टाचार्य, डा. राजा राय इत्यादि पदाधिकारी बनाए गए। प्रो. हिरेन मुखर्जी ने इस सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा था

 

लेखक और कलाकार-आओआओ अभिनेता नाटककारतुम सभी लोगहाथ या दिमाग से काम करते होआओ और अपने आप को स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का एक नया वीरतापूर्ण समाज बनाने के लिए समर्पित कर दो।

होमी जहांगीर भाभा ने दिया था इप्टा” नाम

यह बात शायद कम ही लोग जानते हैं कि इप्टा का नामकरण हमारे देश के एक महान वैज्ञानिक ने किया था और वे थे होमी जहांगीर भाभा। इन्होंने 1942 में अनिल डिसिलवा को ये नाम सुझाया था। मशहूर चित्रकारए चित्त प्रसाद ने इप्टा के  लोगो ‘नगाड़ों का आह्वान‘ की रचना की थी।  इप्टा के विधिवत गठन से पहले देश में बम्बई, कलकत्ता, बैंग्लोर, आगरा, मैसूर, लाहौर, गोहाटी, हैदराबाद, ढाका आदि स्थानों पर अलग-अलग तरीकों से देश में एक न्यायसंगत समाज बनाने का सपना संजोये हज़ारों कार्येकर्ता जन संस्कृति के पक्ष में नृत्य संगीत व नाटक की प्रस्तुतियां कर रहे थे। यही वे संगठन थे जिन्होंने मिलकर इप्टा के नाम से एक नया सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा किया।

गीत, संगीत नृत्य, रंगमंच, फिल्म और साहित्य जगत से जुड़ी शायद ही कोई ऐसी हस्ती हो जो इप्टा आंदोलन से नहीं जुड़ी रही हो। आज़ादी से पहले और बाद में जो दिग्गज रचनाकार और कलाकार इप्टा से जुड़े रहे उनकी एक लम्बी सूची है। हिरेन मुखर्जी, मनोरंजन भट्टाचार्य, पृथ्वी राज कपूर, उदय शंकर, रवि शंकर, ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, मन्ना डे, हेमंत कुमार, कृष्ण चन्दर, साहिर लुधयानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, भीष्म साहनी, एके हंगल, नरगिस, अली सरदार जाफ़री, विमल रॉय, बिजोन भट्टाचार्य, मखदूम मोहियुद्दीन, भूपेन हज़ारिका, उत्पल दत्त, अनिल बिस्वास, शम्भू मित्रा, संजीव कुमार, राजेंद्र रघुवंशी, इस्मत चुग़ताई, अमर शेख़, कैफ़ी आज़मी जैसी सांस्कृतिक विभूतियाँ इप्टा के साथ सक्रियता से जुड़े रहे। एक दौर ऐसा था कि भारतीय संस्कृति की हर बड़ी हस्ती इप्टा से जुडी थी। 

भारत में प्रगतिशील सांस्कृतिक नव जागरण की शुरूआत थी इप्टा की स्थापना

इप्टा की स्थापना भारत में प्रगतिशील सांस्कृतिक नव जागरण की शुरूआत भी थी। बिना किसी संकोच के यह भी कहा जा सकता है कि इप्टा जिस सांस्कृतिक आंदोलन की सूत्रपात बनी थी उसी तरह के सांस्कृतिक आंदोलनों के विश्व इतिहास में कुछ गिने-चुने ही उदाहरण हैं। इप्टा ने देश को महानतम् गीतकार, नाटककार, संगीतज्ञ, अभिनेता और अभिनेत्रियां दीं।

प्रीत की नगरी

हमारा देश एक महान प्रयोग से अनिभिज्ञ ही है जो प्रगतिशील लेखकों और कलाकारों ने स्वयं को समाजवादी ढांचे में ढालने के लिए 1940 के दशक में किया था। इन्हों ने अमृतसर से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक बस्ती प्रीत नगर, बसाई थी। इस की पहल पंजाबी के मशहूर कवि और लेखक, गुरबक्श सिंह ने की थी। प्रीत की यह नगरी दरअसल एक कम्यून था जहाँ घरों के चरदीवारियाँ नहीं थीं, सांझा चूल्हा था और सब मिलकर  काम करते थे। यहाँ, फैज़ अहमद फैज़, साहिर लुधियानवी, बलराज साहनी,  उपेन्दर नाथ अश्क,  बलवंत गार्गी,  मोहन सिंह,  अमृता प्रीतम और कामिनी कौशल जैसे बड़े रचनाकार और कलाकार मिलकर रहते थे। बंटवारे ने इसे उजाड़ दिया, हालांकि अब भी यह देश और दुनिया के कलाकारों के लिए रिहाइश और प्रशिक्षण का उत्तम केंद्र है।

