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ज़ीरो रेटिंग: सस्ता इंटरनैट या इंटरनैट की बाड़ेबंदी

रिलायंस-फ़ेसबुक (इंटरनैट डॅाट आर्ग) व एअरटैल (एअरटैल जीरो) तथा इंटरनैट की तटस्थता के उल्लंघन के खिलाफ भारत के इंटरनैट उपभोक्ताओं के बीच उठे आलोचनाओं के तूफ़ान के बाद, फ़ेसबुक और एअरटैल ने अपनी सफ़ाई पेश की है। उनका कहना है कि इंटरनैट की तटस्थता तो उनको भी बहुत प्यारी है और इस सिद्घांत का वे कभी उल्लंघन कर ही नहीं सकते हैं। वे तो सिर्फ अपने ग्राहकों को और खासतौर पर ऐसे ग्राहकों को जिन्हें अब तक इंटरनैट तक पहुंच हासिल नहीं है, सस्ते में इंटरनैट तक पहुंच मुहैया करा रहे हैं। इसमें उनके आलोचकों को आपत्ति क्यों है?

मुद्दा क्या है?

लेकिन, सबसे पहली समस्या तो वे जो कुछ मुहैया करा रहें हैं, उसके इंटरनैट कहे जाने में ही है। सचाई यह है कि ‘‘ज़ीरो रेटिंग’’ के नाम पर बहुत थोड़े से इंटरनैट खिलाडिय़ों तक पहुंच मुहैया करायी जा रही है और यह दिखाने की कोशिश की जा रही है जैसे यही असली इंटरनैट हो। और लोगों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि विभिन्न वैबसाइटों के बीच भेदभाव करना तो इंटरनैट की तटस्थता का उल्लंघन माना जाएगा, लेकिन ज्यादातर वैबसाइटों को कथित इंटरनैट तक पहुंच के दायरे से ही बाहर रखे जाने में इंटरनैट की तटस्थता का उल्लंघन नहीं है ? याद रहे कि ज़ीरो रेटिंग इस बाद वाली व्यवस्था का ही नाम है। चूंकि इंटरनैट का व्यावसायिक मॉडल मूलत: इसके उपयोक्ताओं के ही ‘‘उत्पाद’’ के रूप में विज्ञापनदाताओं के हाथों बेचे जाने पर आधारित है, इसके कारोबार के नाम पर मुफ्त या सस्ता इंटरनैट मुहैया कराने की आड़ में वास्तव में विकासशील देशों में आर्थिक मैदान पर कब्ज़ा कर, इजारेदारी ही खड़ी करने की कोशिश की जाती है। इस सब के केंद्र में विज्ञापन का राजस्व है और वही है जिससे इंटरनैट कंपनियों के मुनाफ़े आते हैं। ज़ाहिर है कि इंटरनैट कंपनियां अपने मुनाफों को ही अधिकतम करना चाहती हैं।

इंटरनैट का यह व्यापारिक मैदान कितना बड़ा है, इसका अंदाजा चीन पर नजर डालने से लग जाता है। गूगल तथा फेसबुक को अपने इंटरनैट के ताने-बाने से दूर रखने के जरिए ही चीन अपने बाइडू, टेनसेंट तथा अलीबाबा को विश्व स्तर के खिलाडिय़ों के रूप में विकसित कर पाया है। ये इंटरनैट के मैदान के, अमरीकी बड़ी कंपनियों का मुकाबला करने में समर्थ इकलौते खिलाड़ी हैं। 2014 में बाइडू तथा टेनसेंट (अब अलीबाबा भी), बाजार नकदीकरण के लिहाज से 10 सबसे बड़ी इंटरनैट कंपनियों में आने वाली अकेली गैर-अमरीकी कंपनियां थीं। इस तरह इंटरनैट की तटस्थता महज एक जटिल, तकनीकी मुद्दा भर नहीं है बल्कि उसका संबंध इससे भी है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था पर कौन काबिज होता है, और कौन उससे कमाई कर रहा है या करेगा?

