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काफ़ी नहीं है रामदेव की माफ़ी, दंडनीय अपराध है उनका एलोपैथी पर दिया बयान

अवनि बंसल लिखती हैं योग गुरू और व्यापारी बाबा रामदेव ने हाल में एलोपैथी को खारिज़ करते हुए विवादास्पद बयान दिया था। लेकिन अपने बयान से वापस जाते हुए सिर्फ़ माफ़ी मांगना ही काफ़ी नहीं है। अवनि बंसल उन कानूनी प्रावधानों को बता रही हैं, जिनके तहत रामदेव के बयानों पर कार्रवाई की जा सकती है और उन्हें सजा देने के लिेए मुक़दमा बनाया जा सकता है।
रामदेव

क्या एक अपराध करने के बाद माफ़ी मांगकर बच जाना सही है? किसी भी देश का न्यायशास्त्र इसकी अनुमति नहीं देता। फिर भी केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री ने रामदेव के विवादास्पद बयान के जवाब में सिर्फ़ ख़त लिखना ही जरूरी समझा। रामदेव ने अपने बयान में एलोपैथी को मूर्खता करार देते हुए दावा किया था कि एलोपैथी की दवाओं के चलते लाखों लोगों को जान गंवानी पड़ी है। रामदेव के बयान का वीडियो इंटरनेट पर उपलब्ध है।

इसके बावजूद स्वास्थ्यमंत्री ने अपने ख़त में सिर्फ़ इतना लिखा कि यह "दुर्भाग्यपूर्ण" है कि रामदेव के कद का एक व्यक्ति आधुनिक विज्ञान और एलोपैथी की उपलब्धियों और उनके फायदों के बारे में नहीं जानता। हैरान करने वाली बात यह रही कि स्वास्थ्य मंत्रालय को यह बयान दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ "गैरकानूनी" नहीं लगा, उनसे सिर्फ़ अपना बयान वापस लेने के लिए कहकर पल्ला झाड़ लिया गया, जबकि रामदेव के खिलाफ़ जरूरी कानूनी कार्रवाई की मांग नहीं की गई। 

चूंकि केंद्र सरकार ने भारत को दुनिया में विश्व गुरू साबित करने के लिए इतना पैसा और ऊर्जा लगाई है, क्या यह चिंताजनक नहीं है कि रामदेव जैसे लोग, जो हमें दुनिया में हंसी का पात्र बनाएं और प्रदर्शित करें कि फ़र्जी ख़बरों और गलत जानकारी को नियंत्रित करने के लिए भारत पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं हैं, वे बिना सजा के बच जाएं?

क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि हम एक राष्ट्र के तौर पर हमारे डॉक्टरों, वैज्ञानिक और पहले मोर्चे पर डटे योद्धाओं का सम्मान नहीं करते। यह लोग अथक प्रयास कर रहे हैं। जबकि इसी दौरान एक सांप का तेल बेचने वाला दुकानदार उनके बारे में अंसवेदनशील चुटकुले बोले। वह भी इसलिए क्योंकि ऐसा करना उसके फायदे में है। स्पष्ट है कि हम इसे सिर्फ़ व्यक्तिगत मत करार देकर नहीं छोड़ सकते। क्योंकि रामदेव ने कुछ दवाइयों के बारे में विशेषत: दावे किए हैं कि वे कारगर नहीं हैं। जबकि इस दावे के पक्ष में कोई भी मजबूत और विश्वसनीय सबूत पेश नहीं किया गया। 

क्यों रामदेव के बयान पर क़ानूनी कार्रवाई होनी चाहिए

इस मुद्दे पर कानूनी स्थिति बिल्कुल साफ़ है।

पहली बात, कोई भी व्यक्ति एक अपराध करने के बाद सिर्फ़ माफ़ी मांगकर या अपना बयान वापस लेकर नहीं बच सकता, जबकि यह साफ़ है कि उसका काम सजा मिलने योग्य अपराध है।

दूसरी बात, किसी आपदा या महामारी के बारे में गलत दावे, जिनसे लोगों में अशांति पैदा हो सकती है, उनके लिए सजा का प्रबंध करने वाले कानूनी प्रावधान मौजूद हैं।

तीसरी बात, रामदेव के खिलाफ़ कार्रवाई ना कर, स्वास्थ्य मंत्रालय एक उदाहरण बना रहा है, जहां कोई भी बिना जवाबदेही के कुछ भी बोलकर जा सकता है। 

