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कुछ सरकारी नीतियों ने कश्मीर में पंडित-मुस्लिम संबंधों को तोड़ दिया है : संजय टिक्कू

कश्मीरी पंडित नेता का कहना है कि जब कश्मीर में किसी हिंदू की हत्या की जाती है, तो सभी कश्मीरी मुसलमानों को इसकी निंदा करनी चाहिए, वैसे ही जैसे कि सभी हिंदुओं को भारत में कहीं भी मुसलमानों की हत्या की निंदा करनी चाहिए।
कश्मीर
फाइल फोटो

संजय टिक्कू उस कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष हैं, जिसे उन्होंने 1995 में कश्मीर घाटी में रहने वाले अपने समुदाय के सदस्यों के अधिकारों की रक्षा के लिए, अहिंसक रास्ते के ज़रिए लड़ने के लिए स्थापित किया था। 1990 में उग्रवाद के उदय के कारण जब घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ, तब टिक्कू लगभग 23 साल के थे और उन्होने घाटी में ही रहने का फैसला किया था।

टिक्कू का कश्मीरियों, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच काफी सम्मान है, क्योंकि वे वैचारिक रूप से विरोधियों के साथ भी बातचीत करने में दुर्जेय क्षमता रखते है। वे सरकार की कुछ दोषपूर्ण नीतियों और कश्मीर में राज्य द्वारा और आतंकी हमलों द्वारा लक्षित हत्याओं के लिए जिम्मेदार सरकार की आलोचना बड़ी निडरता से करते हैं। एजाज़ अशरफ़ के साथ इस साक्षात्कार में, टिक्कू ने अपने विश्लेषण के ज़रिए बताया है कि पिछले हफ्ते कश्मीर में धार्मिक अल्पसंख्यकों की हत्या से वहां रहने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों पर उसका क्या प्रभाव पड़ा है।

क्या आप उन लोगों से सहमत हैं जो कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की स्थिति 1990 से भी बदतर है, जिस साल उन्होंने उग्रवाद के बढ़ने के कारण कश्मीर से पलायन करना शुरू किया था?

मैं उस समय लगभग २३ वर्ष का था, उस वर्ष और उसके बाद जो हुआ उसे याद करने के लिए यह उम्र काफ़ी थी। हाँ, आज स्थिति 1990 के दशक की तुलना में बदतर है। मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पिछले हफ्ते अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों की हत्या की गई थी। 1990 की तरह, 2021 में भी बहुसंख्यक समुदाय बैकफुट पर है।

बैकफ़ुट?

मेरा मतलब यह है कि जब एक कश्मीरी पंडित की हत्या होती है, तो बहुसंख्यक समुदाय उसके परिवार को सांत्वना देता है। उन्हें [घाटी की] अल्पसंख्यक आबादी को दिलासा दिलाना होगा,  और उनमें विश्वास जगाना होगा। कश्मीरी पंडितों का आखिरी नरसंहार 2003 में पुलवामा जिले के नंदीमार्ग गांव में हुआ था। चौबीस गैर-प्रवासी कश्मीरी पंडित (एक शब्द उनके लिए जो पलायन में शामिल नहीं हुए थे) मारे गए थे। पिछले हफ्ते, 18 साल बाद पहली बार कश्मीरी पंडितों की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिसकी शुरुआत एमएल बिंदू [एक प्रतिष्ठित फार्मासिस्ट] से हुई है।

आप क्यों कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाने का मौजूदा दौर 1990 से भी बदतर है?

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय के मेरे प्रिय मित्र चुप हैं।

आप उन्हें क्या कहना चाहेंगे कि वे क्या करें?

मैं घाटी में रहता हूं। कश्मीरी मुसलमान मेरे निकटतम पडोसी हैं. ज़रूर, उनमें से कई ने पिछले सप्ताह की हत्याओं की निंदा की होगी। लेकिन उन्हें कुछ और करने की ज़रूरत है—उदाहरण के लिए, उन्हें सड़कों पर उतरना होगा। इससे अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस करेंगे। आखिरकार हम भी 1990 में और उसके बाद कश्मीरी मुसलमानों के साथ खड़े हुए थे।

बहुसंख्यक समुदाय के साथ कश्मीर पंडित किस तरह खड़े हुए थे? 