इंटरनैट की तटस्थता के पक्ष में विभिन्न समूहों द्वारा चलाए गए सार्वजनिक अभियान के बाद, दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया कि वह भी इंटरनैट की तटस्थता का समर्थन करते हैं और दूरसंचार विभाग इस मुद्दे पर एक दस्तावेज़ प्रकाशित करेगा। बहरहाल, यह अब भी स्पष्टï नहीं है कि इंटरनैट की तटस्थता की दूरसंचार मंत्री की परिमाषा क्या है? कहीं ज़करबर्ग की तरह वह भी तो इंटरनैट की तटस्थता के उस विकृत रूप के ही हामी नहीं हैं, जिसे फेसबुक आदि चलाने की कोशिश कर रहे हैं।

तकनीकी बारीकियों को अलग कर के देखा जाए तो इंटरनैट की तटस्थता का सीधा सा मतलब यह है कि इंटरनैट जिस भौतिक ढ़ांचे के आधार पर चलता है, उसका स्वामित्व तथा नियंत्रण जिनके भी हाथों में है, वे इंटरनैट से मुहैया होने वाली अलग-अलग प्रकार की सेवाओं या ये सेवाएं मुहैया कराने वाली वैबसाइटों के बीच भेद नहीं करेंगे। भेदभाव न किए जाने का यह सिद्घांत ही है जो दूरसंचार कंपनियों को, जिन्हें ताने-बाने पर (या मोबाइल के जरिए संचार के मामले में स्पैक्ट्रम पर इजारेदारी हासिल है, इजारेदाराना लूट करने से रोकता है। इस परिभाषा के जरिए देखें तो जीरो रेटिंग या इंटरनैट सेवाओं के लिए अलग से लाइसेंस देना जिसकी पेशकश ट्राई ने अपने परामर्श पेपर में की थी, दोनों ही इंटरनैट की तटस्थता का उल्लंघन करते हैं।

बदलते समीकरण

यह हमें इंटरनैट की तटस्थता की बहस में बदलते समीकरणों पर ले आता है। इंटरनैट की तटस्थता की पहली लड़ाइयों के समय पर, जो टेलीकॉम कंपनियों और इंटरनैट कंपनियों के बीच हुई थीं, इंटरनैट खिलाडिय़ों का आकार अपेक्षाकृत छोटा हुआ करता था। इन हालात में टेलीकॉम कंपनियां, ऐसी इजारेदारियों के नाते जिन्हें अपने ग्राहकों तक पहुंच पर स्वामित्व हासिल था, इंटरनैट कंपनियों की वैबसाइटों को अपने ग्राहकों से जोडऩे के लिए ‘‘फ़ीस’’ मांगा करती थीं। यह लड़ाई किसी हद तक अब तक जारी है, जिसमें अमरीकी संघीय संचार आयोग (एप सी सी) ने पिछले ही दिनों इंटरनैट की तटस्थता के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था।

बहरहाल, आज गूगल तथा फेसबुक जैसी इंटरनैट कंपनियां विश्वस्तरीय इजारेदारियों का रूप ले चुकी हैं और विकासशील देशों की टेलीकॉम कंपनियों के मुकाबले बहुत बड़ी हो चुकी हैं। इन भीमकाय इंटरनैट इजारेदारियों के उदय के साथ, टेलीकॉम कंपनियों के साथ इन इंटरनैट इजारेदारियों के कार्टेलों का उदय हुआ है। फेसबुक का इंटरनैट डॉट आर्ग या एअरटेल जीरो, ऐसे कार्टेलों के उभरने के सांगोपांग उदाहरण हैं। भांति-भांति की जोरी रेटिंग सेवाएं इंटरनैट पर इजारेदारी कायम करने का उनका औजार हैं। जहां इंटरनैट की तटस्थता की पुरानी लड़ाई अभी चल ही रही है, जो वैबसाइटों तक अपने ग्राहकों को पहुंच हासिल कराने के लिए, उसने ‘‘फ़ीस’’ वसूलने का दावा स्थापित करना चाहती है, वहीं इंटरनैट की तटस्थता की नयी इड़ाई में इसके अलावा और भी बहुत कुछ जुड़ गया है। इंटरनैट की तटस्थता की नयी लड़ाइयां एक ओर इंटरनैट कंपनियों तथा टेलीकॉम कंपनियों के संयुक्त कार्टेलों और दूसरी ओर अपेक्षाकृत छोड़े इंटरनैट खिलाडिय़ों, शुरूआत करने वाली इंटरनैट कंपनियों तथा इंटरनैट के उपयोक्ताओं की विशाल संख्या के बीच लड़ी जा रही हैं। जीरो रेटिंग, इंटरनैट की तटस्थता के लिए इस नयी चुनौती का ही हिस्सा है।

इस बहस में अक्सर यह पूछा जाता है कि इंटरनैट इजारेदारियां भारत के या अन्य विकासशील देशों के टेलीकॉम ग्राहकों को अपनी वैबसाइटों तक सस्ते में पहुंच मुहैया कराना चाहती हैं, तो इसमें हर्ज ही क्या है? जीरो रेटिंग का मुद्दा ठीक इसी तरह पेश किया जाता है।