अंत में- इस तथ्य के बारे में क्या कि यह गैर-जिम्मेदाराना बयान इंटरनेट पर तो उपलब्ध रहेगा ही, जो ना केवल रामदेव के समर्थकों, बल्कि दूसरे लोगों को भी प्रभावित करता रहेगा। नतीज़तन यह लोग कोविड से संक्रमित होने के दौरान अस्पताल जाने से बचते रहेंगे। 

रामदेव के बयान के ख़िलाफ़ इन प्रावधानों के तहत हो सकती है कार्रवाई-

यहां हम कुछ उन कानूनों पर नज़र डालते हैं, जो रामदेव के खिलाफ़ इस्तेमाल किए जा सकते हैं:

भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 505- 

जो भी कोई किसी कथन, जनश्रुति या सूचना -

(क) इस आशय से कि, या जिससे यह सम्भाव्य हो कि, भारत की सेना, नौसेना या वायुसेना का कोई अधिकारी, सैनिक, नाविक या वायुसैनिक विद्रोह करे या अन्यथा वह उस नाते, अपने कर्तव्य की अवहेलना करे या उसके पालन में असफल रहे, अथवा

(ख) इस आशय से कि, या जिससे यह सम्भाव्य हो कि, सामान्य जन या जनता के किसी भाग को ऐसा भय या संत्रास कारित हो जिससे कोई व्यक्ति राज्य के विरुद्ध या सार्वजनिक शांति के विरुद्ध अपराध करने के लिए उत्प्रेरित हो, अथवा

(ग) इस आशय से कि, या जिससे यह सम्भाव्य हो कि, उससे व्यक्तियों का कोई वर्ग या समुदाय किसी दूसरे वर्ग या समुदाय के विरुद्ध अपराध करने के लिए उकसाया जाए, को रचेगा, प्रकाशित या परिचालित करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास, जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।

बाबा रामदेव के खिलाफ़ 505 (1) (b) और (c) लगाई जा सकती हैं, क्योंकि बहुत सारे ऐसे लोग, जो कोविड के चलते अपने परिवार के सदस्यों, संबंधियों और दोस्तों को खो चुके हैं, वे बाबा रामदेव के वक्तव्य को गंभीरता से लेते हुए डॉक्टरों, अस्पतालों के खिलाफ़ भड़क सकते हैं और कानून अपने हाथ में लेते हुए हिंसा कर सकते हैं। बल्कि पिछले महीने ही दक्षिण दिल्ली के अपोलो हॉस्पिटल में कोरोना के चलते जान गंवाने वाली महिला के रिश्तेदारों ने हॉस्पिटल के स्टॉफ पर हमला कर दिया था। उस घटना में फर्श पर पड़े खून की तस्वीरें भी वायरल हुई थीं।

मौजूदा स्थिति में जब बाबा रामदेव जैसा एक व्यक्ति, जिसके इतने समर्थक मौजूद हैं, जब वो एक गैरजिम्मेदार बयान देता है, तो इसका असर लोगों के दिमाग पर पड़ना स्वाभाविक है। यहां वहीं चीजें अपनाई जानी चाहिए, जो किसी सेलेब्रिटी के खिलाफ़ अपनाई जाती हैं।

महामारी रोग अधिनियम, 1897

धारा 3. जुर्माना

कोई भी व्यक्ति, जो इस कानून के तहत जारी आदेशों या नियमों का उल्लंघन करेगा, उसे IPC की धारा 188 के तहत सजा दी जा सकेगी।

IPC

धारा 188- 

IPC की धारा 188 के अनुसार, जो कोई भी किसी लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित किसी आदेश, जिसे प्रख्यापित करने के लिये लोक सेवक विधिपूर्वक सशक्त है, जिसमें कोई कार्य करने से बचे रहने के लिये या अपने कब्ज़े या प्रबंधाधीन किसी संपत्ति के बारे में कोई विशेष व्यवस्था करने के लिये निर्दिष्ट किया गया है, की अवज्ञा करेगा तो;

