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जियो इंस्टीट्यूट और उच्च शिक्षा

कुल मिलाकर देखें तो मोदी सरकार की नीति और नीयत उच्च शिक्षा में फंडिंग की कटौती के लिए नित नए नियमन की है।
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इंस्टीट्यूटस ऑफ एमिनेन्स की घोषणा के बाद आम जनता को भी सरकार की उच्च शिक्षा नीति को समझना आसान होता दिख रहा है। जिओ विश्वविद्यालय को इन छह संस्थानों की कोटि में आने का आधार किसी को भी समझ नहीं आया। जो विश्वविद्यालय प्रस्तावित मात्र हो उसे कैसे चुन लिया गया? समझ आया तो बस इतना कि अम्बानी-मोदी रिश्ते का यह मात्र पुरस्कार है। तब जब ग्रेडेड ऑटोनोमी की लिस्ट जारी की गई थी, मात्र दिल्ली विश्वविद्यालय के अतिरिक्त अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से ही प्रतिरोध के स्वर उभरते हुए दिखाई दिए। सरकार ने समझदारी दिखाते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के दो कॉलेज के नाम को लिस्ट से बाहर कर अपनी नीति को आगे ले जाने का काम किया। आम जनता को तब भी समझ नहीं आया कि मुद्दा क्या है! ऐसा ही मोदी सरकार ने अनुदान की कटौती 70:30 के संदर्भ में भी किया। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक-छात्र आंदोलन के उभरते ही उसने शत प्रतिशत अनुदान का वादा किया। पिछले हफ्ते यूजीसी एक्ट को बदलकर HECI लाने के प्रस्ताव पर चर्चा हो ही रही थी कि इंस्टीट्यूटस ऑफ एमिनेन्स की घोषणा की गई। सोसल मीडिया पर इसका जो मजाक बना हुआ है, क्या यह इस सरकार की अनभिज्ञता का परिणाम है? इसकी पड़ताल जरूरी है।

यह अब सर्वविदित है कि यूजीसी और योजना आयोग की स्थापना आज़ादी के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था की परिकल्पना के साथ हुआ। नवउदारवादी दौर में योजना आयोग रुकावट की भूमिका निभाने लगा तो मोदी की मजबूत सरकार ने योजना आयोग को ही समाप्त कर बाजार आधारित नीति को लागू कर दिया। योजना की जगह एक संस्था बना दी गयी जिसे नीति आयोग कहा गया। कहने को यह आयोग है। राज्यों के विकास की योजना में केंद्र के साथ तालमेल का यह आयोग समाप्त कर दिया गया। किसी भी योजना के लिए आर्थिक आवंटन जरूरी है। आर्थिक आवंटन को खत्म करते ही योजना का कोई मतलब नहीं रह जाता। यह एक अकादमिक गतिविधि मात्र रह जाता है।

नीति आयोग वैसे ही हालत में पहुँच गया है। ठीक यही प्रक्रिया यूजीसी के साथ अपनायी जा रही है। यूजीसी का संबंध नियमन और अनुदान दोनों से है। अटल बिहारी वाजपेयी के समय ही बने बिड़ला-अम्बानी कमेटी से लेकर मनमोहन सिंह के नेशनल नॉलेज कमीशन और फिर यशपाल कमेटी तक - नियमन और ग्रांट को अलग करने का दवाब बनाया जाता रहा। मनमोहन सिंह की सरकार ने इसे लागू करने के लिए कई बिल लाने की कोशिश की पर संसद में बहुमत न होने के कारण उसे सफलता नहीं मिल सकी। हारकर मनमोहन की सरकार ने यूजीसी के जरिए नए नए नियमन लाने की प्रक्रिया शुरू की। इन्हीं नियमनों के जरिए नेक लाया गया जिसका काम एक्रीडिटेशन था। ग्रांट को रोकने की धमकी के जरिए नेक को देश भर में लागू कराया गया। यूजीसी के एक्सिक्यूटिव ऑर्डर के जरिये एवं ग्रांट रोकने की धमकी का सहारा लेकर सेमेस्टर सिस्टम को लागू किया गया। सीबीसीएस के साथ कॉमन ग्रेडिंग सिस्टम को भी लागू करवाया गया। कांग्रेस के दौर में ही इन परिवर्तन कीअगली कड़ी चार साला स्नातक कार्यक्रम को लागू करना था। दिल्ली विश्वविद्यालय में इसके विरोध एवं जनांदोलन के कारण सभी प्रमुख दलों ने इसे वापस लेने का चुनावी वादा किया। यही कारण था कि कांग्रेस की जबरदस्त हार के बाद भाजपा पर जनदवाब बना और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने इसे वापस करवाया। चार साला स्नातक कार्यक्रम के वापसी के लिए यूजीसी का ही सहारा लिया गया।

