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कश्मीरः ‘अलेप्पो, मोसुल, होम्स से भी बदतर है संचार'

स्थानीय मीडिया की क़ीमत पर भारतीय टीवी चैनल और अंतरराष्ट्रीय मीडिया घाटी की स्थिति को लेकर लड़ रहे हैं।
kashmir media
प्रतीकत्मक तस्वीर Image Courtesy: Outlook

कश्मीर में संचार की पाबंदियों से सबसे ज़्यादा प्रभावित मीडिया संस्थान और उसमें काम करने वाले पत्रकार हैं। इस बीच भारतीय व अंतरराष्ट्रीय मीडिया के बीच कशमकश जारी है। भारतीय टेलीविजन चैनल की रिपोर्ट में दिखाया जा रहा है कि कश्मीर की स्थानीय जनता जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के सरकार के फैसले से जहां ख़ुश हैं वहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया कर्फ़्यू, विरोध प्रदर्शन और प्रतिबंध की ज़मीनी हक़ीक़त को दिखा रही है।

इन दो मीडिया दिग्गजों के बीच इस कशमकश में कश्मीर की स्थानीय मीडिया की आवाज़ दबाई जा रही है। स्थानीय मीडिया घराना, उनके रिपोर्टर, फ़ोटोग्राफ़र और अन्य स्टाफ़ शासन-प्रशासन के सीधे निशाने पर है।

कश्मीर लाइफ के एसोसिएट एडिटर शम्स इरफान कहते हैं, “5 अगस्त को लगाई गई पाबंदियों के बाद से हमने समाचार प्रकाशित नहीं किया है। यहां तक कि अपने स्टाफ़ से मेरा कोई संपर्क भी नहीं है।” वे कहते हैं कि कश्मीर लाइफ़ के ज़्यादातर स्टाफ़ नॉर्थ और साउथ कश्मीर में रहते हैं। उनसे संपर्क करने का कोई रास्ता और कोई तरीक़ा नहीं है।

कई पत्रकार 2016 की व्यापक अशांति के साथ वर्तमान स्थिति की तुलना करते हैं और वर्तमान स्थिति को सबसे बदतर पाते हैं। स्थानीय दैनिक के ऑनलाइन एडिटर कहते हैं, “हम 2016 की व्यापक अशांति में नियमित काम करते थे लेकिन ऐसा नहीं था। इंटरनेट नहीं था इसलिए ऑनलाइन की सभी ब्रेकिंग न्यूज़ अचानक रुक गई। भले ही हम किसी तरह इंटरनेट प्राप्त करने में सफल हो जाते तो कोई भी अधिकारी ऑन रिकॉर्ड न्यूज़ की पुष्टि नहीं करते। इसलिए हमने सोचा कि कुछ समय के लिए ऑनलाइन सेक्शन को सस्पेंड करना बेहतर होगा।”

साक्षात्कार किए गए कई पत्रकारों ने प्रतिशोध या गिरफ्तारी के डर से पहचान न बताने की इच्छा ज़ाहिर की।

स्थानीय साप्ताहिक 'द कश्मीर वाला' ने 4 अगस्त को आख़िरी अंक प्रकाशित किया था। इसके बाद से प्रकाशित नहीं किया गया। इस साप्ताहिक के एडिटर फ़हद शाह कहते हैं, "हमारा वेबसाइट पिछले 14 दिनों से बंद है। हमारे स्टाफ़ या डिज़ाइनर से हमारा कोई संपर्क नहीं है। हमारे प्रिंटिंग प्रेस में रॉ मैटेरियल भी नहीं हैं।”

शाह कहते हैं अगर उनका कोई रिपोर्टर स्टोरी फ़ाइल करता है तो यह अपूर्ण होगा क्योंकि वे श्रीनगर से बाहर जा नहीं सकते हैं। "हमारे पास सूचना तक सीमित पहुंच है। हमारे पास कोई रास्ता नहीं है कि हम किसी घटना की पुष्टि करने के लिए किसी अधिकारी से संपर्क कर सकते हैं।”