यदि इस प्रकार की अवज्ञा-विधिपूर्वक नियुक्त व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति की जोखिम कारित करे या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, तो उसे किसी एक निश्चित अवधि के लिये कारावास की सजा दी जाएगी जिसे एक मास तक बढ़ाया जा सकता है अथवा 200 रुपए तक के आर्थिक दंड अथवा दोनों से दंडित किया जाएगा; और यदि इस प्रकार की अवज्ञा मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को संकट उत्पन्न करे, या उत्पन्न करने की प्रवॄत्ति रखती हो, या उपद्रव अथवा दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवॄत्ति रखती हो, तो उसे किसी एक निश्चित अवधि के लिये कारावास की सजा दी जाएगी जिसे 6 मास तक बढ़ाया जा सकता है, अथवा 1000 रुपए तक के आर्थिक दंड अथवा दोनों से दंडित किया जाएगा।

व्याख्या- यह जरूरी नहीं है कि आरोपी की मंशा नुकसान पहुंचाने की हो, या उसके जानना जरूरी हो कि उसकी अवमानना से नुकसान पहुंचेगा। इतना पर्याप्त है कि वह जानता हो कि वो किस आदेश का उल्लंघन कर रहा है और इससे नुकसान हो या होने की संभावना हो।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005

धारा 52- फर्जी दावे के लिए सजा- 

जो कोई जानबूझकर केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, राष्ट्रीय प्राधिकरण, राज्य प्राधिकरण या जिला प्राधिकरण के किसी अधिकारी से आपदा के परिणामस्वरूप कोई राहत, सहायता, मरम्मत, सन्निर्माण या अन्य फायदे अभिप्राप्त करने के लिए ऐसा दावा करेगा जिसके बारे में वह यह जानता है या यह विश्वास करने का उसके पास कारण है कि वह मिथ्या है, तो वह दोषसिद्धि पर कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी, दंडनीय होगा ।

धारा 54- मिथ्या चेतावनी के लिए दंड

कोई भी जो किसी आपदा या उसकी गंभीरता या उसके परिमाण के संबंध में आतंकित करने वाली मिथ्या संकट-सूचना या चेतावनी देता है, तो वह दोषसिद्धि पर कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से दंडनीय होगा ।

धारा 60- अपराधों का संज्ञान-

कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध का संज्ञान, निम्नलिखित द्वारा मुक़दमा दायर करने के अलावा दूसरी स्थिति में नहीं लेगा- 

(क) राष्ट्रीय प्राधिकरण, राज्य प्राधिकरण, केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, जिला प्राधिकरण या, यथास्थिति, उस प्राधिकरण या सरकार द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत कोई अन्य प्राधिकारी या अधिकारी; या

(ख) ऐसा कोई व्यक्ति, जिसने अभिकथित अपराध की और राष्ट्रीय प्राधिकरण, राज्य प्राधिकरण, केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, जिला प्राधिकरण या पूर्वोक्तानुसार प्राधिकृत किसी प्राधिकारी या अधिकारी को परिवाद करने के अपने आशय की विहित रीति में कम-से-कम तीस दिन की सूचना दे दी है। 

इस केस में प्रासंगिक धाराएं, मतलब EDA की धारा 3, आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 53, 54 और 60 लगाने के लिए संबंधित अधिकारी, जिला, राज्य, केंद्र या अधिकार प्राप्त किसी प्राधिकरण से अनुमति लेने की जरूरत होती है। इसलिए राज्य प्रशासन के लिए जरूरी हो जाता है कि वो रामदेव के खिलाफ़ जरूरी कार्रवाई करे या फिर न्यायालय इस मामले में स्वत: संज्ञान लें।

एक ऐसी ही वाकया एम्स, दिल्ली के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया के साथ हुआ। उन्होंने वक्तव्य दिया कि कम लक्षण वाले कोविड संक्रमितों के लिए सीटी स्कैन जरूरी नहीं हैं और एक बार सीटी स्कैन कराने के लिए 300-400 एक्सरे छाती पर डालने के बराबर दबाव पड़ता है, अगर ज़्यादा बार स्कैन किए जाते हैं, तो कैंसर होने की संभावना हो जाती है।

डॉ गुलेरिया के वक्तव्य के जवाब में इंडियन रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन ने हैरानी और नाराजगी जताई। लेकिन उनके खिलाफ़ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की। इस केस में चिकित्सा विज्ञान के भीतर सीटी स्कैन के संभावित उपयोग और प्रभावोत्पादकता के विरोध में इससे होने वाले नुकसान के बारे में विमर्श करने की जगह तो है। लेकिन बाबा रामदेव के केस में उनके वक्तव्य इतने एकतरफा थे कि उन्होंने पूरी एलोपैथी को मूर्ख और दिवालिया घोषित कर दिया। 

