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झारखंड : क्या रंग लाएगा अबकी बार आदिवासियों का वार ?

धर्मांतरण के नाम पर भाजपा द्वारा आदिवासी समाज में ‘सरना – ईसाई विवाद' के सांप्रदायिक जहर फैलाने की इस साजिश का पूरे राज्य में मुखर विरोध भी जारी है। सारे विपक्षी राजनीतिक दलों ने जहां आरोप लगाया है कि धर्म के बहाने सरकार ने आदिवासियों की बची खुची ज़मीनों पर नज़र गड़ा रखी है। विरोध में खड़े अनेक सामाजिक व नागरिक संगठन व बुद्धिजीवी इसे संविधान के मौलिक और धार्मिक स्वतन्त्रता के नागरिक अधिकारों का खुला हनन बता रहें हैं।
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ज्यों-ज्यों 2019 का चुनावी मौसम नजदीक आता जा रहा है, झारखंड के वर्तमान भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री जी पार्टी की जीत के लिए हर दिन  नयी आक्रामक कवायद आजमा रहें हैं। बावजूद इसके सबकुछ सामान्य नहीं दीख रहा है।राज्य विधान सभा में भले ही उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल होने के कारण विपक्ष को वे कुछ भाव नहीं देते। लेकिन सदन से बाहर सड़कों पर पूरे प्रदेश में राज्य के बहुसंख्य आदिवासी समुदाय के सबसे अधिक निशाने पर वे ही हैं । जिनका उनकी सरकार के खिलाफ निरंतर जारी जमीनी विरोध , उनकी विजयरथ के आगे एक गंभीर चुनौतीपूर्ण संकट बना हुआ है।

इससे निपटने के लिए आदिवासी इलाकों में माओवादी व उग्रवादी हिंसा रोकने से लेकर ‘ पत्थलगड़ी  ‘ अभियानों को राष्ट्रविरोधी घोषित कर जगह जगह सीआरपी / पुलिस कैंप बिठाकर शासन-शक्ति का दबाव कायम किया जाना,एक स्थायी कदम के रूप में तो साफ दीख रहा है।

बहुप्रचारित आदिवासी धर्मांतरण मुद्दे का राजनीतिक दांव एक बहुआयामी  प्रभाव वाला कदम बनकर सामने आया है। जिसकी सफलाता पर कई दूरगामी परिणामों का भविष्य टिका हुआ है । हाल ही में आदिवासी सामाजिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा सोशल साईट पर दी गयी खबर के अनुसार - राज्य के मुख्यमंत्री के जारी आदेश से प्रदेश में धर्मांतरण करनेवाले आदिवासियों को अब मूल आदिवासी होने का जाति प्रमाण पत्र संभवतः नहीं मिल सकेगा।  स्व-ज़मीन के खतियानी पहचान के आधार पर जो जाति का प्रमाण पत्र मिल रहा था, उसे रोक दिया गया है। आदिवासी जाति का प्रमाण पत्र लेनेवाले प्रत्येक आवेदक के मूल आदिवासी होने की अब गहन सरकारी पड़ताल होगी । जिसमें आवेदक आदिवासी के अपने पारंपरिक रीत –रिवाज , विवाह तथा उत्तराधिकारी होने इत्यादि रूढ़ प्रथाओं से जुड़े होने के सत्यापन उपरांत ही उसे जाति प्रमाण पत्र मिल सकेगा । इसी आधार पर वह आरक्षण लेने के भी योग्य माना जाएगा । ऐसे आदिवासी जिन्होंने धर्म परिवर्तन कर ईसाई या अन्य किसी दूसरे धर्म को अपना लिया है, उन्हें आदिवासी होने का प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं पूर्व में दिया गया जाति प्रमाण पत्र भी खारिज  किया जायेगा। चर्चा है कि मुख्यमंत्री ने राज्य के महाधिवक्ता की सलाह से कार्मिक विभाग को आदेश दिया है की वह सभी जिलों के डीसी को इसके लिए निर्देश जारी करे।

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हालांकि ऐसे आदेश के जारी होने की अभी तक कोई प्रामाणिक और आधिकारिक सूचना सामने नहीं आई है। लेकिन चर्चाओं में इसके सच होने की आशंका तो व्यक्त की ही जा रही है । क्योंकि इससे पहले भी विवादित ‘ लैंड – बैंक ‘ योजना को लागू करने के लिए राज्य सरकार ने बिना किसी शोर-शराबे और जनता को सूचित किए प्रदेश के सभी प्रकार की गैरमजरूआ ज़मीनों की रसीद काटने पर रोक लगाकर उनपर सरकारी कब्जा घोषित कर दिया था।

