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हिंदुत्व हिंदू धर्म का प्रतिरूप है या इसके एकदम उलट?

हिंदुत्व हिंदू धर्म के भेदभाव वाले पहलुओं को मजबूत बनाकर इसके समायोजित और समावेशी पहलुओं को ध्वस्त कर देता है। यह बदलाव नहीं, बल्कि एक ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का आग्रह करता है।
Hindutva
चित्र सौजन्य: काउंटर करंट्स

ऐसा नहीं है कि यह परिघटना नयी है, लेकिन हिंदू धर्म को आस्था के धर्म और हिंदुत्व को विचारधारा के आचरण के बीच उचित तरीके का संबंध बनाने को लेकर एक प्रासंगिक बहस शुरू हो गई है। हिंदू धर्म एक जटिल सामाजिक और सांस्कृतिक परिघटना है, जो विभिन्न विरोधाभासी सामाजिक चलन को आपस में जोड़ती है। इसने असहमति के कई रूपों को स्वयं में समाहित करने के लिए समय-समय पर अपने अलग-अलग आकार और रूप धारण किए हैं, फिर भी इसका मूल विशिष्टतावादी और शुद्धतावादी ही बना रहा है। हिंदू धर्म, अपने अंतस्तल में  एक शुद्धतावादी व्यवस्था है, फिर भी सामंजस्यपूर्ण और समावेशी रहा है। लचीलापन की कमी रही है, हिंसक रहा है और भेदभावपूर्ण भी रहा है, फिर भी कई धाराओं, विचारशीलता और समंजनशीलता से मिलकर यह हिंदू धर्म बनता है।
 
वैदिक ब्राह्मणवाद के साथ-साथ सांस्कृतिक चलन के अन्य श्रमणिक रूपों(जैन, आजीविक, चार्वाक, बौद्ध दर्शनशास्त्र) का उदय हुआ, जिनका भक्ति आंदोलन में बेहतर तरीके से प्रतिनिधित्व मिला है। जर्मन दार्शनिक हेगेल का तर्क है कि जाति और पदानुक्रम के कारण ही हिंदू दर्शन इतने काल से स्थिर बना रहा है। इसकी "प्राच्य भावना" अपने प्रारंभिक दौर से आगे नहीं बढ़ सकी, फिर भी अमर्त्य सेन अपनी किताब आर्ग्युमेंटेटिव इंडियंस में हिंदू धर्म और जीवन जीने के सांस्कृतिक तरीकों में एक विचारशील प्रक्रिया अंतर्निहित रहने को आवश्यक ठहराते हैं। प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर भी प्रो.सेन से भिन्न लहजे में असहमति और परिवर्तन से चिह्नित "सभ्यतावादी लोकाचार" का तर्क देती हैं।
 
इसके अलावा, समाजशास्त्री बैरिंगटन मूर का मानना है कि भारत में हिंदू धर्म के कारण कोई बड़ा विद्रोह या क्रांति नहीं हुआ, उसने मनुष्य के कर्म-सिद्धांत का सूत्रपात का प्रचार किया, जिसमें उसके इस जन्म की दशा-दुर्दशा के लिए पिछले जन्म के कर्मों को जिम्मेदार ठहराया गया था। इस कर्म-सिद्धांत ने इसमें निहित विरोधाभासों को अमान्य कर दिया। मूर आगे कहते हैं कि गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की रणनीतियों ने चिंतन की हिंदू-पद्धति के साथ-साथ जनमानस के "दिल की तारों को छू लिया"।
 