रामदेव ने अपना वक्तव्य ग़लत मंशा के साथ जानबूझकर दिया था

यह भूलना नहीं चाहिए कि यहां सीधे हितों का टकराव भी है। बाबा रामदेव के बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशन पतंजलि आयुर्वेद ने विवादास्पद और फर्जी दावे में कहा था कि उन्होंने कोरोना की विश्व स्वास्थ्य संगठन से मान्यता प्राप्त दवाई का विकास कर लिया है। यह अहम है, क्योंकि यहां रामदेव संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(a) का सहारा नहीं ले सकते। क्योंकि रामदेव द्वारा दिए गए वक्तव्य की वैधानिकता को जांचने के लिए उसकी पृष्ठभूमि और मौके ध्यान में रखना होगा। 

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि रामदेव का एक बहुत बड़ा समर्थक वर्ग है, उनका वक्तव्य जानबूझकर दिया गया द्वेषपूर्ण कथन था, जिससे जनता में अनचाहा संदेह और अफरातफरी पैदा हुई। ऊपर से यह भी ध्यान रखना होगा कि जब यह वक्तव्य दिया गया, तब देश महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहा था।

इस तरह की महामारी के सबसे प्रबल दौर में, जब नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे ज़्यादा जरूरत है, तब इस तरह का वक्तव्य ना सिर्फ़ चिकित्सा बिरादरी की बदनामी करता है, बल्कि आम आदमी को भी उसके खिलाफ़ भड़काता है। ऐसे में यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सुरक्षा नहीं दी जानी चाहिए। 

इसलिए वक्तव्य देने वाले शख़्स से जुड़े तथ्यों, वक्तव्य की पृष्ठभूमि और मौके को मिलाकर देखने पर यह साफ़ हो जाता है कि बाबा रामदेव ने जानबूझकर खराब मंशा वाला वक्तव्य दिया था।

अमीष देवगन बनाम् भारत संघ, 2020 केस के हालिया फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बुरी मंशा वाले भाषण को जांचने के लिए निम्नलिखित तथ्य दिए थे। 

गोपाल विनायक गोडसे केस (गोपाल विनायक गोडसे बनाम् भारत संघ, 1969 SCC OnLine Bom 88 : AIR 1971 Bom 56) में बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो विचार दिए हैं, उनमें शब्दों पर काफ़ी जोर दिया गया है, लेकिन पी के चक्रवर्ती (पी के चक्रवर्ती बनाम् किंग एम्पेरर, 1926 SCC ऑनलाइन कोलकाता 96: AIR 1926 1133) और देवीशरण शर्मा केस में ज़्यादा विस्तृत तस्वीर ध्यान में रखी गई है, हमारे विचार में IPC की धारा 153A उपबंध (1)(अ) और (ब)  के तहत कोई अपराध किया गया है या नहीं, उसे तय करने के लिए यह केस सही तरीका बताते हैं। जिस सामग्री की शिकायत की गई है, उसका साधारण तार्किक अर्थ या तो प्रकाशित सामग्री हो सकती है या उस सामग्री से होने वाला आशय हो सकता है या फिर उस सामग्री से क्या मतलब निकाला जा रहा है, वह भी हो सकता है। एक विशेष आरोप, जो खुद में अपना संदेश प्रेषित होने की सक्षमता रखता है, तो फिर जानबूझकर उसकी अतार्किक व्याख्या नहीं करनी चाहिए। हम यह भी कहेंगे कि दोषी ठहराने के लिए कृत्य के जानबूझकर किए जाने और बुरी मंशा भी शब्दों में होना जरूरी है। इसे 'क्लैफैम ओम्निबस' के टेस्ट को पास करना होगा, मतलब यह शब्द किसने बोले, किसको लक्षित कर कहे, कौन सा ऐसा समूह था जो लक्षित नहीं था, शब्दों की पृष्ठभूमि क्या थी और कौन सा मौका (शब्द बोले जाने या भाषण देने के वक़्त और स्थिति) था और दोनों समुदायों के बीच आपसी भावना कैसी थी, आदि, "नफ़रती भाषण' और 'अच्छी मंशा' वाला परीक्षण भी लागू किया जाए। क्योंकि यह सारी चीजें व्यक्ति की मंशा को दिखाने के लिए जरूरी हैं।"

