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ज़िम्मेदारी लेने के बजाय दिल्ली की घटना का सांप्रदायीकरण करने की कोशिश

जब भाजपा और संघ के लोग यौन उत्पीड़न या बलात्कार की घटना का साम्प्रदायीकरण करते हैं, तो यह न सिर्फ़ समाज में साम्प्रदायिक ज़हर भरते हैं बल्कि असली समस्या- यानी महिला विरोधी मानसिकता और पुलिस द्वारा क्रिमिनल लोगों का बचाव – से नज़र हटाते हैं।
ध्रुवराज त्यागी को इंसाफ के लिए प्रदर्शन
Image Courtesy: SIasat Hindi

पश्चिमी दिल्ली के बसाईदादरपुर गाँव में 11 मई की रात को ध्रुवराज त्यागी अपनी 26 वर्षीय बेटी का माइग्रेन का इलाज कराकर अस्पताल से लौट रहे थे।

अपने घर वाली गली में ही उनकी बेटी के साथ कुछ स्थानीय लड़कों ने सड़क पर यौन उत्पीड़न किया। बेटी को घर पर छोड़ कर ध्रुव त्यागी उन युवकों के माता-पिता से मिलने गए। उनको लगा कि ऐसा करके वे उन लड़कों को अपनी ग़लती का अहसास दिला पाएँगे, पर इन लंपटों ने अपने परिवार वालों के साथ मिलकर ध्रुव त्यागी और उनके बेटे पर चाक़ू और पत्थरों से वार किए और इस हमले में त्यागी की हत्या हुई और उनके बेटे घायल हुए।

पुलिस ने इस हत्या के लिए मुख्य आरोपी शमशेर आलम, उनके दो भाई और उनके पिता जहांगीर खान को गिरफ़्तार किया है।

हमले के दौरान आस पास के लोग मूक दर्शक बने रहे, या सेलफ़ोन पर वीडियो बनाते रहे। मदद करने सिर्फ़ ध्रुव त्यागी के पड़ोसी रियाज़ सामने आए।  उन्होंने  ध्रुव  त्यागी  के  बेटे को बचाया  भीऔर  बाप-बेटे  दोनों  को अस्पताल ले गए।

12 मई की सुबह से ही सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस घटना को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की। नफ़रत भड़काने वाले फेक न्यूज़ फैलाने के लिए बदनाम वक़ील प्रशांत पटेल उमराव ने ट्वीट किया कि ‘मोहम्मद आलम, जहांगीर खान और दो जिहादी नाबालिगों’ ने ध्रुव त्यागी की बेटी को छेड़ा और उनकी हत्या की। ख़ुद ध्रुव त्यागी की बेटी, जो यौन उत्पीड़न की पीड़ित है, ने घटना को साम्प्रदायिक रंग दिए जाने का विरोध करते हुए कहा है कि “यह सच है कि मेरे पिताजी और भाई पर हमला करने वाले मुसलमान थे, पर वहाँ हिंदू भी तो थे जो सिर्फ़ देखते रहे और उन्हें बचाने के लिए कूछ नहीं किया।”

ध्रुव त्यागी के भाई तपरेश्वर त्यागी ने याद दिलाया कि, “ जो आदमी मेरे भाई और उनके बेटे को अस्पताल ले गया, वह भी तो मुसलमान है। जबकि हमारे जो हिंदू पड़ोसी हैं, वे उस हमले के आँखों देखी गवाह होते हुए भी चुप हैं, कुछ कहना नहीं चाहते हैं।” उन्होंने कहा की इस घटना को ‘हिंदू बनाम मुस्लिम’ रंग देना  “व्हाट्सऐप विश्वविद्यालय का काम है।”

मुझे याद आता है कि एक और पिता, जिसकी अपनी बेटी के लिए न्याय माँगने पर हत्या की गई। उन्नाव के भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर के ख़िलाफ़ बलात्कार का आरोप लगने वाली लड़की के पिता को स्थानीय पुलिस ने गिरफ़्तार करके हिरासत में ही पीट-पीट कर हत्या कर दिया था।

उस घटना के बारे में भाजपा और संघ के लोगों की बोलती क्यों नहीं खुलती है? पश्चिमी दिल्ली हो या उन्नाव, किसी पिता को अपनी बेटी के लिए न्याय माँगने पर हत्या करने वालों को बराबर की सज़ा मिलनी चाहिए। तब उन्नाव के हत्यारे पुलिस वालों को अब तक सज़ा क्यों नहीं मिली है ? पीड़ित लड़की को अब तक न्याय क्यों नहीं मिला है?

जब भाजपा और संघ के लोग यौन उत्पीड़न या बलात्कार की घटना का साम्प्रदायीकरण करते हैं, तो यह न सिर्फ़ समाज में साम्प्रदायिक ज़हर भरते हैं बल्कि असली समस्या- यानी महिला विरोधी मानसिकता और पुलिस द्वारा क्रिमिनल लोगों का बचाव – से नज़र हटाते हैं।

भाजपा-संघ के लोग कहते हैं – पर क्या स्वरा भास्कर-कविता कृष्णन आदि ने कठुआ बलात्कार-हत्या कांड को साम्प्रदायिक रंग नहीं दिया? जवाब सरल है। अव्वल तो कठुआ बलात्कार और हत्या कांड में पूरे देश ने पीड़ित बच्ची के लिए न्याय माँगा, जैसे हाल के दिनों में कश्मीर में एक छोटी 3 वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले आदमी के ख़िलाफ़ कश्मीर उबाल पर है। फ़र्क़ यह है कि कठुआ कांड में भाजपा नेताओं ने ‘हिंदू एकता’ के नाम पर आरोपियों के पक्ष में तिरंगा फहराते हुए जुलूस निकालाइसलिए की पीड़ित बच्ची मुसलमान थी, और आरोपी हिंदुत्व की नफ़रत-भरी राजनीति से प्रेरित थे और बलात्कार-हत्या करके पीड़ित बच्ची के अल्पसंख्यक बकरवाल समुदाय को आतंकित करना चाहते थे।