गांधी ने उपनिवेशवाद के खिलाफ एक आम प्रतिरोध की धारणा को संभव बनाते हुए उन अंतर्विरोधों को समेटने का एक तरीका पेश किया था। जैसा कि  इतिहासकार डीडी कोसंबी ने प्रतिपादित किया था कि यह "तीसरा रास्ता", जो न तो पूंजीवादी अर्थों में कोई आधुनिक था और न ही समाजवादी था। गांधी का विचार था कि भारत में उत्पादन का तरीका "विस्थापन के बजाय समायोजन" के माध्यम से चलता आया है, जिसकी समानता ग्राम्शी के "निष्क्रिय क्रांति" के सिद्धांत के साथ की जा सकती है। कार्ल मार्क्स इसका केवल आंशिक अर्थ ही समझ सके थे, जब उन्होंने एक विशिष्ट "एशियाई उत्पादन प्रणाली" को चिह्नित किया था, जिसमें भारत में श्रम का एक विस्तृत विभाजन था, लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था एक स्थिर अर्थव्यवस्था थी। ये तो डॉ भीमराव अम्बेडकर ही हैं, जिन्होंने मार्क्स के इस सूत्रीकरण का परिमार्जन करते हुए कहा कि भारत में श्रम का विभाजन नहीं, बल्कि "श्रमिकों का विभाजन" था। हिंदू धर्म और "हिंदू जीवन शैली" ने जाति के अनुसार समुदायों को सामाजिक और स्थानिक रूप से अलग करने की मांग की, जिसके परिणामस्वरूप "वर्गीकृत असमानताएं" पैदा हुईं।
 
हिंदुत्व एक सांस्कृतिक परियोजना है,जो राजनीतिक शक्ति के माध्यम से एक विशेष संरचना और उसकी अनुषंगी परिकल्पना को स्थापित करने का प्रयास करती है। गोलवलकर से लेकर सावरकर तक आरएसएस के पुरोधा हिंदू धर्म की आंतरिक विविधताओं से घबराए हुए थे और इन्हें कमजोरी का एक स्रोत माना था। इसने अपने विविधतापूर्ण और सामंजस्यपूर्ण चरित्र में अपनी अंतर्निहित शक्ति और व्यवस्था में सामंजस्य बैठाया। इसलिए, आरएसएस ने परंपरागत पदानुक्रमित परिकल्पना के साथ जाति और राष्ट्र की आधुनिक अवधारणाओं का सहमेल स्थापित किया। इसने पवित्रता की धारणाओं को क्षेत्रीयता, "मातृभूमि", पवित्र भूमि और आर्य-वर्चस्ववादी दावों के साथ जोड़कर अपवर्जनात्मक विशेषताओं के निर्माण का आग्रह किया।
 
हिंदुत्व सबको समाहित करने वाला हिंदू धर्म का चरित्र केवल शब्दाडम्बर है और व्यवहार में इसके अपवर्जनात्मक एवं शुद्धतावादी व्यवस्था को ही मजबूती देता है। जैसा कि इतिहासकारों ने दावा किया है कि हिंदू धर्म का यह सबको समाहित करने वाला आंतरिक चरित्र परिवर्तन का एक कारण बन सकता है। फिर भी, हिंदुत्व ने यह दिखाया है कि कैसे प्रमुख समूहों का एक नया आधिपत्य स्थापित करने के लिए द्वंद्वात्मकता से काम लिया जा सकता है। हिंदुत्व "विरुद्धों की एकता" का एक द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण अपनाता है-हालांकि ऐसा वह किसी जैविक परिवर्तन लाने के लिए नहीं, बल्कि एक ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था कायम करने के लिए करता है। ऐसा लगता है कि हिंदुत्व बौद्ध धर्म पर ब्राह्मणवाद की जीत पर आधारित है। यह इस नई हिंदू सामाजिक व्यवस्था में असहमति के स्वरों को सहयोजित करने की संभावना देखता है, जहां आंतरिक विशिष्टताएं एक पदानुक्रमित व्यवस्था के लिए हैं और बाहरी चुनौतियों के लिए नहीं हैं।
 
