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झारखंड : पत्थलगड़ी आंदोलन से चुनाव कितना प्रभावित होगा?

झारखंड गठन से पहले के कई दशक और झारखंड बनने के बाद के इन दो दशकों के दौरान जल, जगंल और ज़मीन का मुद्दा सबसे आम रहा है।
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क़रीब 40 साल की उम्र वाले मंगरा मुंडा इन सर्दियों में तय झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान सात दिसंबर को अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। मंगरा मुंडा का ज़िक्र यहां इसलिए हो रहा है क्योंकि वे खूंटी ज़िले के उस जिकीलता गांव के रहने वाले हैं जहां तक़रीबन तीन साल पहले पत्थलगड़ी की गई थी। आपको बता दें कि पत्थलगड़ी आंदोलन का नारा है- 'न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा।' हालांकि जिकीलता गांव के मंगरा मुंडा ने कहा कि वो इस बार विधानसभा चुनाव में अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं।

कुछ ऐसा ही कहना पड़ोस के उदबुरू गांव के तिंगा मुंडा का भी है। इस गांव में भी पत्थलगड़ी की गई थी। तिंगा ने बताया, "अभी ग्रामसभा की बैठक नहीं हुई है इसलिए तय नहीं हो पाया है कि किसे वोट करना है लेकिन यह तय है कि वोट डालने हम लोग जाएंगे। यह हमारा अधिकार है। इस गांव में चुनाव प्रचार करने भी कुछ लोग आए थे।"

आपको बता दें कि झारखंड की राजधानी रांची से क़रीब बीस किलोमीटर के फ़ासले पर आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित खूंटी ज़िले की सीमा शुरू होती है। यह ज़िला कुछ साल पहले रांची से टूटकर बना था और गुमला, सिमडेगा, पश्चिम सिंहभूम और लातेहार जैसे इलाक़ों से घिरा है।

आप इस ज़िले में जाएंगे तो जंगल-पहाड़ और आदिवासियों के गांव पाएंगे। साथ ही ज़ेहन में भारत के दो नायकों का ख़याल आएगा। इसी धरती के बिरसा मुंडा महज़ 25 साल की उम्र में शहीद हुए थे। बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ उलगुलान यानी क्रांति का आह्वान किया था। छोटी सी अवधि में उन्होंने अंग्रेज़ों को झारखंड के जंगलों से कई बार खदेड़ा।

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खूंटी की ही धरती पर पैदा हुए जयपाल सिंह मुंडा हॉकी के धुरंधर खिलाड़ी रहे। इनकी अगुवाई में ब्रिटिश भारत ने ओलंपिक में हॉकी गोल्ड मेडल जीता था। जयपाल सिंह मुंडा उन चुनिंदा लोगों में से थे जिन्होंने आज़ादी से पहले ही अलग झारखंड का सपना देखा था। जब देश का संविधान लिखने की बारी आई तो ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़े जयपाल सिंह मुंडा संविधान सभा के सदस्य बने।

लेकिन बड़े अफ़सोस की बात यह है कि बिरसा मुंडा और जयपाल मुंडा की परंपरा के आदिवासियों को आज राजद्रोह जैसे औपनिवेशिक क़ानून के खौफ़ का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही गांवों की हालत बदतर नज़र आ रही है। जंगलों और पहाड़ों के बीच बसे गांवों में बेबसी, ग़रीबी, भूख, रोज़गार, दिहाड़ी की पीड़ा कहीं ज़्यादा नज़र आती है। विकास के तमाम दावे और योजनाओं की लंबी फ़ेहरिस्त के बाद भी बड़ी आबादी रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, सिंचाई, बिजली की मुकम्मल सुविधा से वंचित है।

लोग नदी-चुंआ का पानी पीने को विवश हैं। दिहाड़ी खटकर बमुश्किल पेट भर सकें, तो एक अदद घर के लिए वे तरसते हैं।

यहाँ रहने वाले आदिवासी आजकल एक नई तरह की परेशानी का सामना कर रहे हैं। दरअसल खूंटी के आस-पास के गांवों के सैकड़ों-हज़ारों आदिवासी युवा भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी राजद्रोह के तहत आरोपी हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत 10,000 आदिवासियों पर मामला दर्ज किया गया था। बता दें कि ये मामला पत्थलगड़ी आंदोलन से संबंधित है, जहां 2017 में गांवों में उत्कीर्ण पत्थर स्थापित किए गए थे जिस पर लिखा था कि संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी क्षेत्रों को विशेष स्वायत्तता मिली है।

अभी कुछ दिनों पहले राहुल गांधी ने भी इस मीडिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए ट्वीट किया, “अगर किसी सरकार ने दस हज़ार आदिवासियों पर राजद्रोह क़ानून लगाया है तो हमारे देश की अंतरात्मा हिल जानी चाहिए थी, मीडिया में तूफ़ान खड़ा हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बिकाऊ मीडिया अपनी आवाज़ खो चुकी है, नागरिक होने के नाते क्या हम इसे बर्दाशत कर सकते हैं।"