घाटी में रहने का विकल्प चुनकर, पलायन में शामिल न होकर, 808 हिंदू परिवार बहुसंख्यक समुदाय के साथ खड़े रहे थे। पीछे रहने का हमारा निर्णय बहुसंख्यक समुदाय का समर्थन करने का हमारा तरीका था। अगर हम भी घाटी छोड़ देते, तो कोई कश्मीरी पंडित मरने के लिए नहीं बचा होता। वास्तव में, यदि वे चाहते हैं कि कश्मीर एक बार फिर से पृथ्वी पर स्वर्ग बने, तो उन्हें सभी नागरिकों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और मुसलमानों को समान रूप से, राज्य और गैर-राज्य दोनों द्वारा हत्या के खिलाफ सामने आना होगा।

क्या आपने पुलिस सुरक्षा का विकल्प चुना है?

52 साल में पहली बार 5-6 अक्टूबर की रात को पुलिस मेरे घर आई थी और कहा कि चूंकि मैं अभी भी आतंकवादियों के निशाने पर हूं, इसलिए मुझे उनकी सुरक्षा ले लेनी चाहिए। मेरा परिवार अभी भी घर में ही है। उनकी कोई सुरक्षा नहीं है।

क्या आपको लगता है कि हम कश्मीरी पंडितों के पलायन का एक और दौर देखेंगे?

अगर हत्या का एक और दौर चलता है, तो मुझे डर है, न केवल कश्मीरी पंडित बल्कि सभी अल्पसंख्यक घाटी छोड़ देंगे। इसलिए मैंने आज [10 अक्टूबर को] अपने सोशल मीडिया पोस्ट में अनुरोध किया है कि सभी मस्जिद समितियों को अल्पसंख्यकों को समर्थन और सुरक्षा का आश्वासन देने के लिए सार्वजनिक संबोधन प्रणाली का इस्तेमाल करना चाहिए।

यदि हत्याओं का एक और दौर होता है, तो क्या आप जैसे व्यक्ति भी घाटी छोड़ देंगे?

जी हाँ, यहां तक में भी घाटी छोड़ दूंगा। 

घाटी में कितने कश्मीरी पंडित हैं?

जैसा कि मैंने आपको बताया, 808 हिंदू परिवार हैं। इनमें कश्मीरी पंडितों के अलावा राजपूत जैसे सामाजिक समूह भी शामिल हैं। इसके अलावा, 5,000 अन्य व्यक्ति हैं जो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में 2010 में और उसके बाद उन्हें दी गई नौकरियों के कारण आए थे।

कुछ लोग तो पहले ही घाटी से जम्मू के लिए निकल चुके हैं।

वे अस्थायी रूप से गए हैं।

कुछ का कहना है कि अल्पसंख्यकों से ज्यादा मुसलमान मारे गए हैं। जम्मू-कश्मीर से बाहर का अल्पसंख्यक होने के नाते मैं वहां के गैर-मुसलमानों की मानसिकता को समझ सकता हूं। फिर भी, मैं चाहता हूं कि आप घाटी में धार्मिक अल्पसंख्यकों के भय का वर्णन करें।

इस साल मारे गए 28 नागरिकों में से 21 मुस्लिम थे। फिर भी, बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मुहैया कराने और उन्हें सुरक्षित महसूस कराने की जिम्मेदारी है। कश्मीर के मौजूदा हालात में अल्पसंख्यकों का खुद को असुरक्षित महसूस करना स्वाभाविक है.

यह पूरे भारत के लिए भी सच है। भारत में जब भी किसी मुसलमान की हत्या की जाती है तो सभी हिंदुओं को इसकी निंदा करनी चाहिए। जब भी घाटी में किसी हिंदू की हत्या होती है तो सभी कश्मीरी मुसलमानों को इसकी निंदा करनी चाहिए। हमें इंसानों के रूप में प्रतिक्रिया करने की जरूरत है। मैं राज्य और गैर-राज्य दोनों द्वारा निर्दोषों की लक्षित हत्याओं का विरोध करता हूं। मेरा यह दृष्टिकोण पीड़ितों की धार्मिक पहचान की परवाह किए बिना, लक्षित हत्या की हर घटना पर जारी किए गए मेरे संगठन के बयानों में परिलक्षित होता है।

क्या आप फार्मासिस्ट एमएल बिंदू को आप जानते थे जिनकी हत्या गोली मारकर कर दी गई हैं?