तीन-तीन समस्याएं

बहरहाल, ज़ीरो रेटिंग या इसी तरह की किसी अन्य व्यवस्था के जरिए, इंटरनैट के नाम पर टेलीकॉम कंपनियों के ग्राहकों के कुछ चुनिंदा इंटरनैट साइटों तक को पहुंच मुहैया कराने के साथ तीन तरह की समस्याएं लगी हुई हैं। पहली तो यह कि इस तरह इन उपयोक्ताओं को चुनिंदा साइटों के साथ ही बांधा जा रहा होता है और उन्हें इंटरनैट पर उपलब्ध सेवाओं या जानकारियों के विशाल हिस्से से दूर रखा जाता है। इंटरनैट तक इस पहुंच को सस्ता करने के लिए तथाकथित सब्सीडी, मिसाल के तौर पर इंटरनैट डॉट आर्ग या एअरटेल जीरो जैसे मंचों के जरिए इन इंटरनैट खिलाडिय़ों द्वारा इन उपयोक्ताओं तक प्राथमिकतापूर्ण पहुंच हासिल करने के लिए खर्च की जाने वाली मामूली राशि से ज्यादा कुछ नहीं है। जाहिर है कि ये कंपनियां, इस तरह की सस्ती पहुंच से जुडऩे वाले उपयोक्ताओं के लिए, अपने ग्राहकों से ज़रा सी ज्यादा दर वसूल कर, आसानी से उक्त सब्सीडी की भरपाई कर सकती हैं। मिसाल के तौर पर अमेजॉन या फ्लिपकार्ट, आम इंटरनैट के जरिए पहुंचने वालों की तुलना में, जीरो रेटिंग वाले प्लेटफार्मों के जरिए आने वाले ग्राहकों के लिए अपेक्षाकृत ऊँची फीस या दाम लगा सकते हैं। दूसरे शब्दों में ग्राहकों को सस्ते में पहुंच से जो बचत होगी, वह भी इस तरह के सौदों में वापस खींच ली जाएगी।

इसके अलावा फेसबुक का तो बिजनस मॉडल ही अपने उपभोक्ता, अपने विज्ञापनदाता ग्राहकों के हाथों बेचने पर आधारित है। इंटरनैट डॉट आर्ग जैसे प्लेटफार्म से कारोबार के इस मॉडल को भी जबर्दस्त बढ़ावा मिलेगा। इस प्लेटफार्म का उपयोग करने वाली सभी इंटरनैट कंपनियों को अपने ग्राहकों का डॉटा फेसबुक के साथ साझा करना पड़ेगा, जिससे उसका दायरा बहुत बढ़ जाएगा। इंटरनैट डॉट आर्ग का हिस्सा बनना चाहने वाली कंपनियों के साथ फेसबुक के समझौते में ही यह शर्त शामिल है।

दूसरे, इस तरह के सीमित या तंग इंटरनैट के दायरे से (जिसे वास्तव में फेसबुकनैट या जकरनैट कहना ही ज्यादा सही होगा), नयी सेवाओं को बाहर ही रखा जा रहा होगा। क्योंकि नयी सेवाएं शुरू करने वाले या नये एप बनाने वाले, इस तरह के प्लेटफार्मों तक पहुंच की भारी फीस तो भर नहीं सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि इंटरनैट की मौजूदा इजारेदारियां हमेशा-हमेशा तक कायम रहेंगी और यह इंटरनैट की इस सबसे बुनियादी विशेषता को ही नष्ट कर रहा होगा कि उसमें निरंतर नया-नया खोजे जाने की जबर्दस्त संभावनाएं हैं। इसी को अनुमति-मुक्ति नवाचार कहते हैं। इंटरनैट पर सेवाएं मुहैया कराने या उसके साथ उपकरण जोडऩे के लिए किसी की इजाज़त की कोई जरूरत नहीं है। बस तयशुदा तकनीकी प्रोटोकॉलों का परिपालन किया जा रहा हो, कोई भी इंटरनैट के जरिए जुड़ सकता है और अपनी सेवाएं मुहैया करा सकता है।