रामदेव का वक्तव्य, कोविड से जुड़ी फर्जी जानकारियों के फैलाव को रोकने के लिए केंद्र द्वारा जारी किए गिए निर्देशों का उल्लंघन करता है

रामदेव के खिलाफ़ जरूरी कदम उठाने के साथ-साथ, उनके वक्तव्य के इंटरनेट और सोशल मीडिया पर हमेशा रहने का मुद्दा भी सामने है, भले ही रामदेव ने इनके लिए माफ़ी मांग ली हो।

सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय ने 20 मार्च, 2020 को कोरोना वायरस से जुड़ी फर्जी ख़बरों को नियंत्रित करने के लिए सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस तरह की सामग्री को तुरंत हटाने के निर्देश दिए थे। इसलिए सभी सोशल मीडिया कंपनियों को रामदेव द्वारा दिए गए विवादास्पद बयान वाले वीडियो को हटाना चाहिए।

अलख आलोक श्रीवास्तव बनाम् भारत संघ, 2020, SCC ऑनलाइन SC 345 में दिए गए एक दूसरे फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

"विशेषतौर पर हम मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सोशल) से जिम्मेदारी की मजबूत भावना रखने और अशांति फैलाने में सक्षम अपुष्ट ख़बरों को ना फैलने देने की उम्मीद रखते है। सॉ़लिसिटर जनरल ऑफ़ इंडिया ने कोर्ट में कहा है कि भारत सरकार द्वारा सभी मीडिया मंचों पर रोजना एक बुलेटिन प्रसारित किया जाएगा, जिसमें लोगों की आशंकाओं का समाधान किया जाएगा, इस बुलेटिन को अगले 24 घंटे में चालू कर दिया जाएगा। हम महामारी के बारे में जारी विमर्श में दखलंदाजी की मंशा नहीं रखते, लेकिन हम निर्देश देते हैं कि मीडिया मौजूदा घटनाक्रमों के आधिकारिक जानकारी का ही सहारा ले और उसे प्रकाशित करे। यह जाना माना तथ्य है कि अशांति मानसिक स्वास्थ्य को बुरे तरीके से प्रभावित कर सकती है। हमें बताया गया है कि भारत मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सजग है और जिन लोगों का मन अशांत है, उन्हें शांत करने की जरूरत है।"

इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया की बड़ी जिम्मेदारी को माना था। यह माना गया कि अपुष्ट खबरें, जो लोगों में अशांति फैला सकती हों, उन्हें मीडिया द्वारा प्रसारित नहीं करना चाहिए। 

क्यों रामदेव के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई करना जरूरी है

इस विमर्श में यह दिमाग में रखना जरूरी है कि हम बच्चे को नहाने के टब में अकेला नहीं छोड़ सकते। मतलब यह सुझाव नहीं दिया जा रहा है कि कोविड से जुड़े सभी तरह के विमर्श पर लगाम लगा देनी चाहिए। लेकिन ऐसे गैरजिम्मेदार वक्तव्य, जो फर्जी और अशांति फैलाने वाले हैं, जिन्हें निजी हितों के लिए फैलाया जा रहा है, उनके ऊपर निश्चित कार्रवाई करनी चाहिए।

एक बार फिर दोहराने की जरूरत है कि बाबा रामदेव द्वारा दी गई माफ़ी ना तो नैतिक और ना ही कानूनी तौर पर काफ़ी है। जब कोई ख्यात व्यक्ति वक्तव्य देता है, तो आमतौर पर आम आदमी को उस पर भरोसा हो जाता है। जहां बाबा रामदेव अपने वक्तव्य के लिए माफ़ी मांग चुके हैं और कहा है कि वे बस एक वॉट्सऐप संदेश को पढ़ रहे थे, लेकिन उन्होंने खुद के द्वारा रेमडेसिविर और फैबीफ्लू पर लगाए गए विशेष लांछनों को खारिज नहीं किया है। अगर उनके वक्तव्य को सार्वजनिक क्षेत्र से नहीं हटाया जाता, तो वह रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाएंगे। ऊपर से इससे यह चलन भी हो जाएगा कि ताकतवर लोग कुछ भी टीवी पर बोल सकते हैं और बिना दुष्परिणाम भोगे आगे बढ़ सकते हैं।