कहने का आशय यह कि विभिन्न सरकारों ने उच्च शिक्षा में परिवर्तन के लिए भी यूजीसी का ही सहारा लिया और जनांदोलन के बाद उन परिवर्तनों को पलटने के लिए भी यूजीसी का ही सहारा लिया। आज इस यूजीसी को ही खत्म करने की योजना फिर क्यों है ? यह संस्थान अगर सरकार के निर्देशन पर ही नियमन करने को तत्पर है तो फिर इसके अंत केI जरूरत क्या है ? क्योंकि नियमन से ज्यादा है जरूरी है ग्रांट आधारित उच्च शिक्षा व्यवस्था का अंत करना। सो जैसे योजना आयोग के तर्ज पर यूजीसी के अंत की भी तैयारी है।

पे कमीशन के मुद्दे पर चल रहे आंदोलन में AIFUCTO(ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ यूनिवर्सिटी एन्ड कॉलेज टीचर्स ऑर्गेनाइजेशन) एवं FEDCUTA(फेडरेशन ऑफ सेंट्रल यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोशिएशन) के प्रतिनिधियों से बात करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बहुत साफ कहा कि केंद्रीय विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी उनकी है लेकिन राज्यों के कॉलेज एवं विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी उनकी नहीं है। इसे समझना बहुत जरूरी है। यह सरकार यूजीसी से राज्यों के विश्वविद्यालयों को 50% ग्रांट का हिस्सा भी देने को तैयार नहीं हो रही है। फंड में कटौती की आखिर वजह क्या है ?

यहीं पर मोदी सरकार की 2016 के बजट की घोषणाओं को भी समझने की जरूरत है। उस बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने HEFA(हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी) की घोषणा के साथ ही इंस्टीट्यूटस ऑफ एमिनेन्स के लिए भी वित्तीय आवंटन का आश्वासन दिया। क्या है यह HEFA ? बैंक ऑफ बड़ौदा को इस फंड के रेगुलेशन की जिम्मेदारी दी गयी। कहा गया कि अब किसी भी संस्थान को नए कोर्स या इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए इस फंड से कर्ज दिया जाएगा। मतलब साफ था- अनुदान का विकल्प कर्ज की नीति। अनुदान को लौटाया नहीं जाता। कर्ज तो सूद समेत लौटाना होगा। किसी कोर्स या विभाग के लिए लिए गए कर्ज को कोई संस्था कैसे चुकायेगी ? साफ है छात्रों की फीस में बढ़ोत्तरी ही मात्र विकल्प होगा। यहीं से यूजीसी का विकल्प भी तैयार किया जा रहा था।

अटल युग से लेकर मनमोहन युग तक यह साफ कर दिया गया कि उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी मात्र केंद्र एवं राज्य सरकार की नहीं हो सकती है। ऐसे में उच्च शिक्षा की बढ़ती जरूरत को पूरा करने की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को सौंपनी होगी। इसके लिए डीम्ड यूनिवर्सिटी की अवधारणा लायी गयी। इसके नियमन की जिम्मेदारी यूजीसी को दी गयी। देखते देखते कुकुरमुत्ते की तरह डीम्ड यूनिवर्सिटी और उनसे जुड़े संस्थान देशभर में पसर गए। डिग्रियाँ खरीदी जाने लगीं तो फिर से गुणवत्ता का सवाल महत्त्वपूर्ण हो गया। फर्जी कॉलेज एवं विश्वविद्यालय की रोक और जनता के पैसों की लूट का भी सवाल आ गया। इसी का आधार लेकर NAAC(नेशनल असेसमेंट एंड अक्रेडिटेशन कॉउंसिल) को लागू करवाया गया। कहा गया कि छात्र उपभोक्ता हैं और उन्हें अपने खरीद की जाने वाली कॉमोडिटी का पता होना चाहिए। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अपने उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखे। आगे चलकर यही NAAC ग्रांट से जोड़ दिया गया। इसी का नाम ‘ग्रेडेड ऑटोनोमी’ है। ‘NAAC की ग्रेडिंग नहीं तो यूजीसी से अनुदान नहीं’- यह मनमोहन युग का नारा था। ‘NAAC से जैसा ग्रेड वैसा अनुदान एवं वैसी स्वायत्तता’ - यह मोदी युग का नारा है।