आखिरी और मेरे विचार में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इंटरनैट, सभी संगठनों या व्यक्तियों को इसकी इजाज़त देता है कि वे इंटरनैट से जुड़ सकते हैं। बेशक, उन्हें देश के कानूनों का पालन तो करना होगा, लेकिन उससे आगे मिसाल के तौर पर किसी सबसे समृद्ध संगठन की वैबसाइट हो या फिर बहुत ही साधनहीन संगठन की, उन्हें उपभोक्ताओं तक पहुंच का बराबर का मौका हासिल होता है और उपयोक्ताओं को दोनों तक एक जैसी गुणवत्ता की पहुंच हासिल होगी। इसीलिए, इंटरनैट की तटस्थता इतनी महत्वपूर्ण है। इंटरनैट की यह तटस्थता ही है जो इंटरनैट पर अलग-अलग किस्म की वैबसाइटों को समानता मुहैया कराती है। अगर इंटरनैट की यही विशेषता नहीं रहेगी तो एक तरह से तमाम छोटे-छोटे संगठनों, आंदोलनों, प्रगतिशील समाचार संगठनों आदि को व्यावहारिक माने में इंटरनैट के दायरे से ही बाहर किया जा रहा होगा।

सार्वभौमिक पहुंच या उसका उलट

बेशक, इंटरनैट से लोगों को जोडऩा या उन्हें इंटरनैट तक पहुंच दिलाना महत्वपूर्ण है। दूरसंचार की दुनिया में सार्वभौमिक सेवा दायित्व (यूनिवर्सल सर्विस आब्लीगेशन--यूएसओ) की व्यवस्था लागू है और दूरसंचार कंपनियों से यह दायित्व पूरा करने की उम्मीद की जाती है। यूएसओ का अर्थ यह है कि हरेक व्यक्ति को, वह चाहे देश भर में कहीं पर भी हो, ध्वनि दूरसंचार सेवा तक पहुंच हासिल करायी जाएगी। हमारे देश में इसे संभव बनाने के लिए एक यूएसओ कोष का गठन किया गया है, जिसमें इस समय 50,000 करोड़ रुपये से अधिक जमा हैं। हमें यह समझना चाहिए कि आज यूएसओ का क्या अर्थ है और इसका इंटरनैट की पहुंच तक विस्तार किया जाना चाहिए। हम पहले ही यूएसओ फंड के उपयोग को लैंडलाइन टेलीफोन से बढ़ाकर, मोबाइल फोन तक पहुंचा चुके हैं। अब इसका वॉइस संचार से इंटरनैट तक पहुंच तक विस्तार करना, एक साधारण से कदम का मामला होगा। यूएसओ फंड के अलावा भी हमारे देश में फ़ाइबर ऑप्टिक केबल का ताना-बाना बिछाने में भी काफी पूंजी लगायी जा रही है। इस पर गहराई से सोच-विचार किया जाना चाहिए, बजाय इसके कि इंटरनैट कारोबार के हमारे देश के महत्वपूर्ण मैदान को फ़ेसबुक जैसे खिलाडिय़ों के हवाले करने के बजाए, इस बुनियादी ढ़ांचे को किस तरह अपने देश के लिए इंटरनैट की रीढ़ का रूप दिया जा सकता है।

आर्थिक पहलू के अलावा दूसरे महत्वपूर्ण पहलू भी हैं, जिन्हें भी एक देश के नाते भारत को ध्यान में रखना चाहिए। फेसबुक बाकायदा अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एन एस ए) के प्रिज्म कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसका उपयोग अमरीका सारी दुनिया की जासूसी करने के लिए करता है। इस तरह, इंटरनेट डॉट आर्ग जैसे प्लेटफार्म के ग्राहकों के सारे डाटा तक सिर्फ फ़ेसबुक को ही नहीं बल्कि एन एस ए को भी पहुंच हासिल होगी। क्या भारत जैसे देश को इसकी इजाज़त देनी चाहिए? क्या हम इसके लिए तैयार हैं कि अपना आर्थिक मैदान भी दूसरों को मुहैया कराएं और इसके साथ ही उन्हें अपने खिलाफ़ जासूसी करने के लिए एक असान मंच भी मुहैया कराएं।