बलात्कार और आतंक के आरोपी को ‘हिंदू एकता’ के नाम पर बचाना तो सिर्फ़ संघ और भाजपा के लोग करते हैं। यह न सिर्फ़ कठुआ कांड में देखा गया बल्कि आसाराम, राम रहीम, प्रज्ञा ठाकुर, नाथूराम गोडसे और अन्य कई मामलों में देखा गया।

कठुआ घटना के बाद सवालों के घेरे में आई भाजपा के बचाव में मीनाक्षी लेखी ने पूछा, “असम के नागाओं में भी तो छोटी बच्ची का बलात्कार करके जला डाला गया, वहाँ आरोपी का नाम ज़ाकिर है, मुसलमान है, उस घटना का देश भार में विरोध क्यों नहीं? ” तथ्य क्या बताते हैं? नागाओं वाली घटना में आरोपी मुसलमान है – और पीड़ित भी। पूरे गाँव के लोग (जिसमें ज़्यादातर मुसलमान आबादी है) सड़क पर पीड़ित के लिए न्याय माँगने उतर गयी।

इस मामले में ख़ुद संघ-भाजपा के लोग नागाओं में जिस बलात्कार-विरोधी जुलूस-प्रदर्शन का फ़ोटो चला रहे थे, उसमें साफ़ दिख रहा था कि गाँव के लोग वामपंथी महिला संगठन ऐपवा के बैनर तले प्रदर्शन कर रहे थे और आरोपी के लिए सज़ा की माँग कर रहे थे। वे ‘मुस्लिम एकता’ के नाम पर मुस्लिम आरोपी के बचाव में नहीं उतरे थे।

उसी तरह कश्मीर में हाल में हुए बलात्कार के बाद स्थानीय लोग सब आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं और न्याय माँग रहे हैं। कश्मीर का पूरा राजनैतिक नेतृत्व (हुर्रियत के नेता समेत) पीड़ित के लिए न्याय और आरोपी के लिए कड़ी सज़ा माँग रहे हैं।

बलात्कार, हत्या हो या आतंक – इसके आरोपियों को लोकतंत्र और न्याय पसंद लोग किसी समुदाय का प्रतीक नहीं मानते हैं। हमारे संविधान के अनुसार न्याय की आँखों पर पट्टी होनी चाहिए, चाहे सामने खड़े होने वाले जिस भी समुदाय या वर्ग के हों, उनके साथ एक जैसा सलूक हो। पर संघ और भाजपा के लोग हमारे संविधान को बदल कर न्यायिक प्रक्रिया में भी और समाज में भी साम्प्रदायिक नज़र लाना चाहते हैं। इसलिए तो मोदी जी कहते हैं कि आतंक की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर हिंदू सभ्यता की प्रतीक है, और किसी हिंदू पर आतंकवाद का आरोप लगाना ही ‘पाप’ है। पुलिस अफ़सर हेमंत करकरे ने संविधान के अनुसार काम किया – उन्होंने प्रज्ञा ठाकुर आदि को सबूतों के आधार पर गिरफ़्तार किया, बिना यह सोचे कि ‘ये हिंदू हैं, मैं भी हिंदू हूँ, मैं सबूत मिटाकर इनको बचा लेता हूँ।’

संविधान को मानने वाले और आतंकियों के द्वारा शहीद किए जाने वाले करकरे को मोदी ‘भारतीय सभ्यता का प्रतीक’ क्यों नहीं मानते? प्रज्ञा ठाकुर करकरे की आतंकियों के हाथों हत्या को उनके द्वारा ‘श्राप’ का नतीजा बताती हैं, पर तब भी मोदी जी प्रज्ञा ठाकुर का साथ देते हैं, करकरे पर चुप हैं। क्यों? मोदी जी और भाजपा का व्यवहार का ‘हिंदू’ हितों से कोई लेना देना नहीं है। आख़िर हेमंत करकरे भी तो हिंदू ही थे – तब मोदी जी करकरे के बजाय प्रज्ञा ठाकुर को क्यों प्रतीक के रूप में चुनते हैं! जवाब यही हैभाजपा और संघ सिर्फ़ उन्हीं को अपने ‘हिंदुत्व’ का प्रतीक मानते हैं जो मुसलमानों से नफ़रत करते हैं और उनकी हत्या या उनका बलात्कार करते हैं। इसलिए वे स्वतंत्रता आंदोलन के नायक और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक गांधी जी के हत्यारे गोडसे के बचाव में उतरते हैं और उन्हें आतंकवादी कहे जाने का विरोध करते हैं – क्योंकि गोडसे के मुस्लिम-विरोधी नफ़रत और हत्यारे मानसिकता को वे ‘देश-प्रेम’ कहते हैं!

दिल्ली देश की राजधानी है – यहाँ पुलिस तो मोदी सरकार के हाथों में है। ऐसे में दिल्ली की सड़कों पर गुंडे महिला को छेड़ भी लेते हैं, और उनके पिता के विरोध करने पर पिता की हत्या कर देते हैं – क्या इस घटना के लिए थोड़ी सी भी ज़िम्मेदारी मोदी सरकार नहीं लेगी? इसी ज़िम्मे से बचने के लिए ही तो घटना को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है।

{कविता कृष्णन अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (ऐपवा) की सचिव हैं। यह लेख समकालीन जनमत samkaleenjanmat.in से साभार लिया गया है।}

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