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केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना गंभीर सवालों के घेरे में- सीईसी रिपोर्ट में ख़ुलासा    

सर्वोच्च न्यायालय की सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी ने केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के लगभग हर पहलू पर अपने अवलोकन दिये हैं। इस परियोजना की वजह से  समृद्ध जैव-विविधता पर होने वाले दुष्प्रभावों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किये जाने पर गंभीर आपत्तियाँ दर्ज  की हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू पर गहन अध्ययन करते हुए सीईसी ने राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड ( केन्द्रीय बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ) की पूरी कार्य-शैली को कटघरे में खड़ा किया है।
indus river
Image courtesy:NewsX

30 अगस्त को केन वेतबा नदी जोड़ो परियोजना (केन वेतबा रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट) को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी ने अपने अंतिम निष्कर्ष और सिफ़ारिशें पेश की हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट इन निष्कर्षों पर तवज्जो देता है तो यह तय है कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय तैयार हुई इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर पूर्ण विराम लग जाना चाहिए। इसका व्यापक असर अन्य नदी –जोड़ो परियोजनाओं पर भी पड़ना तय है।

सीईसी (सेंट्रल इम्पावर्ड कमिटी) के अवलोकनों और इसके द्वारा उठाए गए सवालों पर गौर करें तो देश में परियोजनाओं को लेकर बरती जाने वाली असावधानियाँ व अविवेकपूर्ण ढंग से इन परियोजनाओं को दी जाने वाली ‘हरी झंडियों’ पर गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट सीईसी के अध्ययन व पड़ताल के आधार पर दिये गए निष्कर्षों को संज्ञान में लेते हुए न केवल इस परियोजना को रद्द करेगा बल्कि परियोजना को तमाम तरह के क्लीयरेंस देने वाली जिम्मेदार संस्थाओं को भी दोषी मानेगा।

सीईसी ने अपने अध्ययन के आधार पर परियोजना के लगभग हर पहलू पर अपने अवलोकन दिये हैं। यह फेहरिस्त लंबी है। इसमें केन नदी में पानी की उपलब्धता के भ्रामक व अस्पष्ट आंकलन से लेकर दो राज्यों के बीच पानी के बँटबारे में मौजूद अस्पष्ट व दोषपूर्ण समझौते, बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए लाभ (सिंचाई) के दावे, परियोजना के उद्देश्यों को लेकर किसी वैकल्पिक तरीके पर विचार न किए जाने की कवायद, लागत –लाभ का भ्रामक और अपूर्ण मूल्यांकन, पन्ना टाइगर रिज़र्व जैसे संवेदनशील वन्य क्षेत्र को लेकर बेहद गैर-जिम्मेदार रवैया, केन घड़ियाड़ अभ्यारण्य पर होने वाले प्रभावों की उपेक्षा, गिद्दों व अन्य प्रकार के सरसृप जीवों के पर्यावास की आपराधिक अनदेखी और समृद्ध जैव-विविधता पर होने वाले दुष्प्रभावों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किये जाने पर तो गंभीर आपत्तियाँ की है हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू पर गहन अध्ययन करते हुए सीईसी ने राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड ( केन्द्रीय बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ) की पूरी कार्य-शैली को कटघरे में खड़ा किया है। यही वो जिम्मेदार संस्था है जिसने वन्य जीवों के पर्यावास पर इस परियोजना के कारण किसी भी तरह की हानि न होने की पुष्टि करते हुए 23 अगस्त 2016 को अनापत्ति दी।  

सुप्रीम कोर्ट में यह मामला भी इसी अनापत्ति को लेकर पहुंचा। जिस पर सामाजिक व पर्यावरण कार्यकर्ता मनोज मिश्रा ने सवाल उठाए थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी पड़ताल के लिए ही सीईसी की नियुक्ति की थी। हालांकि ये सारी आपत्तियाँ जो सीईसी ने उठाईं हैं, केन नदी के साफ पानी के नीचे सहज ही दिखलाई दे जाने वाली रेत या पत्थरों की तरह देश के पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्थानीय निवासियों को शुरू से ही दिखलाई पड़ रहीं थीं।