आदिवासी धर्मांतरण का मुद्दा भाजपा का एक प्रभावी राजनीतिक दांव रहा है । जिसे झारखंड में खेलने की सूनियोजित रणनीति के तहत ही पिछले वर्ष के जून माह में विधान सभा में ‘ धर्मांतरण बिल ‘ जबरन पारित कराया गया । जिसे मीडिया द्वारा राज्य के आदिवासियों में भाजपा की मजबूत पैठ बनाने वाले ‘मास्टर स्ट्रोक ‘बताकर सरकार की सराहना भी की गयी । जिसकी शुरुआत 2005 में राज्य के पूर्व की सरकारों ने आदिवासियों को दिये जाने वाले जिस जाति प्रमाण पत्र में से धर्म का जो कॉलम हटा दिया था , 2016 में सत्तासीन होते ही भाजपा शासन ने फौरन उस कॉलम को फिर से जोड़कर किया । मामले को आगे बढ़ते हुए राज्य कैबिनेट की मंजूरी से ‘झारखंड धर्मांतरण विधेयक 2017 ‘लाकर एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाया गया । व्यापक स्तर संगठित दुष्प्रचार चलाया गया कि -- चर्च भोले भाले गरीब आदिवासियों की मजबूरी का फायदा उठाकर बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन करा रहा है । धर्म परिवर्तित कर ईसाई बनने वाले आदिवासी अल्पसंख्यक होने की सुविधा का भी लाभ उठा रहें हैं और बाकी सभी आदिवासियों का हक़ मार रहें हैं । इस अन्याय को रोकने और ज़रूरतमन्द आदिवासियों को आरक्षण का अधिक से अधिक लाभ देने के लिए ही सरकार ने यह कड़ा कानून लाया है। इस तर्क की ऐतिहासिकता प्रमाणित करने के लिए 11 अगस्त ’18 को प्रदेश के सभी अखबारों में गांधी जी की बड़ी तस्वीर के साथ ये संदेश भी प्रकाशित कराया गया कि - गांधी जी ईसाई धर्म के खिलाफ थे।

हालांकि धर्मांतरण के नाम पर भाजपा द्वारा आदिवासी समाज में ‘सरना – ईसाई  विवाद' के सांप्रदायिक जहर फैलाने की इस साजिश का पूरे राज्य में मुखर विरोध भी जारी है। सारे विपक्षी राजनीतिक दलों ने जहां आरोप लगाया है कि धर्म के बहाने सरकार ने आदिवासियों की बची खुची ज़मीनों पर नज़र गड़ा रखी है  विरोध में खड़े अनेक सामाजिक व नागरिक संगठन व बुद्धिजीवी इसे संविधान के मौलिक और धार्मिक स्वतन्त्रता के नागरिक अधिकारों का खुला हनन  बता रहें हैं । कैथोलिक बिशप कान्फ्रेंस ऑफ इंडिया के महासचिव ने तो कहा है कि – चर्च आदिवासियों की ज़मीन के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है इसीलिए सरकार हमारे पीछे पड़ी हुई है । वहीं , कई आदिवासी विद्वानों – विचारकों ने सरकार के इस कदम को आदिवासी और आदिवसीयत दोनों को समाप्त करनेवाला कहा है । उन्होंने यह भी कहा है कि जो  सरकार आदिवासियों की ज़मीनें व उसके नीचे के खनिज लूट के लिए हर दिन सारे संवैधानिक नियमों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को धज्जियां उड़ा रही है , उसके द्वारा धर्मांतरण कानून के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देना , कानून का मज़ाक ही है।  

आदिवासियों धर्मांतरण के नाम पर आदिवसी समाज का सांप्रदायिक विभाजन कर उनकी ज़मीन और आरक्षण दोनों को खत्म कर देने की सुनियोजित कवायद,भाजपा समेत संघ परिवार व अन्य अनुषांगिक संगठनों द्वारा काफी लंबे समय से चलाया जा रही है। लेकिन ज्यों-ज्यों 2019 का चुनावी मौसम नजदीक आता जा रहा है प्रदेश की भाजपा सरकार अपने विरोधी आदिवासियों और उनके वोटों को काबू में कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रही है। ऐसे में यदि राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा धर्मांतरित आदिवासियों के आरक्षण समाप्त करने के निर्देश का जारी होना कोई अनहोनी नहीं होगी। क्योंकि इससे कई विरोधी दिग्गज आदिवासी नेताओं को एसटी रिजर्व सीटों पर खड़ा होने से रोकने का तात्कालिक लाभ तो मिल ही जाएगा। दूसरी ओर, सरना – गैर सरना ( ईसाई ) विवाद को तीखा कर आदिवासी समाज के अंदर अपनी पैठ बढ़ाते हुए विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण को भी कमजोर किया जा सकता है।

 

                            

 

   

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