 

भारतीय थियेटर को एक नयी पहचान दी इप्टा ने

इप्टा ने भारतीय थियेटर को एक नयी पहचान दी, लेकिन यह भी सच है कि इप्टा का सुनहरा दौर भी 1947 के आते-आते बीत चुका था। वह सांस्कृतिक आंदोलन जो देश की जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों को आत्सात किए था, उनको गौरव और आदर्श प्रदान करता था, वह तेजी से बिखरा। प्रसिद्ध वयोवृद्ध अभिनेत्री जोहरा सहगल का मानना था  कि 1947 की आजादी ने इप्टा की मुख्य एजेन्डे को ही इससे छीन लिया जो था विदेशी शोषण-शासन के खिलाफ सांस्कृतिक आंदोलन करना। देश की जनता की मुक्ति का सवाल अब कोई मुद्दा ही नहीं रह गया था। इसलिए इप्टा भी अपने आप को लक्ष्यविहीन महसूस करने लगी। देश के बंटवारे और कम्युनिस्ट आंदोलन के बिखराव ने भी इप्टा को भारी नुकसान पहुंचाया।

इस विचार से सहमत होना मुश्किल है क्योंकि इप्टा का मुख्य काम प्रगतिशील और जनपक्षीय संस्कृति का प्रसार था जिस की आज़ादी के बाद भी बहुत ज़रूरत थी। 

यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि अगर इप्टा ना होता और इस के रचनाकार और कलाकार बम्बई की फ़िल्मी दुनिया ना पहुंचते तो भारतीय फिल्म जगत वह नाम नहीं कमा पाता जो इस के हिस्से में आया।    

भारतीय जन नाट्य संघ एक आंदोलन के तौर पर कहां खड़ा है और किस ओर जाना चाहता है इसका स्पष्ट अनुमान उन तीन स्वर्ण जयंती कार्यक्रमों को देखकर लगाया जा सकता था जो कलकत्ता, बम्बई और पटना में 1994 में आयोजित किए गए थे। कलकत्ता में इप्टा के स्वर्ण जयंती कार्यक्रम को एक जश्न के तौर पर बनाया गया। एक अन्य आयोजन बम्बई में हुआ था जहां केन्द्रीय मंत्रियों अर्जुन सिंह और सुखराम की मौजूदगी में इप्टा के पचास साल पूरे होने पर 25 मई 1994 को एक डाक टिकट जारी किया गया।

लेकिन रस्मी और सरकारी कार्यक्रमों से अलग इप्टा आंदोलन को समर्पित कुछ संजीदा कार्यकर्ता इस सशक्त आंदोलन को पुनः जीवित और पुनः निमार्ण के कार्य में भी लगे रहे थे। इन लागों ने भी इप्टा के जनपक्षीय स्वरूप के अनुरूप पटना में 23 से 27 दिसम्बर, 1994 के बीच इप्टा के स्वर्ण जयंती समारोह का आयोजन किया। यह समारोह सचमुच में इप्टा के लोकधर्मी स्वरूप और राष्ट्रव्यापी चरित्र को रेखांकित करने वाला था। इस समारोह में आए हुए देश के 19 प्रांतों के सांस्कृतिक कर्मियों का स्वागत करते हुए संगीतज्ञ सियाराम तिवारी ने कहा कि पटना में आयोजित होने वाले आयोजनों की तरह यह महज एक समारोह नहीं है,

 

’यह आयोजन भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण की दिशा में उठाया गया एक कदम है... मुझे उम्मीद है कि अलग-अलग विधाओं के प्रमुख हस्ताक्षर एक साथ मिल बैठ कर भारत के सांस्कृतिक आंदोलन को एक नया मोड़ देने की कोशिश करेंगें।’

पटना के इस समारोह की खास बात यह थी कि मंच के नाटक, नुक्कड़ नाटक और नृत्य प्रस्तुतियां अलग-अलग जगहों पर होती रहीं और साथ में ही रंगकर्म, संगीत, साहित्य, संचार माध्यम, विज्ञान,  ललित कला इत्यादि विषयों से जुड़ी समस्याओं पर गम्भीर बातचीत भी चलती रही।

