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आज भी न्याय में देरी का मतलब न्याय न मिलना ही है

आज़ादी के 74 साल बाद भी, न्याय व्यवस्था उचित समयसीमा के अंदर काम नहीं करती है।
आज भी न्याय में देरी का मतलब न्याय न मिलना ही है

आज़ादी के 74 साल बाद भी, न्याय व्यवस्था उचित समयसीमा के अंदर काम नहीं करती है। न्याय व्यवस्था पर निर्भर हज़ारों लोग फ़ैसले में देरी होने की वजह से परेशान होते हैं और उन्हें न्याय नहीं मिलता। हाल ही में एक 108 साल के शख़्स की मौत हो गई, और उसने जो 1968 में ज़मीन विवाद का मामला दायर किया था, सुप्रीम कोर्ट में उसकी सुनवाई लंबित ही रह गई। ओशी सक्सेना लिखती हैं कि लंबित मामलों की वजह से निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन होता है।

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108 साल के सोपन नरसिंह गायकवाड़ ने 1968 में ज़मीन विवाद का एक मामला दायर किया था, हाल ही में उनकी मौत हो गई और सुप्रीम में उनकी सुनवाई तक नहीं हो सकी। यह मामला बॉम्बे हाई कोर्ट में 27 साल तक लंबित रहा और फिर उसे ख़ारिज कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने 12 जुलाई को उनकी अपील पर सुनवाई के लिए सहमति व्यक्त की, जब उनके वकील ने तर्क दिया कि देरी इसलिए हुई क्योंकि बुजुर्ग याचिकाकर्ता ग्रामीण महाराष्ट्र में रहते थे और उच्च न्यायालय के फैसले के बारे में बहुत बाद में पता चला। कोविड -19 महामारी के प्रोटोकॉल की वजह से भी उन्हें देरी हुई।

गायकवाड़ ने 1968 में एक पंजीकृत बिक्री विलेख के माध्यम से जमीन का एक भूखंड खरीदा था। उन्हें बाद में पता चला कि मूल मालिक द्वारा लिए गए ऋण की वजह से इसे बैंक के पास गिरवी रखा गया था। जब पिछले मालिक ने पुनर्भुगतान में चूक की, तो बैंक ने गायकवाड़ को सूचित किया।

याचिकाकर्ता के वकील विराज कदम ने समाचार एजेंसी पीटीआई को बताया, "दुर्भाग्यवश, जो शख़्स इस मामले को ट्रायल कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक लेकर गया, वह यह सुनने के लिए इस दुनिया में नहीं है कि आख़िरकार इस मामले की सुनवाई करने को कोर्ट राज़ी हो गया है।"

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और हृषिकेश रॉय की पीठ ने 2015 और 2019 में पारित दो उच्च न्यायालय के आदेशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने में दो 1,467-दिन और 267-दिन की देरी को माफ़ करने के आवेदन पर नोटिस जारी किया। सुप्रीम कोर्ट ने आठ सप्ताह के भीतर विरोधी पक्ष से एक प्रतिक्रिया का अनुरोध भी किया।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, "हमें ध्यान देना चाहिए कि याचिकाकर्ता 108 साल के थे, और उच्च न्यायालय ने मामले के गुण-दोष पर विचार नहीं किया, और अधिवक्ताओं की ग़ैर-मौजूदगी के कारण मामला ख़ारिज कर दिया गया।"

पीठ ने कहा कि जब 2015 में उनका मामला ख़ारिज हो गया था, तब उनके वकीलों को उन्हें ढूँढने में मुश्किल हुई होगी क्योंकि वह ग्रामीण इलाक़े में रहते थे। इसने कदम की इस दलील को नोट किया कि निचली अदालत की डिक्री को पहली अपीलीय अदालत ने उलट दिया था, जबकि बॉम्बे हाई कोर्ट में दूसरी अपील 1988 से लंबित थी।

अदालतों में कई मामले लंबित हैं जो एक दशक या उससे अधिक समय तक अनसुलझे रहते हैं। हर दिन इस ढेर में और जुड़ते जाते हैं, क्योंकि अदालतें उनसे निपटने में असमर्थ होती हैं।

भोपाल गैस त्रासदी मामला

न्याय व्यवस्था की सुस्ती का एक और उदाहरण भोपाल गैस त्रासदी का मामला है। यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी ने 5 लाख से ज़्यादा लोगों को बर्बाद कर दिया और उसका असर आज भी वहाँ रहने वालों पर पड़ रहा है। यह मामला अदालत में सालों तक खींचा गया मगर सिर्फ़ 7 लोगों को सज़ा सुनाई गई थी, वह भी सिर्फ़ 2 साल की।