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आपको बता दें कि आदिवासी समुदाय और गांवों में विधि-विधान/संस्कार के साथ पत्थलगड़ी (बड़ा शिलालेख गाड़ने) की परंपरा पुरानी है। इनमें मौजा, सीमाना, ग्रामसभा और अधिकार की जानकारी रहती है। वंशावली, पुरखे तथा मरनी (मृत व्यक्ति) की याद संजोए रखने के लिए भी पत्थलगड़ी की जाती है। कई जगहों पर अंग्रेज़ों–दुश्मनों के ख़िलाफ़ लड़कर शहीद होने वाले वीर सूपतों के सम्मान में भी पत्थलगड़ी की जाती रही है।

लेकिन अभी खूंटी में इसके स्वरूप में थोड़ा बदलाव किया गया है। यहां हरे रंग के पत्थर पर संविधान की पांचवीं अनुसूची और उससे जुड़ी धाराओं का वर्णन है। इसके साथ ही दी गई है एक चेतावनी- बाहर से आने वालों का प्रवेश वर्जित है।

इसमें दावा किया गया है कि आदिवासियों के स्वशासन व नियंत्रण क्षेत्र में ग़ैर-रूढ़ि प्रथा के व्यक्तियों के मौलिक अधिकार लागू नहीं है। लिहाज़ा इन इलाक़ों में उनका स्वंतत्र भ्रमण, रोज़गार-कारोबार करना या बस जाना, पूर्णतः प्रतिबंधित है। पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में संसद या विधानमंडल का कोई भी सामान्य क़ानून लागू नहीं है। अनुच्छेद 15 (पैरा 1-5) के तहत ऐसे लोगों जिनके गांव में आने से यहां की सुशासन शक्ति भंग होने की संभावना है, तो उनका आना-जाना, घूमना-फिरना वर्जित है। वोटर कार्ड और आधार कार्ड आदिवासी विरोधी दस्तावेज़ हैं तथा आदिवासी लोग भारत देश के मालिक हैं, आम आदमी या नागरिक नहीं। संविधान के अनुच्छेद 13 (3) क के तहत रूढ़ि और प्रथा ही विधि का बल यानी संविधान की शक्ति है।

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हालांकि सरकार का कहना है कि कुछ लोगों ने पत्थलगड़ी के ज़रिये संविधान की ग़लत व्याख्या की और भोले भाले आदिवासियों को भड़काने का काम किया।

खूंटी के सोनपुर गांव को लेकर पुलिस द्वारा दर्ज एफ़आईआर में पूरे गांव का नाम दर्ज किया गया है लेकिन वहां के ज़्यादातर गांववालों को इसकी जानकारी नहीं है। सोनपुर गांव के रामसरन मुंडा कहते हैं, "मुझे एफ़आईआर के बारे में जानकारी नहीं है। पहले पुलिस आती थी और कुछ लोगों को उठाकर ले जाती थी। हालांकि यहां पर पत्थलगड़ी के पत्थर को मिटा दिया गया है। लेकिन अब भी लोगों में खौफ़ है। हम लोग अब उस पर ज़्यादा बात नहीं करते हैं। हम इस बार वोट भी डालने जाएंगे। इसे लेकर ग्रामसभा की बैठक होने वाली है।"

इन गांवों में जब न्यूज़क्लिक की टीम घूम रही थी तो ज़्यादातर आदिवासियों ने बात करने से ही इनकार कर दिया। गांव के प्रधान का घर पूछने पर भी ज़्यादातर लोग बताने से मना कर दे रहे थे। वह सिर्फ़ इतना बोलते कि हमें कुछ नहीं पता है। जो लोग बात कर रहे थे वो भी अपना नाम बताने से इनकार कर दे रहे थे और फ़ोटो नहीं लेने की बात कर रहे थे। यहां तक की महिलाएं मोबाइल चेक कर रही थी कि उनकी फ़ोटो तो नहीं ली गई है।

इस पूरे मसले को लेकर खूंटी विधानसभा सीट से जेवीएम पार्टी की उम्मीदवार और जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहती हैं, "पत्थलगड़ी मामले को हमें समग्रता में देखने की ज़रूरत है। इसमें ज़मीन अधिग्रहण क़ानून, विस्थापन, ग़रीबी, बेरोज़गारी समेत कई चीज़ें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। फ़िलहाल अभी राजद्रोह के मामले के बाद आदिवासियों में भय है। जितने लोगों पर मुक़दमा दर्ज है वो स्वतंत्र रूप से घूम नहीं पा रहे हैं। उनमें अपने नेताओं को लेकर भी अविश्वास पैदा हुआ है। ऐसे में हम लोग चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें वोटिंग करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।"