सीईसी ने तो केवल परियोजनाओं को स्वीकृति देने में बरती गयी गंभीर और आपराधिक लपरवाहियों को अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ किया है पर हमारी स्मृतियों में तत्कालीन जल संसाधन मंत्रालय की मंत्री उमा भारती की वह मूर्खतापूर्ण हठधर्मिता मौजूद है जब उन्होंने इस परियोजना को पर्यावरण स्वीकृति की प्रक्रिया पर 31अगस्त 2017 को यह कहते हुए दबाव बनाया था कि अगर पर्यावरण स्वीकृति देने में ढील बरती गयी तो वह आमरण अनशन करेंगीं।

सीईसी ने प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण स्वीकृति की प्रक्रिया पर तो नहीं लेकिन इस जलवायु क्षेत्र की अद्वियता पर अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘इस भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद जैव विविधतता,नैसर्गिक गुफाएँ, पेड़ों की विशेष प्रजातियाँ, सैकड़ों प्रकार की घास, झरने,केन नदी के किनारे का वेजिटेशन, तमाम जल जीवों आदि के पर्यावास के रूप में जाना जाता है। अगर यह परियोजना स्थापित होगी तो हम इस नैसर्गिक संपदा को हमेशा के लिए खो देंगे।‘

इसके अलावा एक और टिप्पणी यहाँ बहुत महत्वपूर्ण है जो सीईसी ने राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड द्वारा इस परियोजना को मंजूरी दिये जाने के निर्णय पर सवाल करते हुए की है कि – राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड ने स्वयं सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक अन्य फैसले में दिये निर्देश को नज़रअंदाज़ किया जिसमें कोर्ट ने कहा है कि –“किसी भी परियोजना को स्वीकृति देते समय इस बात को अनिवार्य रूप से तवज्जो देना चाहिए कि हमारी एप्रोच इको-सेंट्रिक हो न कि एंथ्रोपोसेंट्रिक। और उस पर तमाम प्रजातियों के मानक नैसर्गिक  हित सुरक्षित हो रहे हैं कि नहीं। क्योंकि सभी प्रजातियों को धरती पर रहने के समान अधिकार हैं”।

यह एक मामूली सी समझ की बात रही है कि यह परियोजना केवल बड़े ठेकेदारों, कंट्रेक्टरों, इंजीनियरों, नौकरशाहों और अंतत: राजनेताओं के बीच ‘धन बनाने’ के लिए लायी गयी है। इतनी समझ तो इन क्षेत्रों के स्थानीय निवासी भी रखते हैं कि केन और बेतवा दोनों नदियां एक ही जलवायु क्षेत्र में आस-पास मौजूद हैं। इस लिहाज से जिस साल उस जलवायु क्षेत्र में जैसा मानसून होगा और जैसी बारिश होगा उसका समान असर दोनों नदियों पर होगा। यानी जब केन में बढ़ आएगी तो बेतवा में भी बाढ़ ही आएगी और केन सूखी होगी तो बेतवा भी सूखी होगी। इसलिए यह बात शुरू से ही अवैज्ञानिक व तथ्यहीन थी कि केन में प्रचुर मात्रा में पानी होगा लेकिन बेतवा सूखी होगी। इसलिए इस परियोजना के माध्यम से ‘नदी-जोड़ो’ के पीछे जो भी तस्ब्बुर थे वो धराशायी हो जाते थे। क्या वाकई इतनी सी बात देश के नीति नियंताओं को समझ में नहीं आ रही थी?