कंपनी ने मुआवजे के रूप में $470 मिलियन का भुगतान करके पल्ला झाड़ लिया। हालांकि, कई पीड़ितों को अभी तक इस विपत्ति के कारण हुए निर्विवाद नुकसान के लिए मुआवज़ा नहीं मिला है। एक लंबी और जटिल क़ानूनी लड़ाई शुरू हुई, लेकिन पीड़ित तीन दशक बाद भी न्याय की उम्मीद कर रहे हैं।

जेसिका लाल मामला : सच और न्याय की एक लंबी लड़ाई

जेसिका लाल की हत्या एक हाई-प्रोफाइल मामला था जिसे कोई नहीं भूल सकता। 30 अप्रैल, 1999 की तड़के, एक सेलिब्रिटी बारमेड जेसिका लाल की मनु शर्मा ने भीड़-भाड़ वाली पार्टी में गोली मारकर हत्या कर दी थी। मनु हरियाणा के एक धनी और प्रभावशाली पूर्व कांग्रेसी विनोद शर्मा का बेटा है।

रात के लिए बार बंद होने के बाद शराब परोसने से इनकार करने पर शर्मा ने उसकी हत्या कर दी। पहले मुकदमे के दौरान, जो 21 फ़रवरी, 2006 को समाप्त हुआ, मनु और अन्य को बरी कर दिया गया। अभियोजन पक्ष के गवाह मुकर गए थे, और एक ने बेतुके 2-वेपन थियोरि का भी प्रस्ताव रखा था। कई लोगों का मानना है कि गवाहों पर अपनी कहानी बदलने का भारी दबाव था।

सालों बाद, दिसंबर 2007 में, शर्मा को आख़िरकार उम्रकैद की सजा सुनाई गई। 1 जून, 2020 को, वह तिहाड़ जेल से बाहर चला गया, दिल्ली सरकार के सजा समीक्षा पैनल द्वारा उसे उसके "अच्छे आचरण" के लिए समय से पहले रिहा कर दिया गया।

एनसीएमएससी रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी चेतावनी

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर निराशा ज़ाहिर की कि नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम्स कमेटी(एनसीएमएससी) की 2019 की रिपोर्ट को लागू करने में अभी भी बहुत समय है।

न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने कहा, "अगर केंद्र और राज्यों पर छोड़ दिया जाए, तो सुप्रीम कोर्ट में कोई काम नहीं होगा। सरकार सबसे बड़ी याचिकाकर्ता है और हर मामले में, कुछ अपवादों के साथ, समय के लिए एक आवेदन होता है।"

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस एके सीकरी के नेतृत्व में एनसीएमएससी के अध्ययन ने न्यायिक सुनवाई को मानकीकृत करने और केस बैकलॉग को कम करने के लिए कदमों की सिफारिश की। नवंबर 2019 में, NCMSC ने पांच-खंड की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी।

जनवरी 2020 में, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करने को कहा था। पिछले हफ़्ते तक डेढ़ साल बीतने के बाद भी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने अभी भी अपना जवाब दाखिल नहीं किया है।

नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के अनुसार, न्यायपालिका को लगभग 3 करोड़ मामलों के बड़े पैमाने पर बैकलॉग से जूझना पड़ता है। प्रति 10 लाख नागरिकों पर 17 न्यायाधीशों के साथ, नागरिकों से न्यायाधीशों का अनुपात अत्यधिक अपर्याप्त है।

भारत में एक जटिल क़ानूनी प्रणाली है। मामलों को अवर से बेहतर अदालतों में स्थानांतरित कर दिया जाता है, नए तर्क और सबूत पेश किए जाने चाहिए, और तारीखें कभी-कभी एक वर्ष के लंबे अंतराल के बाद दी जाती हैं।

पुन: परीक्षण होते हैं, और बिना किसी ठोस क़ानूनी परिणाम के वर्षों या दशकों बीत जाते हैं। सरकार को इन समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए, क्योंकि अनावश्यक रूप से देरी उन लोगों के लिए जीवन को भयानक बना देती है जो न्याय के लिए कभी न ख़त्म होने वाली खोजों को शुरू करने का निर्णय लेते हैं।

(ओशी सक्सेना सिंबायसिस इंस्टीट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्युनिकेशन, पुणे से पत्रकारिता में मास्टर्स कर रही हैं। वह वंचितों की आवाज़ उठाना चाहती हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लीफ़लेट

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