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इतवार की कविता : "वह मुसलमानों से डरता था..."

गुरुग्राम में नमाज़ के दौरान हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा किये जा रहे शर्मनाक हंगामे को ध्यान में रखिये और पढ़िये निखिल सचान की यह कविता...
इतवार की कविता

गुरुग्राम में पिछले 3 महीनों से अलग-अलग हिंदुत्ववादी संगठनों ने जुमे की नमाज़ में ख़लल डालने का काम किया है। उनके इस शर्मनाक हंगामे को ध्यान में रखिये और पढ़िये निखिल सचान की यह कविता...

मेरा इक दोस्त अक्सर कहता था, कि ये
कौमी एकता की बातें
बस कहने में अच्छी लगती हैं.
कहता था, कि तुम कभी
मुसलमानों के मोहल्ले में
अकेले गए हो ?
कभी जाकर देखो, डर लगता है।

वो मुसलमानों से बहुत डरता था
हालांकि उसे शाहरुख़ खान बहुत पसंद था
उसके गालों में घुलता डिम्पल
और उसकी दीवाली की रिलीज़ हुई फ़िल्में भी
दिलीप कुमार यूसुफ़ है, वो नहीं जानता था
उसकी फिल्में भी वो शिद्दत से देखता था
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था


वो इंतज़ार करता था आमिर की क्रिसमस रिलीज़ का
और सलमान की ईदी का
गर जो ब्लैक में भी टिकट मिले
तो सीटियां मार कर देख आता था
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

वो मेरे साथ इंजीनियर बना
विज्ञान में उसकी दिलचस्पी इतनी कि
कहता था कि अब्दुल कलाम की तरह
मैं एक वैज्ञानिक बनना चाहता हूं
और देश का मान बढ़ाना चाहता हूं
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

वो क्रिकेट का भी बड़ा शौक़ीन था
ख़ासकर मंसूर अली खान के नवाबी छक्कों का
मोहोम्मद अज़हरुद्दीन की कलाई का
ज़हीर खान और इरफ़ान पठान की लहराती हुए गेंदों का
कहता था कि ये सारे जादूगर हैं
ये खेल जाएं तो हम हारें कभी न पाकिस्तान से
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

वो नरगिस और मधुबाला के हुस्न का मुरीद था
उन्हें वो ब्लैक एंड व्हाईट में देखना चाहता था
वो मुरीद था वहीदा रहमान की मुस्कान का
और परवीन बाबी की आशनाई का
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

वो जब भी दुखी होता था तो मुहम्मद रफ़ी के गाने सुनता था
कहत था कि ख़ुदा बसता है रफ़ी साहब के गले में
वो रफ़ी का नाम कान पर हाथ लगाकर ही लेता था
और नाम के आगे हमेशा लगाता था साहब
अगर वो साहिर के लिखे गाने गा दें
तो ख़ुशी से रो लेने का मन करता था उसका
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

वो हर छब्बीस जनवरी को अल्लामा इकबाल का
सारे जहां से अच्छा गाता था
कहता था कि अगर
गीत पर बिस्मिल्ला खान की शहनाई हो
और ज़ाकिर हुसैन का तबला
तो क्या ही कहने!
वो उनसे नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

उसे जब इश्क़ हुआ तो लड़की से
ग़ालिब की ग़ज़ल कहता
फैज़ के चंद शेर भेजता
उन्ही उधार के उर्दू शेरों पर पर मिटी उसकी महबूबा
जो आज उसकी पत्नी है
वो इन सब शायरों से नहीं डरता था
बस मुसलमानों से डरता था

बड़ा झूठा था मेरा दोस्त
बड़ा भोला भी
वो अनजाने ही हर मुसलमान से
करता था इतना प्यार

फिर भी न जाने क्यों कहता था, कि वो
मुसलमानों से डरता था
वो मुसलमानों के देश में रहता था
ख़ुशी ख़ुशी, मोहोब्बत से
और मुसलमानों के न जाने कौन से मोहल्ले में
अकेले जाने से डरता था

दरअसल
वो भगवान के बनाए मुसलमानों से नहीं डरता था
शायद वो डरता था, तो
सियासत, अख़बार और चुनाव के बनाए
उन काल्पनिक मुसलमानों से
जो कल्पना में तो बड़े डरावने थे
लेकिन असलियत में ईद की सेंवईयों से जादा मीठे थे

- निखिल सचान

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