पहले, इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण के रूप में संदर्भित किया जाता था, जिसमें सामाजिक स्पेक्ट्रम के निचले छोर पर समूह एक प्रमुख समूह की सांस्कृतिक चलनों का अनुकरण करके अपनी संचरणशीलता और सामंजस्यता की भावना रखते हैं। जब इस संस्कृतिकरण को राष्ट्रवाद से जोड़ा जाता है, तो यह मनोवैज्ञानिक समावेश और सशक्तिकरण का एक शक्तिशाली स्रोत बन जाता है। समूह की विशिष्ट पहचान या तो एक विचलन या बहिष्करण और कमजोरी के संकेत के रूप में सामने आती है। इसलिए हिंदुत्व जैविक रूप से "हिंदू जीवन शैली" के साथ-साथ इसमें निहित संभावनाओं की क्षय से भी जुड़ा हुआ है। यह वही कारक है, जो हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच के संबंध को खतरनाक ढंग से संतुलित करता है। यह किसी भी संभावित द्वंद्वात्मक गति को अवरुद्ध करने की इच्छा रखते हुए एक "सामूहिक अवचेतन" के साथ उसकी जैविक डोर पर प्रहार करता है। इसलिए, यह सचेत रूप से अहिंसा जैसे सभी अच्छे और सभ्यतागत मानी जानी वाली अच्छाइयों का दावा करता है, फिर भी हिंसा को मंजूरी देने के लिए विपरीत तर्क देने लगता है। महात्मा गांधी ने हालांकि भगवदगीता को हिंदू जीवन शैली में अंतर्निहित अहिंसा के एक पाठ के रूप में पढ़ा था, जबकि उनके विपरीत हिंदुत्व अहिंसा को हिंसा को मंजूरी देने के एक साधन की युक्ति के रूप में व्याख्या करता है।
 
इसलिए, हिंदुत्व, हिंदू धर्म के सबसे हिंसक और भेदभावपूर्ण पहलुओं को मजबूत करते हुए हिंदू धर्म को आंतरिक रूप से विकृत कर देता है। फिर भी, यह अपनी संरचना और विचार प्रक्रियाओं में हिंदू धर्म से पूरी तरह बाहर नहीं है। इसलिए, हिंदुत्व को हिंदू धर्म से अलग करने का मतलब न केवल इसकी दार्शनिक विषयवस्तु का परित्याग करना होगा-जो आत्म, आध्यात्मिकता और अन्य दुनिया की अवधारणाओं पर विचार-विमर्श और बहस की अनुमति देता है-बल्कि आंबेडकर के रूप में उसकी आलोचना भी करता है, और इसके सबसे क्रूर अपवर्जनात्मकता की तरफ संकेत करता है। इससे कैसे कोई इनकार कर सकता है और फिर भी इसे जीवन जीने की एक पद्धति के रूप में अपनाता है ? हिंदुत्व यह काम धूर्तता, आधे-अधूरे पाठों, जानबूझकर किए गए गलत अध्ययनों और कथनों के यंत्रीकरण के माध्यम से करता है; यह काम वह अम्बेडकर जैसी असहमतिपूर्ण स्वरों को समायोजित करते हुए शास्त्रीय ढंग से करता है, भले यह उनके सारतत्व को ही निशेष कर दे। यह वशीभूत करने के लिए समायोजित करता है, जैसे ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म ने बौद्ध दर्शन को कमजोर करते हुए बुद्ध को समायोजित करने का एक रास्ता बनाया।
अंतर्विरोधों और वास्तविक विमर्शों को अस्वीकार करने के ऐसे विस्तृत एवं संशलिष्ट तरीकों का सामना करने की एक व्यवहार्य रणनीति आखिर क्या हो सकती है? हम सामान्य प्रतीकों के माध्यम से हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच के अंतर को कैसे प्रस्तुत करें,जिसे आम जन की चेतना आसानी से समझ सके और दैनिक रूप से अपने व्यवहार में इसका पालन कर सके ? क्या यह राजनीति को धर्म के साथ मिलाने के गांधीवादी प्रयोग को पुन: प्रस्तुत करने में निहित है ? क्या किसी को अपने वर्चस्ववादी और भेदभावपूर्ण पहलुओं की अनुमति दिए बिना हिंदू पहचान को धारण करना चाहिए या फिर, धर्म और राजनीति के अति आधुनिकतावादी अलगाव के लिए इसे अमान्य कर देना चाहिए? शायद यह गांधीवादी प्रयोग की निश्चित ही एक ऐतिहासिक चूक है, जिसे हम आज हिंदुत्व नामक संकट के रूप में देख रहे हैं।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)


अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

https://www.newsclick.in/is-hindutva-duplicate-hinduism-its-polar-opposite

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