कानून सबके लिए एक है। कोई भी कथित बाबा, चाहे वह कितना भी प्रभावी और जान-पहचान वाला हो, उसे आधुनिक चिकित्सा पर ऐसे भद्दे लांछन लगाकर जाने देना नहीं चाहिए। आधुनिक चिकित्सा ने यह विकास बहुत मेहनत से हासिल किया है। अगर उन्हें जाने दिया जाता है, तो पूरे देश को सामूहिक ढंग से मूर्ख समझा जाएगा।

जब महाराष्ट्र पुलिस महामारी में फर्जी ख़बरें फैलाने के आरोप में 342 लोगों को गिरफ़्तार कर सकती है, उत्तरप्रदेश पुलिस, खुद को कोरोना वाले बाबा कहलाने वाले अहमद सिद्दीकी को फर्जीवाड़े के लिए सलाखों के पीछे पहुंचा सकती है, ओडिशा पुलिस फ़ेसबुक पर केरल से लौटने वाले एक शख़्स के बारे में गलत जानकारी फैलाने वाले को गिरफ्तार कर सकती है, तो रामदेव कैसे मुक्त घूम सकते हैं, क्या रामदेव कानून से ऊपर हैं? 

केंद्रीय स्वास्थ्यमंत्री जैसे राजनेताओं की राजनीतिक मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन एक उदाहरण पेश किया जाना जरूरी हो जाता है ताकि दूसरे लोगों उनकी तरह के काम ना करें और ऐसे आपराधिक वक्तव्य ना दें, जो बहुत दिक्कत पैदा करते हैं।

अब तक बाबा रामदेव के साथ कानूनी कार्रवाई ना किए जाने के चलते, उनके करीबी और पतंजलि आयुर्वेद में बहुमत की हिस्सेदारी रखने वाले बालकृष्ण को रामदेव के समर्थन में आने की छूट मिल गई।  उन्होंने एक विवादास्पद ट्वीट करते हुए कहा:

"पूरे देश को ईसाई धर्म में बदलने करने के षड्यंत्र के तहत, रामदेव जी को टार्गेट करके योग एवं आयुर्वेद को बदनाम किया जा रहा है। देशवासियों, अब तो गहरी नींद से जागो। नहीं तो आने वाली पीढ़ियां तुम्हें माफ नहीं करेंगी।

रामदेव के वक्तव्य और भारत को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के कथित षड्यंत्र में झूठा और अतार्किक संबंध जोड़ना ना केवल भद्दा लगता है, बल्कि IPC की धारा 153A और 295A के तहत दंडनीय भी है।

IPC की धारा 153A धार्मिक नफ़रत फैलाने वाले वक्तव्यों को देने वालों के लिए 5 साल जेल और जुर्माने की व्यवस्था करती है। IPC की धारा 295A जानबूझकर किए गए बुरी मंशा वाले कार्यों, जिनसे धार्मिक भावनाएं भड़कती हों, उनके लिए चार साल जेल और जुर्माने का प्रबंध करती है।

इसलिए अगर एलोपैथी के खिलाफ़ इस अनियंत्रित भ्रामक जानकारी वाले अभियान को रोकना है, तो कानूनी कार्रवाई करनी होगी, सिर्फ़ माफ़ी से काम नहीं चलेगा। यही वक़्त की मांग है। यह सिर्फ़ एलोपैथी के बारे में लोगों के सम्मान को बनाए रखने के लिए नहीं, ना ही सिर्फ़ इसलिए कि रामदेव के मुद्दे को एलोपैथी और आयुर्वेद के ख्यात विवाद में बदलने से रोकने के लिए है, बल्कि ऐसा करने से इस देश के चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले सभी पेशेवरों का सम्मान सुरक्षित रहेगा। इस मुश्किल वक़्त में, पिछले 15 महीने से यही लोग मोर्चे पर सबसे आगे हैं। हम कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि उनके खिलाफ़ इस हमले को करने वाले बिना सजा के बचकर ना जा पाएं।

(अवनि बंसल सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। वे दिल्ली स्थित ऑल इंडिया प्रोफेशनल्स कांग्रेस की उपाध्यक्ष भी हैं। वहीं अफिफा सुल्तान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कानून की छात्रा हैं, उन्होंने इस लेख को लिखने में सहायता की है। यह लेखक के निजी विचार हैं।)

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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