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केरल के बहाने कुछ ज़रूरी सवाल

जलवायु-परिवर्तन से तालमेल बैठाने के लिए आधुनिक विकास के पैमाने के चश्मे से देखकर की गयी आलोचनाएँ न्याय नहीं करतीं।
Kerala Floods
Image Courtesy : NDTV

केरल बाढ़ की तबाही से गुज़र रहा है। पूरा भारत केरल के साथ खड़ा है। हर जगह से केरल की तबाही को कम करने के लिए आर्थिक या अन्य सहायता दे रहे हैं। हर इंसान दुखी है लेकिन सहायता देकर खुद को संतुष्ट कर रहा है कि उसने केरल के दर्द को कुछ कम किया है। क्या प्रकृति हमसे केवल इतना ही चाहती है? क्या प्रकृति और हमारे बीच के तालमेल के लिए केवल आपदा प्रबंधन पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है? क्या बायोडायवर्सिटी में सने भूगोल हमारे आधुनिक विकास के मॉडल के साथ तालमेल बैठा पायेंगे? क्या आर्थिक या अन्य सहायता देने और आपदा प्रबंधन करने से हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अगले कुछ सालों के बाद केरल में फिर से तबाही नहीं आएगी? क्या ऐसा नहीं लगता कि आर्थिक या अन्य सहायता देकर मिली संतुष्टि से हम खुद को छलावा दे रहे हैं? क्या ऐसा नहीं लगता कि जिन क्षेत्रों की  धमनी में  जैव विविधताएँ बहती हैं, इकोलॉजी वहाँ की सरकारों की प्रमुख प्राथमिकताएँ होनी चाहिए? केरल की बाढ़ की वजह से मची दर्दनाक तबाही हमें, चार कदम पीछे हटकर, भविष्य पर फिर से एक बार ईमानदारी से सोचने के लिए मजबूर करती है। 

साल 2010  में अरब सागर से सटे पूरे  पश्चिमी घाट की इकोलॉजी और बायोडायवर्सिटी के लिए इकोलॉजिस्ट माधव गाडगिल के कमान में  माधव गाडगिल कमेटी की स्थापना हुई। कमेटी ने  साल 2011 में अपना सारा काम पूरा कर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। सरकार ने इस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी। बाद में न्यायलय के आदेश पर रिपोर्ट सार्वजनिक की  गयी। इसलिए सरकारी रिपोर्टें जितनी गुपचुप तरीके से आती हैं  और चली जाती हैं, माधव गाडगिल रिपोर्ट के साथ ऐसा नहीं हुआ, यह रिपोर्ट खासा चर्चा में रही। इस रिपोर्ट के तहत पूरे पश्चिमी घाट को इकोलॉजिकली सेंसटिव एरिया (पर्यावरण के नज़रिये से संवेदनशील क्षेत्र) में बांटने की सिफ़ारिश की गयी थी। कहा गया था कि संभावित प्राकृतिक खतरों और मौजूदा परिस्थितियों के मद्देनजर पूरे पश्चिमी घाट में इकोलॉजिकली सेंसटिव एरिया (पर्यावरण के नज़रिये से संवेदनशील क्षेत्र) का निर्धारण किया जाए। इन्हें संवेदनशील ज़ोन 1, 2 और 3 में बाँटा जाए और बँटवारे के आधार पर यहाँ पर होने वाले कामों की प्रकृति का निर्धारण किया जाए। संवेदनशील ज़ोन 1 में किसी भी तरह के नए बाँध न बने और और न ही किसी तरह थर्मल पावर प्लांट और विंड पावर प्लांट की स्थापना की जाए। इस इलाके में बने अथिराप्पिल्ली और गुंडिया हाइडल प्रोजेक्ट्स को पर्यावरण मंज़ूरी नहीं दी जानी चाहिए। संवेदनशील ज़ोन 1 और 2 की वन्य ज़मीन पर गैर वन्य काम, निजी लाभ के लिए किसी भी तरह का  उत्पादन काम, खनन  के लिए लइसेंस देने की मनाही की सिफ़ारिश की गयी थी। खेती लायक ज़मीन पर अगले 5 से 8 सालों के भीतर रासायनिक कीटनाशक के उपयोग को बंद कर देने के लिए कहा गया था। इसके आलावा पश्चिमी घाट के किसी भी इलाके में चल रहे खनन के कामों और बाँध के प्रबंधन पर सख्त निगरानी की बात की गयी थी। 

पश्चिमी घाट से जुड़े 6 राज्यों में से किसी भी राज्य ने इन सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया। कहने वालों ने कहा कि गाडगिल रिपोर्ट ने पश्चिमी घाट से इंसानों को बाहर निकालकर पश्चिमी घाट बचाने की सिफारिश  की है। आधुनिक विकास के पैमाने के चश्मे से देखकर की गयी यह आलोचना पूरी तरह से जैवविविधता से सनी और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्राकृतिक हॉट स्पॉट घोषित क्षेत्र के लिए अतिरेक थी। इसके बाद साल 2013 में जयंन्ती नटराजन के दौर में गठित अंतरिक्ष वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन की कमान में पश्चिमी घाट पर कस्तूरीरंगन कमेटी की सिफ़ारिश आयी। इस कमेटी ने पश्चिमी घाट के भोगौलिक परिदृश्य की परिभाषा बदल दी। जैवविवधता से सने इस भूगोल को सांस्कृतिक भूगोल का नाम दिया गया। यानी कि कस्तूरीरंगन कमेटी का इशारा साफ़ था कि पश्चिमी घाट में इंसान रहते हैं और इनके सांस्कृतिक जीवन को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। जबकि सच्चाई यह थी कि गाडगिल रिपोर्ट ने इंसानों को नहीं आधुनिक विकास के उन तरीकों को पश्चिमी घाट के लिए  नकारा था जिनको अपनाने से प्रकृति रूठकर सबकुछ तहस नहस करने लगती है। कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में  पश्चिमी घाट के  तकरीबन 60 फीसदी भू परिदृश्य को सांस्कृतिक भू परिदृश्य और 37 फीसदी भू परिदृश्य को प्राकृतिक भू परिदृश्य कहा गया था। प्राकृतिक भू परिदृश्य में पश्चिमी घाट का तकरीबन 60 हज़ार वर्ग किलोमीटर इलाका शामिल किया गया।  इस रिपोर्ट के तहत केवल प्राकृतिक क्षेत्र को ही पर्यावरण के नज़रिए से संवेदनशील घोषित किया गया था। और इस क्षेत्र में खनन, उत्खनन और बालू खनन पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया गया। किसी भी तरह के थर्मल पॉवर प्लांट की स्थापना पर प्रतिबंध लगाया गया और हाइड्रो पॉवर प्लांट पर सख्त निगरानी करने के साथ संचालन के लिए कहा गया। प्रदूषित करने वाले उद्योगों की स्थापना पर पूरी तरह से प्रतिबंध की सिफारिशें की गई। 