इसके अलावा इसके साथ सेंसरशिप का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। फेसबुक अपने कांट्रैक्ट के हिस्से के तौर पर, अपने उपभोक्ताओं पर निजी सेंसरशिप लागू करता है। बेशक, हम आम तौर पर ये शर्तें , ‘‘क्या आपको हमारी शर्तें मंजूर हैं।’’ पर पढ़े बिना ही हां में क्लिक कर देते हैं। इस पर हां करके हम पहले ही फेसबुक को निजी सेंसरशिप की शक्तियां दे चुके होते हैं, जिनका वह आए दिन इस्तेमाल भी करता है। मिसाल के तौर पर आए दिन फेसबुक द्वारा सामीविरोधी (एंटीसेमेटिक) करार देकर, इस्राइलविरोधी साइटों (या फेसबुक पेजों) को बंद किया जाता है। इसी प्रकार, फेसबुक पर कॉपीराइट संरक्षण, अमरीकी कॉपीराइट कानून के ही हिसाब से है (जीवन भर+ 70 साल या सृजन के बाद 120 साल), अन्य देशों के कापीराइट कानूनों के हिसाब से नहीं। ऐसे ही कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि सीमित इंटरनैट का प्रयोग करने वाले भारतीय ग्राहकों के अधिकार, आम इंटरनैट का उपयोग करने वालों से अधिकारों से काफी भिन्न होंगे।

दो मॉडल

उपभोक्ताओं को इंटरनैट तक पहुंच मुहैया कराने के दो मॉडल हैं। पहला, केबल टेलीविजन मॉडल है, जिसमें उपभोक्ताओं को कुछ खास चैनल मुहैया कराए जा रहे होते हैं। इस मॉडल में केबल टेलीविजन मुहैया कराने वाले प्लेटफार्म जैसे टाटा स्काई, हैथवे, रिलायंस डिजीकॉम आदि और टीवी चैनलों के बीच का समझौता, निजी कांट्रैक्टों के रूप में होता है। ये सभी कांट्रैक्ट अलग-अलग और चैलनों तथा प्लेटफार्मों की सापेक्ष ताकत के हिसाब से, सौदेबाजी के नतीजे में सामने आते हैं। मिसाल के तौर पर ईएसपीएन तो अपना फीड मुहैया कराने के लिए, इन प्लेटफार्मों से फीस लेता है, जबकि कुछ अन्य चैनलों को अपनी फीड प्रसारण में शामिल कराने के लिए, इन प्लेटफार्मों को फीस देनी पड़ रही हो सकती है। बहरहाल, इस तरह का मॉडल तब तक फिर भी ठीक से चल सकता है, जब तक प्लेटफार्मों तथा चैनलों की संख्या बहुत ज्यादा न हो। फिर भी यह अपेक्षाकृत छोटे खिलाडिय़ों की तो छंटनी कर ही देता है क्योंकि चैनलों की दुनिया के बड़े खिलाड़ी ही दुनिया भर में ऐसे प्लेटफार्मों पर जगह हासिल कर सकते हैं। इंटरनैट ऑर्ग या एअरटैल जीरो वास्तव में इंटरनैट को भी केबल टेलीविजन प्लेटफार्म के समकक्ष में तब्दील करने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह, इंटरनैट का जो वर्तमान अनुमति-मुक्त कनेक्शन मॉडल है उसकी जगह पर, निजी कांट्रैक्ट आधारित मॉडल को ही थोपने की कोशिश की जा रही है।

इंटरनैट की दुनिया पहले ही एक अरब वैबसाइटों का मुकाम पार कर चुकी है। इसमें से 85 करोड़ वैबसाइटें सक्रिय हैं। इस पृष्ठभूमि में केबल टीवी मॉडल के अपनाए जाने का अर्थ यह होगा कि इनमें से नगण्य सी संख्या ही कभी भी ऐसे प्लेटफार्मों से निजी कांट्रैक्ट के लिए सौदेबाजी कर पाएगी या उसके पास इन प्लेटफार्मों की फीस भरने के लिए संसाधन होंगे। यह सस्ते इंटरनैट का नहीं बल्कि इंटरनैट तथा टेलीकॉम की उभरती इजारेदारियों द्वारा सार्वजनिक इंटरनैट की बड़े पैमाने पर बाड़ेबंदी किए जाने का मामला है।

इंटरनैट, हाल के दौर के सबसे महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकीय विकासों में से एक है। यह ज्ञान तक पहुंच मुहैया कराता है, संचार का साधन है और बढ़ते पैमाने पर वाणिज्य का मंच बनता जा रहा है। इंटरनैट की विशाल कंपनियों तथा दूरसंचार कंपनियों द्वारा अब कार्टेल बनाकर, इंटरनैट पर ही बाड़ेबंदी करने की कोशिश की जा रही है। आज यही खतरा हमारे सामने खड़ा है और इसीलिए, इंटरनैट की तटस्थता की रक्षा करना हम सभी के लिए इतना जरूरी है।

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते । - See more at: http://hindi.newsclick.in/%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96/%E0%A4%95%E0%A5%8…

 

 

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