इस समारोह में कैफी आजमी, बाबा नार्गाजुन, ए.के. हंगल, प्रो. आर.एस. शर्मा, प्रो. यशपाल, राजेन्द्र रघुवंशी, राजेन्द्र यादव, उषा गांगुली, शौकत आजमी, जितेन्द्र रघुवंशी, प्रवीण केशव इत्यादि ने हिस्सेदारी की।

पटना में इप्टा की तीन पीढ़ियां एक मंच पर

पटना में इप्टा के आयोजन की एक विशेष बात यह थी कि इससे इप्टा की तीन पीढ़ियों को एक साथ इकट्ठा किया। इप्टा ने अपने इस आयोजन में सांस्कृतिक कर्मियों का  एक मांगपत्र भी प्रस्तुत किया जिसमें कहा कहा गया था  कि सांस्कृति का व्यवसायी और नौकरशाही करण रोका जाए। 1876 का ड्रामेटिक परफॉरमेंस एक्ट रद्द हो। कलाकारों की सांस्कृतिक स्वतंत्रता की रक्षा हो। उन पर हमले रोके जाएं। और संस्कृति में संचार माध्यमों में विदेशी दखल को रोका जाए।

 

इप्टा के पटना स्वर्ण जयंती आयोजन में यू.पी., बिहार, उड़ीसा और आसाम की नाट्य मंडलियों ने अपनी धाक जमाई। यू.पी और बिहार से जो टोलियां और प्रतिनिधि आए थे उनसे बात करके यह जानकारी भी मिली कि इन दोनों प्रांतों में इप्टा की 50 से भी ज्यादा मंडलियां सक्रिय थीं। जम्मू इप्टा ने भी अपनी एक टीम पटना भेजी थी जिसने लोकनृत्य और लोक नाटक के द्वारा पटना के दर्शकों को मोह लिया था। पटना में नाट्य प्रस्तुतियों ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया था कि मंच के नाटक और नुक्कड़ नाटक में कोई झगड़ा नहीं है।

इप्टा की 75वीं सालगिरह पटना में ’राष्ट्रीय प्लैटिनम जुबली समारोह’ के तौर पर 27 से 31 अक्टूबर 2018 के बीच मनाई जाएगी। इप्टा की 75 वीं सालगिरह को मानाने के लिए बिहार की राजधानी पटना का चयन एक तरह से बिहार इप्टा को इसकी की महत्पूर्ण भूमिका के लिए शाबाशी देने के बराबर है। आशा है कि समस्त देश के प्रगतिशील सांस्कृतिक और नाट्य कर्मी यहाँ जुटेंगे। 

 

इप्टा इस सचाई से वाक़िफ़ है कि प्रगतिशील आंदोलन को राजनीति से ज़्यादा गंभीर चुनौतियां सांस्कृतिक क्षेत्र में हैं। भारतीय हुक्मरानों ने विशेषकर आरएसएस और बीजेपी से जुड़े गिरोह ने यह समझ लिया है कि अगर किसी समाज को सांस्कृतिक रूप से पतित होने दिया जाए तो जनपक्षीय राजनीति पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। यही कारण है कि हिन्दुत्ववादी राजनीति के उभार के साथ देश बाबाओं की चपटे में है और वे किन कुत्सितकार्यों में लुप्त हैं सभी जानते हैं।

इप्टा ने धार्मिक पाखंड और कट्टरता, महिलाओं, दलितों, अल्पसंखयक समुदायों और मेहनकशों पर हमलों के खिलाफ एक देशव्यापी सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ने का निश्चय किया है, जो बहुत ज़रूरी है। सच तो यह है कि अगर इप्टा 1994 के पटना अधिवेशन में लिए गए फैसलों को लागू करने में और ज़ोर से जुट जाता है तो देश के जनपक्षीय सांस्कृतिक आंदोलन को भारी सफ़लता मिलेगी।     

 

एक समर्थ और सशक्त प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के लिए यह ज़रूरी है कि इस काम में लगे तमाम रचनाकार और कलाकार अपने काम और अनुभव साझा करें। देश का जनपक्षीय संस्कृतिक आंदोलन राजनैतिक खेमों में बंटा है, अपनी-अपनी अलग राजनीतिक समझ होना कोई जुर्म नहीं है, लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र में एक दूसरे से सीखने को बहुत कुछ है क्योंकि दुश्मन और चुनौतियां साझी हैं। आशा है कि इप्टा का पटना आयोजन इस बारे में पहल करेगा।  

 

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