यहीं पर यह समझना जरूरी है कि NAAC की ग्रेडिंग से अनुदान एवं स्वायत्तता का क्या संबंध है ? बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट ने उच्च शिक्षा की पहचान अरबों डॉलर के व्यापार क्षेत्र के तौर पर की। WTO का दवाब इस क्षेत्र को व्यापार के लिए देशी-विदेशी पूंजी के लिए खोलने की बनी हुई थी। जिसका मतलब था कि उच्च शिक्षा में देशी-विदेशी पूंजी को मुनाफा कमाने के लिए समान अवसर प्रदान करना। जिसके लिए अन्य सेवा क्षेत्रों की तरह इसे भी सरकारी सहायता के लिए समान नियमन की आवश्यकता है। जिसे सरल भाषा में समझें तो यह अर्थ है कि अगर सरकारी कॉलेज को अनुदान दिया जाएगा तो निजी संस्थानों को भी उसी के अनुपात में अनुदान देना होगा। अगर दिल्ली विश्वविद्यालय को अनुदान मिलेगा तो गलगोटिया यूनिवर्सिटी को भी उसी अनुपात में अनुदान देना होगा। इसी तरह अन्य विदेशी संस्थानों को भी अनुपातिक अनुदान देना होगा। WTO के दवाब में ही सरकारी टेलीफोन कंपनियों को निगम बनाकर यही किया गया था।

मतलब सरकारी दूर संचार विभाग  BSNL और MTNL निगम बन गयी जिसे सरकार ने अनुदान देना बंद कर दिया। उसे एयरटेल, जिओ और वोडाफोन के साथ कॉम्पिटिशन करना पड़ा। इन सबको एक समान अवसर प्रदान करने की नीति ही नवउदारवादी नीति कहलाती है। यही नीति विश्वविद्यालय एवं कॉलेज के लिए भी लागू करने का दवाब बनाया जाता रहा है। इसी कारण विभिन्न सरकारों ने तमाम नीतियां बनायीं। अनुदान को खत्म करने का ही तरीका ग्रेडेड ऑटोनोमी है। जिन संस्थानों को ग्रेड A+ प्राप्त होगा उसे स्वायत्तता देने की घोषणा की गई। मतलब वे यूजीसी के नियमन से आजाद होकर अपना कोर्स, सिलेबस, परीक्षा और शिक्षकों की नियुक्ति एवं सेवा शर्त बना सकेंगे। उन संस्थानों के मैनेजमेंट को इस सब की आज़ादी होगी और वे विद्यार्थियों से जितनी फीस वसूलना चाहें वसूल सकते हैं। उन्हें यूजीसी से अनुदान नहीं मिलेगा। वे HEFA से सस्ते व्याज दर पर कर्ज प्राप्त कर सकेंगे। इसी के उलट जिन संस्थानों की ग्रेड खराब होगी उन्हें बंद करने का अधिकार HECI को देने का प्रावधान किया गया है। यूजीसी के पास ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। ध्यान रहे यह पब्लिक फंडेड इंस्टीट्यूट पर लागू किया जाएगा।

नवउदारवाद की नीति को लागू करने का एक सफल तरीका यह रहा है कि पहले उनकी फंडिंग को कम से कमतर किया जाए जिससे उनकी गुणवत्ता खराब हो। इसके बाद गुणवत्ता का सवाल खड़ा कर उन्हें जनता की नजरों में गिराया जाए। फिर अगला कदम उन संस्थानों को निजी हाथों में मुनाफा कमाने के लिए सौंप दिया जाए। यही तरीका स्कूल शिक्षा का रहा, यही फॉर्मूला हॉस्पिटल के निजिकरण के लिए अपनाया गया। अब यही तरीका उच्च शिक्षा के लिए अपनाया जा रहा है।

कुल मिलाकर देखें तो मोदी सरकार की नीति और नीयत उच्च शिक्षा में फंडिंग की कटौती के लिए नित नए नियमन की है। इसी के लिए NAAC है, इसी के लिए ग्रेडेड ऑटोनोमी है, इसी के लिए HEFA है और इसी के लिए यूजीसी एक्ट के विकल्प HECI है। गुणवत्ता और स्वायत्तता तो बहाना है, उच्च शिक्षा का निजीकरण असली निशाना है। यही कारण है कि स्थायी नियुक्ति, प्रमोशन, पेंशन सब आज खतरे में है। इसपर कोई प्रगति नहीं। सामाजिक न्याय पर हमला जारी है। निजीकरण का सीधा असर समाज के परिधि पर स्थित लोगों पर होना है। चाहे लड़कियां हों या दलित-पिछड़ा समाज। भारत जैसे विविधताओं वाले देश में उच्च शिक्षा की नीति में क्वालिटी की बात बिना इक्विटी के क्या संभव है ? साफ है कि इक्विटी के सवाल पर मोदी सरकार चुप है। नई शिक्षा नीति लाने की घोषणा घोषणा ही बनकर रह गई। इंस्टिट्यूटस ऑफ एमिनेन्स में जिओ यूनिवर्सिटी को शामिल कर मोदी जी ने साफ संकेत दे दिया है - जिसके पास पैसा है उसी को उच्च शिक्षा मिलेगी। यही इस सरकार की शिक्षा नीति और नीयत है।

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