द 'मीडियासेंटर

हालांकि अधिकारियों ने श्रीनगर के एक स्थानीय होटल में एक मीडिया सेंटर की स्थापना की है लेकिन कई पत्रकार यहां आने और यहां से स्टोरी फ़ाइल करने में संकोच करते हैं। यहां क़रीब 200 पत्रकारों के लिए कुल पांच डेस्कटॉप लगाए गए हैं। वर्तमान में बड़ी संख्या में नई दिल्ली के पत्रकार कश्मीर आए हुए हैं। इससे मामूली संख्या में उपलब्ध इन डेस्कटॉप का इस्तेमाल करना और भी मुश्किल हो गया है।

स्थानीय पत्रकार जुनैद कथजू कहते हैं, “जबसे ये मीडिया सेंटर स्थापित हुआ तबसे मैं वहां नहीं गया। पत्रकारों की भारी भीड़ के कारण वहां से काम करना बहुत मुश्किल है।”

कई पत्रकारों को अपना फुटेज या तस्वीर देने के लिए उत्तर और दक्षिण कश्मीर से श्रीनगर स्थित अपने मुख्य कार्यालय जाना पड़ता है।

फ़ोटो जर्नलिस्ट निसार-उल-हक़ का कहना है कि “फ़ोटो और वीडियो देने के लिए मैं श्रीनगर स्थित अपने कार्यालय हर दो दिनों पर दक्षिण कश्मीर के पुलवामा से जाता हूं। सरकार और सुरक्षा बल श्रीनगर जाने के दौरान [पत्रकारों को] रोकते हैं लेकिन [वे] केवल पहचान पत्र की जांच करते हैं और हमें जाने की अनुमति देते हैं।"

पत्रकारों का यह भी कहना है कि इंटरनेट के इस्तेमाल की कम से कम मीडिया संस्थानों को अनुमति दी जानी चाहिए ताकि वे समाचारों को सत्यापित कर सकें और अफवाहों को रोक सकें। फ़हद शाह कहते हैं, “हम मीडिया सेंटर से काम नहीं कर सकते क्योंकि इसका इस्तेमाल सीमित है। अधिकारियों को कम से कम मीडिया को [पूरा इंटरनेट] देना चाहिए। यह उन अफ़वाहों को दबाएगा जो इस समय कश्मीर घाटी में बड़े पैमाने पर फैल रही है।”

21वीं सदी को तकनीक का युग माना जाता है ऐसे में उत्तरी जम्मू-कश्मीर के लोग सबसे बदतर संचार पाबंदियों से गुज़र रहे हैं। इस सख़्त पाबंदियों का यह क्षेत्र साक्षी बन गया है। यहां के लोगों का कहना है कि सीरिया या इराक में सक्रिय संघर्षों के दौरान भी इस तरह के सख़्त बंदिशों का सामना नहीं किया गया।

नाम का खुलासा न करने की शर्त पर श्रीनगर के बाग़-ए-महताब के स्थानीय पत्रकार कहते हैं, “जब सीरिया में अलेप्पो और होम्स में लड़ाई अपने चरम पर था तब भी सीरियाई लोगों के एसओएस संदेश [ऑनलाइन] चलन में थे। इसी तरह, जब इराक़ के मोसुल में युद्ध छिड़ा हुआ था तो एक बार फिर ट्विटर पर एसओएस संदेश देखे जा सकते थे। उन सक्रिय संघर्ष क्षेत्रों में भी इंटरनेट सेवाओं को नहीं रोका गया था। कश्मीर में हम पिछले 30 वर्षों में सबसे ख़राब संचार सेवा देख रहे हैं।”

उनका कहना है कि घाटी में कई स्तर पर संचार पाबंदियां लगाई गई हैं। “पहले, मोबाइल सेवा नहीं है। दूसरा, इंटरनेट ब्लॉक कर दिया गया है। तीसरा, लैंडलाइन फ़ोन बंद हैं। चौथा, घाटी में कर्फ़्यू लगाए जाने के कारण एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से संचार नहीं हो पा रहा है।"

सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं

अब तक की सबसे सख़्त पाबंदियों के चलते कश्मीर घाटी में दूर-दराज़ के क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को अपने परिवारों के साथ बातचीत करने में मुश्किल हो रही है। श्रीनगर के एक स्थानीय दुकान में काम करने वाले बिलाल अहमद भट कहते है, “मैं अपने परिवार के सदस्यों के साथ बात नहीं कर पा रहा हूँ। ईद की छुट्टियों के बाद काम शुरु करने के बाद से उनसे कोई संपर्क नहीं है।

उत्तरी कश्मीर के हाजिन इलाक़े के निवासी भट अपने परिवार से मिलने के लिए छुट्टी के दिन तड़के अपने पैतृक घर आए। वे कहते है, "2016की नागरिक अशांति के दौरान मैं अपने परिवार के साथ बात करने में सक्षम था क्योंकि मोबाइल फ़ोन काम कर रहे थे लेकिन आज स्थिति[संचार पूरी तरह बंद होने के कारण] चिंताजनक है।"

भट का कहना है कि उन्हें उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा ज़िले में हाजिन के सफ़पोरा इलाक़े में अपने परिवार से मिलने के लिए छुट्टी के दिन कम से कम 80 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है; उन्हें अपने रिश्तेदारों की ख़बर लेने और उन्हें अपने बारे में जानकारी देने के लिए इतनी लंबी दूरी का सफ़र करना पड़ता है।

कश्मीर घाटी के डॉक्टर भी तनाव की स्थिति में हैं। संचार पाबंदियों के चलते उन्हें अपने अस्पतालों तक पहुंचना और अपने मरीज़ों को देखना असंभव हो गया है। वे अपने अस्पतालों तक समय पर नहीं पहुंच पा रहे हैं।

श्रीनगर के निगीन क्षेत्र की निवासी का कहना है, “मेरी मां श्रीनगर के एक प्राथमिक अस्पताल में डॉक्टर हैं। कुछ दिन पहले [शुक्रवार की सुबह] एक एम्बुलेंस ड्राइवर एक काग़ज़ के टुकड़े पर एक मरीज़ के विवरण के साथ हमारे घर आया। यह उस मरीज़ के लिए सौभाग्य की बात थी कि मेरी मां इन पाबंदियों के बावजूद अस्पताल पहुंचने में सफल रही और मरीज़ को बचा लिया।”

वे कहते हैं कि कश्मीर में इस तरह की पाबंदियां पहले कभी नहीं लगी थीं। उनकी बहन बेंगलुरु में रहती है और वह दो सप्ताह से उससे संपर्क नहीं कर पा रहे है। कुछ रिश्तेदार ईद के मौक़े पर उनके घर आए लेकिन उसके बाद उनसे मुलाक़ात नहीं हो पाई है।

कश्मीर में लोगों ने संचार के पुराने साधनों का सहारा लिया है। उन्होंने रिश्तेदारों या दोस्तों के घर जाकर उनका हाल पता करना शुरु कर दिया है।

उत्तर कश्मीर के रफ़ियाबाद इलाक़े में रहने वाले एक छात्र का कहना है, “जब आप अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को आमने-सामने देखते हैं तब आप उनके बारे में फ़िक्र करना बंद कर देते हैं। अगर आप उन्हें नहीं देखते हैं तो आप दिन में कम से कम दो बार ज़रूर उनको लेकर चिंतित होने लगते हैं। इन दिनों कश्मीर में अपनी संतुष्टि के लिए अपने रिश्तेदारों को अपनी नज़रों से देखने की ज़रूरत है।”

उनका कहना है कि स्थानीय लोगों को अपने दोस्तों या रिश्तेदारों के बारे में "दस अलग-अलग स्थानों पर दस अलग-अलग लोगों" से पूछना पड़ता है क्योंकि वे अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारी लेने का प्रयास करते हैं।

दानिश बिन नबी कश्मीर के पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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