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ऐसा ही कुछ कहना सामाजिक कार्यकर्ता अलोका कुजूर का है। वो बताती हैं, "पत्थलगड़ी पर सरकार ने चर्चा व विमर्श करने के बजाय आदिवासियों की मूल मांगों व मुद्दों को दरकिनार कर के इनका दमन किया। इसे लेकर 23 केस किए गए हैं। क़रीब 11 गांवों के समस्त निवासियों पर राजद्रोह का केस किया गया है। अगर हम चुनावी आधार पर देखें तो नि:संदेह सत्ताधारी पार्टी को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है। लेकिन यह तो बाद की बात है अभी बड़ी संख्या में आदिवासी मतदान के लिए निकलने वाले हैं।"

आपको बता दें कि खूंटी में बड़ी संख्या में नोटा का भी इस्तेमाल किया जाता है। 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बाद अन्य किसी भी प्रत्याशी को नोटा के बराबर वोट भी नहीं मिले। आम चुनाव में पूरे लोकसभा क्षेत्र में 21245 लोगों ने नोटा का बटन दबाया था।

पत्थलगड़ी के चुनावों पर पड़ने वाले असर को लेकर झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार फ़ैसल अनुराग कहते हैं, "कुछ गावों में लोग चुनाव में बहिष्कार की अपील कर रहे हैं। तो वहीं कुछ गावों में सत्तारूढ़ दल को लेकर नाराज़गी बहुत ज़्यादा है। लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी को इसका ख़ामियाज़ा उठाना पड़ा था। उसे इन इलाक़ों में बहुत कम वोट मिले थे। इस बार भी इसकी पुनरावृत्ति हो सकती है।"

वो आगे कहते हैं, "पत्थलगड़ी आंदोलन के भी दो पहलू हैं। पहला पहलू है कि पत्थलगड़ी आदिवासियों के सांस्कृतिक स्वरूप का हिस्सा रहा है। लेकिन अभी जो आंदोलन चल रहा है इसका एक राजनीतिक स्वरूप भी रहा है। जल, जंगल, ज़मीन पर जिस ढंग से क़ब्ज़े की कोशिश की गई है, जिस तरह से क़ानूनों में बदलाव किया गया उसको लेकर ग़ुस्सा इस रूप में दिखा। लेकिन आदिवासियों के नेतृत्व ने भी संविधान की सही व्याख्या नहीं की। उसे नए ढंग से देखने की कोशिश की। हालांकि जनता ने इसे कितना समझा ये अलग संदर्भ है। झारखंड आंदोलन के बाद दूसरी बार इस तरह का राजनीतिक इस्तेमाल पत्थलगड़ी का किया गया है।"

हालांकि इस सबसे अलग बीजेपी इसे आदिवासियों को बरगलाने की साज़िश और अफ़ीम तस्करों की कवायद बताती है। न्यूज़क्लिक से बातचीत में झारखंड बीजेपी के प्रवक्ता दीन दयाल वर्णवाल कहते हैं, "पत्थलगड़ी झारखंड के आदिवासियों की सांस्कृतिक परंपरा रही है। लेकिन इसी पत्थलगड़ी की आड़ में खूंटी के आसपास के इलाकों में कुछ विदेशी ताक़तों ने अफ़ीम की खेती का काम किया और अपने साथ भोले भाले आदिवासियों को भी बरगलाने और फंसाने का काम किया था। इसके ख़िलाफ़ राज्य सरकार ने कड़ा निर्णय लिया था। इस निर्णय से वहां के आदिवासी और मूल निवासी बहुत ख़ुश हैं। सरकार के इस निर्णय से चुनावों में हमें बहुत फ़ायदा होने वाला है।"

वहीं, मुख्य विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं, "आदिवासी सामुदायिकता में जीता है। जेएमएम आदिवासियों के हक़ के साथ खड़ा है लेकिन पत्थलगड़ी के नाम पर गुजरात के कुछ असामाजिक तत्वों ने इसे जिस रूप में पेश किया, उससे लगा कि यहां आदिवासियों के अधिकार समाप्त होने को हैं। हम इसके इस स्वरूप के साथ नहीं है। बाक़ी पत्थलगड़ी की सांस्कृतिक परंपरा का हम सम्मान करते हैं।"

इसी हफ़्ते मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खूंटी में एक चुनावी रैली को संबोधित किया था। इस दौरान उन्होंने पत्थलगड़ी आंदोलन के मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी। हालांकि राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर का ज़िक्र उन्होंने किया।

आदिवासी उपराज्यपाल की बात करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, "जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 अब हट चुका है। अब केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर को विकास और विश्वास के पथ पर ले जाने की ज़िम्मेदारी आदिवासी अंचल में ही जन्मे, पले-बढ़े, उपराज्यपाल जी के कंधे पर है।"

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