जी हां। 

क्या यह सही बात है कि उनकी हत्या इसलिए की गई कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े थे?

1990-91 में भी, जब भी कोई कश्मीरी पंडित मारा जाता था, तो उसे या तो सेना का मुखबिर या फिर जनसंघी करार दिया जाता था। [भारतीय जनसंघ के सदस्य, भारतीय जनता पार्टी के पहला अवतार, को जनसंघियों के रूप में जान जाता था।] यह कश्मीरी पंडितों की हत्या को सही ठहराने का एक सुविधाजनक कारण बन गया है। वास्तव में, यहां तक ​​कि जब गैर-राज्य अभिनेता (आतंकी) किसी कश्मीरी मुसलमान को मारते हैं, तो उसे तुरंत सरकार और उसकी सुरक्षा एजेंसियों का मुखबिर घोषित कर दिया जाता है।

राष्ट्रीय समाचार पत्रों में बिंदरू की बेटी के बयान की साहस की मिसाल के तौर पर तारीफ़ की गई है।

मैं उनके बयान का समर्थन नहीं करता। हर कश्मीरी मुसलमान पथराव नहीं करता है।

5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद क्या कश्मीर में स्थिति बिगड़ी या सुधरी है?

यह मसला केवल कश्मीर की नहीं बल्कि पूरे जम्मू-कश्मीर का है, जो एक राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बन गया है। इसने एक राजनीतिक शून्य पैदा कर दिया है। सरकार को इस खालीपन को भरने के लिए कोई योजना बनानी चाहिए।

लेकिन हालात सुधरे या बिगड़े हैं?

इसमें न तो कोई सुधार हुआ है और न ही हालत बिगड़े हैं। 

क्या धारा 370 को निरस्त करने के बाद आपका जीवन बदल गया है?

हवा में उदासी की भावना थी। इसने सभी को छुआ है। हमें एक खुली जेल में डाल दिया गया था [5 अगस्त के बाद और उसके बाद के लॉकडाउन के एक संदर्भ में], और सभी संचार लिंक टूट गए थे। मैं ग्राउंड जीरो पर रह रहा था, साथ में 808 हिंदू, 17,000 सिख और 602 ईसाई परिवार यहां रहते हैं। घाटी में 75,000 अल्पसंख्यक रहते हैं। अल्पसंख्यक होने के नाते हमें हमेशा भारतीय कहा जाता रहा है।

तो?

जम्मू-कश्मीर से बाहर के भारतीयों से मेरा सवाल है: मुझे और अन्य सभी भारतीयों को खुली जेल में क्यों डाला गया?

कश्मीरी पंडितों को अचानक क्यों निशाना बनाया गया है?

1990 से पहले भी यह धारणा हमेशा मौजूद थी कि दिल्ली जब भी घाटी में कुछ भी करती है, वह कश्मीरी पंडितों के इशारे पर करती है। अक्टूबर में हमने जो सामना किया है, वह इसी विश्वास की एक जड़ है।

इस विचार के बारे में क्या कहना है कि कश्मीरी पंडितों को अचानक निशाना बनाना सरकार द्वारा उस पोर्टल के खिलाफ प्रतिक्रिया है, जहां वे शिकायत दर्ज कर सकते हैं यदि उनकी संपत्ति या तो संकट में बेची गई थी या अतिक्रमण या अवैध रूप से कब्जा कर लिया गया था? कहा जाता है कि इस पोर्टल ने कश्मीरी मुसलमानों में जबरदस्त चिंता पैदा कर दी है।

हाँ, यह सच है। मेरे समुदाय की ओर से मांग की गई थी कि उनकी संपत्तियों पर वर्षों से अतिक्रमण किया गया है, और स्थानीय अधिकारियों से शिकायत करने के बावजूद, वे दबाव में थे, उन्हें राहत नहीं मिल रही थी। 

लेकिन जिस तरह से केंद्र शासित प्रदेश सरकार ने इस नीति को लागू करने की कोशिश की, उसने कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों के बीच के रिश्ते को तोड़ दिया है।

क्या आप समझा सकते हैं कि कैसे?