इन दोनों रिपोर्टें का कुल जमा परिणाम यह रहा कि पिछले साल केरल के तकरीबन 13 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को पर्यावरण के नज़रिए से संवेदनशील के रूप में अधिसूचित कर दिया गया।

अब सवाल यह उठता है कि क्या गाडगिल रिपोर्ट को पूरी तरह से लागू कर दिया जाता, तो केरल को इतनी बड़ी तबाही से बचा जा सकता था? तो, इसका जवाब है नहीं। लेकिन नहीं कहने वाले लोग वह हैं जो यह कहेंगे कि केरल में आई तबाही के लिए केरल में हुई अभूतपूर्व बारिश ज़िम्मेदार है और अभूतपूर्व बारिश से बचना असम्भव है।

लेकिन इसके दूसरे पक्ष पर गौर कीजिए। केरल में छोटी-बढ़ी तकरीबन 44 नदियाँ बहती हैं। पेरियार यहाँ की सबसे बड़ी नदी है। साक्ष्य बताते है कि जंगल काटे गए हैं। ज़मीन की मज़बूती को कम किया है। नदियों के रास्ते में अतिक्रमण किया गया है। बस्तियाँ बसाई गई हैं। भारी बारिश से बचा जा सकता है लेकिन नदियों के रास्ते में आने से नहीं। जहाँ नदियाँ थी वहाँ  यह तय है कि कभी न कभी बाढ़ आएगी।

लेकिन गाडगिल रिपोर्ट पश्चिमी घाट के भू परिदृश्य को बहुत मौलिक से ढ़ंग से देखती है। और इसकी परेशानियों के समाधान के लिए मौलिक बदलाव की चाह में बात करती है। गाडगिल एक इंटरव्यू में कहते हैं कि उनकी रिपोर्ट अंग्रेजी में है लेकिन जब मलयालम में अनुवाद कर इसकी किताब बिकनी शुरू हुई तो कुछ ही दिनों में इसकी दस हज़ार प्रतियाँ बिक गई। 

जलवायु परिवर्तन के इस दौर में विषुवत वृत्त के इलाकों को कठोर प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए प्रकृति और इंसानों के बीच बने तालमेल में मूलभूत परिवर्तन करना ज़रूरी है। इसे इस तरह से समझिए कि हमारी उपभोग और विलासिता की ज़िन्दगी ने पृथ्वी के ताप को इतना बदतर बना दिया है कि ग्लोबल वॉर्मिंग भविष्य के वजूद की सबसे बड़ी परेशानी बन गई है। पृथ्वी का ताप जितना बढ़ेगा, पृथ्वी का भविष्य उतने ही खतरे की तरफ बढ़ेगा। घनघोर बारिश होगी। बारिश की वजह से सबसे पहले और सबसे अधिक प्रभावित विषुवत वृत्तीय इलाके होंगे। दक्षिण भारत का भविष्य बारिशों में लिपटा होगा। आपदाएँ आदत की तरह आएँगी और तबाहियों से बचना मुश्किल हो जाएगा।

केरल की बाढ़ इशारों ही इशारों में हमसे यह भी कहना चाह रही है कि हम अपनी चमक-दमक और विलासिता की  ज़िन्दगी के साथ अपने भविष्य को बचाने के लिए  कुछ ज़रूरी समझौते करे। उपभोग की उस जीवनशैली में बदलाव लाएँ, जिसमें प्रकृति का अंधाधुंध दोहन होता है। जैसे कि दुनिया के जिन हिस्सों में फ्रिज की बजाए घड़े से काम चल सकता है, घड़े का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। जहाँ साईकिल से जाया जा सकता है वहाँ गाड़ी से जाने में हम प्रकृति पर हमला ही करेंगे। 

अब अगर इंसानी सभ्यता को नियंत्रित करने वाली लोककल्याणकारी सरकारों ने अपने विकास के मॉडल में प्रकृति के साथ तालमेल नहीं बिठाया तो प्रकृति हमें आने वाले दिनों में तबाह कर देगी। प्रकृति के संदर्भ में हमारी आपदा प्रबंधन  से जुड़ी सारी चालाकियां और डोनेशन से जुड़ी सारी संतुष्टियां धरी की धरी रह  जाएंगी। हम भयावह दौर में जा रहे हैं और मनगढ़ंत संतोष से हम इससे नहीं लड़े सकते। हमें अपने जीने के आदतों में कुछ मौलिक बदलाव करने होंगे ।

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