पीपुल साइंस इंस्टीट्यूट से जुड़े पर्यवारणविद रवि चौपड़ा इस तरह की परियोजनाओं को एक ‘लतीफे’ की तरह देखते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि – ये ख्याल ही बेतुका है कि हिंदुस्तान में नदियों को आपस में जोड़ने से बाढ़ या सूखे जैसी स्थितियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। असल में नदियों को लेकर हमारी समझ साफ नहीं है। नदी-जोड़ो के ख्याल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बात करते हुए वो बताते हैं कि इसका ख्याल सबसे पहले एक एयर पायलेट को 1960 के आस-पास आया था जिसका नाम कैप्टन डसतुर था, जिसे बाद में जाने माने सिविल इंजीनियर के. एल. राव ने ‘गारलेंड कनाल’ के रूप में पेश किया। उनका मानना था कि देश में नदियों की एक मालानुमा संरचना होना चाहिए ताकि पानी को सहेजा जा सके और जरूरत के हिसाब हर क्षेत्र को पानी मुहैया हो सके। इस अवधारणा पर रवि चौपड़ा का स्पष्ट मानना है कि देश में गंगा नाम की जो नदी है वो इसी गारलेंड की भूमिका निभा रही है। इसे ही तो साफ रखने की ज़रूरत है जो सरकारों से हो नहीं रहा है।  

केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में एनडीए की पूर्णकालिक सरकार ने इस ख्याल को ठोस रूप देते हुए सबसे पहले केन-बेतवा को जोड़ने की परियोजना पर काम शुरू किया था। 2005 में इस परियोजना पर मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश की सरकारों के बीच समझौता हुआ था। इन सिफ़ारिशों से एक उम्मीद स्थानीय निवासियों को जागी है कि उनका यह पर्यावरण सुरक्षित रहेगा और ऐसी विनाशकारी परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यह बहुत अजीब था कि इतनी महत्वाकांक्षी परियोजना से उन्हें कोई लाभ नहीं था जिन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों से हमेशा के लिए महरूम कर दिया जाना था।

पत्थर खदान मजदूर संघ, पन्ना के कार्यकर्ता युसुफ बेग ने इस खबर पर खुशी जताई है और कहा है कि ‘सीईसी की रिपोर्ट ने यह साबित कर दिया है कि देश में इंजीनियरों से लेकर मंत्रालयों और उसकी समितियों में बैठे लोगों में काबिलियत नहीं है। जो बातें हम आंदोलन के माध्यम से लंबे समय से उठा रहे हैं वही बातें आज सीईसी ने कही हैं।‘

हालांकि इस रिपोर्ट में इस समृद्ध क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों व जंगल निवासियों के लिए कुछ नहीं कहा गया और ये शायद सीईसी के दायरे में नहीं था लेकिन अभी भी ये मूल सवाल ज्यों के त्यों बने हुए हैं कि पन्ना टाइगर रिजर्व से विस्थापितों को सही पुनर्वास नहीं मिला है।

इस बात से भी स्थानीय लोगों में खुशी है कि केन-बेतवा से पन्ना टाइगर रिजर्व का एक तिहाई हिस्सा डूब जाने वाला था शायद वो बच जाएगा जिसका सीधा प्रभाव उनकी बस्तियों पर पड़ेगा और उन्हें विस्थापित नहीं होना पड़ेगा। ज्ञात हो कि इस डूब क्षेत्र की भरपाई के लिए पन्ना टाइगर रिज़र्व के दायरे को बढ़ाने की योजना थी और उसका बफर ज़ोन व्यापक किया जाना था। इसके लिए लगभग 2 गाँव, नगरों को विस्थापित किया जाना था।

एक सवाल जो सीईसी ने नहीं उठाया वो है इस पूरे इलाके में वन अधिकार कानून का लंबित क्रियान्वयन। सौर, कोल, मवासी आदिवासी समुदाय आज भी इस कानून के क्रियान्वयन की राह देख रहे हैं ताकि उन्हें गरिमापूर्ण जीवन जीने की सांवैधानिक गारंटी मिले। इस पहलू पर और विस्तार से समझने की गंभीर ज़रूरत है जिसे संभवतया अगले लेख में उठाया जा सकता है।

बहरहाल, अब यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के पास है। अगर सुप्रीम कोर्ट इस रिपोर्ट को शब्दश: संज्ञान में लेता है तो यह इस तरह के मूर्खतापूर्ण नियोजन के लिए जिम्मेदार संस्थाओं के लिए गंभीर सबक होंगे।

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