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जटिल चुनावी परिदृश्य में छिपी चिंताएं

परिस्थितियां बहुत आशाजनक नहीं हैं। आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री अपनी दम्भोक्तियों में स्वयं को एक अपराजेय महामानव के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। चुनाव आयोग अपनी कार्य प्रणाली के द्वारा खुद पर विपरीत टीका टिप्पणी के ढेरों अवसर प्रदान कर रहा है...।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: Newslaundry

चुनाव धीरे धीरे अपने अंतिम चरण में पहुंच रहा है। प्रधानमंत्री और इस चुनाव में उनके प्रचार अभियान का नेतृत्व करते मीडिया समूह दोनों पुरजोर कोशिश में लगे हैं कि इस चुनाव को व्यक्ति नरेंद्र मोदी पर केंद्रित कर दिया जाए। ऐसा लगने लगा है कि यह हमारे संसदीय लोकतंत्र का चुनाव न होकर किसी ऐसे देश का चुनाव है जहां राष्ट्रपति प्रणाली अस्तित्व में है। इस चुनाव में प्रधानमंत्री के प्रचार की कमान बहुत वफादारी से संभालते मुख्य धारा के मीडिया का एक बड़ा भाग तो इससे भी आगे बढ़ते हुए इसे एक जनमत संग्रह का रूप देने में लगा है- एक ऐसा जनमत संग्रह जिसके नतीजे पहले से तय हैं, मोदी जी की महानता पर जनता की मुहर लग चुकी है और बस उस तिथि का इंतजार है जिस तिथि को इस पूर्व निश्चित परिणाम की आधिकारिक घोषणा होगी। जनता का मूड भांपते एंकर केवल मोदी जी के विषय में सवाल कर रहे हैं। जो जनता टीवी पर दिखाई जा रही है वह मोदी समर्थकों की कल्पना से भी अधिक उनकी दीवानी है और सत्तारूढ़ दल के जिन प्रत्याशियों से सवाल पूछे जा रहे हैं उनका कहना है कि वे बस मोदी जी के प्रकाश से आलोकित हैं, उनके पास अपना ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वे गर्वपूर्वक जनता के साथ साझा कर सकें। प्रधानमंत्री जी के कुछ साक्षात्कार प्रसारित और प्रकाशित हो रहे हैं। इनका स्वर बहुत अजीब है। लगता है कि ये चुनावों के नतीजे आने के बाद के साक्षात्कार हैं। विजेता महानायक के आभामंडल से चमत्कृत पत्रकार बालसुलभ कौतुक से यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर इतनी अद्भुत विशेषताएं एक साथ इतनी मात्रा में उस महानायक में कैसे उपस्थित हैं। उसका हर विचार युगांतरकारी है। उसका हर कदम आम मानव की सोच से दशकों आगे है। वह न खाता है, न सोता है, न उसे कोई लोभ है- बस दिन रात वह जनता की सेवा में लगा रहता है। प्रश्न कर्ताओं की श्रद्धा और समर्पण से आनंदित हो प्रधानमंत्री उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते हैं।

प्रधानमंत्री के चुनाव अभियान में प्रतिशोध की छाया स्पष्ट दिखती है। प्रधानमंत्री को सुनकर कई बार तो ऐसा लगता है कि हम पंडित नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी या श्री राजीव गांधी के जीवनकाल में हुए किसी चुनाव में भाग ले रहे हैं। उन्होंने अपने भाषणों में एक शीर्ष राजनैतिक परिवार के सदस्यों को जेल के दरवाजे तक पहुंचाने को अपने वर्तमान कार्यकाल की एक बड़ी उपलब्धि बताया है और जनता से यह वादा किया है कि उनके आने वाले कार्यकाल में इन सदस्यों की जगह जेल के अंदर होगी। जिस तरह भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रधानमंत्री जी की लड़ाई का आधार प्रतिशोध है उसी प्रकार उनका दूसरा प्रमुख चुनावी मुद्दा राष्ट्रवाद भी प्रतिशोध की बुनियाद पर ही आधारित है- वे स्वयं को एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो शत्रु देश से बदला लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, जिसके अनुसार परमाणु बम दीपावली के लिए नहीं बनाए गए हैं। आधुनिक सामरिक परिदृश्य की बहुत साधारण सी समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि युद्ध और विशेषकर परमाणु युद्ध देश को दशकों पीछे धकेल देगा और सामरिक जय पराजय की कसौटी पर परिणाम जितना भी सकारात्मक हो इसमें जनता की हार तय है। यह बहुत चिंतित करने वाला है कि प्रधानमंत्री अपने भाषणों में अपनी प्रतिशोध लेने की योग्यता को आधार बनाकर वोट मांग रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम से जानबूझकर दूरी बनाने वाली और स्वतंत्रता के उपरांत महात्मा गांधी की हत्या के संबंध में अपने रुख के कारण लगभग बहिष्कृत हो चुकी विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले प्रधानमंत्री जी की दमित इच्छाओं को समझा जा सकता है। उन्होंने लंबे वैचारिक निर्वासन के बाद वापसी की है किंतु इस वापसी का कारण वे मुद्दे नहीं थे जिन्हें लेकर मोदी जी आज जनता के बीच जा रहे हैं। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई और भ्रष्टाचार मिटाने की उम्मीद लगाए लोगों ने उनमें कुछ संभावना देखी थी तभी उन्हें चुना था। किंतु प्रधानमंत्री जी ने स्वयं को मिले अवसर का उपयोग मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए जनता को उन मुद्दों पर सोचने के लिए प्रशिक्षित करने हेतु किया जिन्हें लेकर वे आज जनता के बीच जा रहे हैं। उन्होंने सारे आवरण उतार दिए हैं और अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को खुलकर उजागर कर रहे हैं। मोदी जी ने अपना बौद्धिक पोषण जिस विचारधारा से प्राप्त किया है उस विचारधारा को देश आज जिस राह पर चल रहा है उस राह से बहुत शिकायतें हैं। इस विचारधारा के अनुयायियों के न केवल अपने नायक हैं अपितु उनकी दृष्टि में अनेक वर्तमान राष्ट्र नायक खलनायकों का दर्जा रखते हैं। हिंदुत्व की जिस अवधारणा पर वे विश्वास करते हैं उसका हिंदू धर्म से कुछ विशेष संबंध नहीं है। इनकी राष्ट्र की अपनी परिभाषा है जो बहुसंख्यकवाद पर आधारित है और संविधान की बहुत सी बातों को लेकर इनकी घोर असहमति है। इनमें से अनेक संविधान की कथित गलत संरचना को देश की कई मौजूदा समस्याओं के लिए उत्तरदायी मानते हैं। जनता यदि मोदी जी के करिश्मे से प्रभावित होकर उन्हें चुनती है तो राष्ट्र के संचालन का यह मॉडल शायद उसे फ्री गिफ्ट में मिलेगा।

कांग्रेस और उसके शीर्ष नेताओं ने अपने घोषणा पत्र और भाषणों के माध्यम से चुनाव को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य तथा किसानों की समस्या जैसे बुनियादी मुद्दों की ओर ले जाने की पुरजोर कोशिश की है। किंतु मीडिया के समर्थन के अभाव में ये मुद्दे जनता तक पहुंच पाए हैं अथवा नहीं यह कहना कठिन है। रफ़ाल के मुद्दे पर भी मीडिया ने वह चुस्ती और तेजी नहीं दिखाई है जो कभी उसने बोफोर्स मामले में या अन्ना आंदोलन के दौरान दिखाई थी। मीडिया ने पिछले चुनाव में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे नायक गढ़े थे जिनके विषय में तब यह कल्पना करना भी अपराधबोध से भर देता था कि वे एक प्रायोजित मुहिम का हिस्सा हैं जिसका लाभ अंततः मोदी जी को मिलना है।

देश की अधिकांश मीडिया कंपनियों पर व्यावसायिक घरानों का कब्जा है। कहा जाता है कि व्यापारियों के कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होते हैं, उनके लिए व्यावसायिक हित सर्वोपरि रहते हैं। चुनाव के पांच चरण पूर्ण होने के बाद भी मीडिया के रुख में कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। वह मोदी जी के प्रति यथावत समर्पित है। क्या वह आश्वस्त है कि चुनाव में मोदी जी सफल होंगे? क्या वह व्यक्ति मोदी के प्रति प्रतिबद्ध है या उस विचारधारा के प्रति जिसके लिए मोदी जी की गहरी सहानुभूति है? यदि किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाता है तो क्या मीडिया मोदी जी के स्थान पर किसी नए नायक का सृजन करेगा? क्या मोदी जी चुनाव के ऐसे नतीजों को स्वीकार कर पाएंगे जो उनकी अपेक्षाओं के विपरीत होंगे? क्या विपक्ष ऐसे नतीजों को स्वीकार कर पाएगा जो उसकी उम्मीदों से बिल्कुल उलट होंगे? आने वाले समय में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की क्या भूमिका होगी? क्या देश के भाग्य में कुछ अप्रत्याशित लिखा है? इन प्रश्नों के उत्तर समय ही देगा।

परिस्थितियां बहुत आशाजनक नहीं हैं। आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री अपनी दम्भोक्तियों में स्वयं को एक अपराजेय महामानव के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। चुनाव आयोग अपनी कार्य प्रणाली के द्वारा खुद पर विपरीत टीका टिप्पणी के ढेरों अवसर प्रदान कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बिना प्रक्रियाओं का पालन किए खुद को निर्दोष मान रहे हैं। उनके द्वारा ऐसी शक्तियों के षड्यंत्र की बात कही जा रही है जो इस अत्यंत महत्वपूर्ण समय में फैसलों को प्रभावित करना चाहती हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा हर वह कार्य कर रहा है जो उसके लिए अकरणीय है। आशा करनी चाहिए कि भ्रम, संदेह और संशय के इस वातावरण के बावजूद कोई ऐसा नतीजा सामने आएगा जिसमें लोकतंत्र की जीत छिपी होगी।

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