यह नहीं कहा जा सकता है कि अपनी संपत्ति बेचने वाले सभी कश्मीरी पंडितों ने संकट में ऐसा किया था। जम्मू और कश्मीर प्रवासी अचल संपत्ति (संरक्षण, सुरक्षा और संकट में बिक्री) अधिनियम, 1997 के तहत ऐसी संपत्तियों को विक्रेता/मालिक को बहाल किया जा सकता है। हालांकि, कश्मीरी पंडितों द्वारा बेची गई सभी संपत्तियों की बिक्री केवल 10 से 15 प्रतिशत थी।

केंद्र शासित प्रदेश की सरकार कहां चूक कर गई?

देखिए, मैं भी किसी फर्जी खसरा नंबर का हवाला देकर उस पोर्टल पर शिकायत दर्ज करा सकता हूं। यह जांचने की जिम्मेदारी सरकार की है कि मेरा आवेदन सही है या नहीं।

क्या वे आवेदन की सत्यता की जांच किए बिना कार्रवाई कर रहे थे?

हां। वास्तव में, हमने भी इस मुद्दे पर अधिकारियों से अपनी चिंता व्यक्त की थी। अभी तो उन्होंने ऐसा करना बंद कर दिया है।

शिक्षकों की हत्या के संबंध में, कुछ का कहना है कि यह राज्य द्वारा स्कूल शिक्षकों पर 15 अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज फहराने और बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित करने के दबाव में की गई प्रतिक्रिया थी। बदले में उन शिक्षकों ने माता-पिता पर अपने बच्चों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए भेजने का दबाव बनाया था।

हां यह सही है। लेकिन सभी स्कूल शिक्षक अल्पसंख्यक समुदायों से नहीं हैं। उनमें से ज्यादातर, वास्तव में, बहुसंख्यक समुदाय से हैं। आप शायद जानते हैं होंगे कि बुरहान वानी के पिता [बुरहान को आतंकवादियों के पोस्टर बॉय के रूप में जाना जाता था और वह 2016 में मारा गया था] ने भी उस स्कूल में झंडा फहराया जहां वह पढ़ाते हैं। उस पल की वह फोटो और वीडियो वायरल हो गए थे। अगर मारे गए शिक्षकों का गुनाह यह था कि उन्होंने झंडा फहराया था तो बुरहान वानी के पिता को भी मार दिया जाना चाहिए था।

दूसरे शब्दों में, आप कह रहे हैं कि अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षकों को क्यों निशाना बनाया जाता है।

हाँ।

क्या आपको लगता है कि राष्ट्रीय ध्वज फहराने में भाग लेने के लिए बच्चों को भेजने के लिए शिक्षकों पर दबाव डालने का तरीका त्रुटिपूर्ण था?

हाँ, निश्चित रूप से, 100 प्रतिशत गलत था।

घाटी में जनसांख्यिकीय परिवर्तन का डर कितना गहरा और वास्तविक है?

जब भारत सरकार ने 2009 में घोषणा की थी कि वह कश्मीरी पंडितों को घाटी में वापस लाएगी, तो हुर्रियत नेताओं को डर था कि सरकार भारत में कहीं और से हिंदुओं को यहां बसाने की एक चाल है। उन्होंने उन ट्रांजिट कैंपों का विरोध किया जहां 2010 में एक योजना के तहत नौकरी पाने वाले कश्मीरी पंडितों को रखा जाना था। हुर्रियत नेता चाहते थे कि वे नागरिक आबादी के बीच रहें।

2013 में, मैं कुछ हुर्रियत नेताओं से मिला था। मैंने उनसे कहा कि तुम सब कहते हो कि कश्मीरी पंडित लौट आएं और कश्मीरियत [या धार्मिक समन्वय की परंपरा] का विचार उनके बिना पूरा नहीं हो सकता है। यदि वे वास्तव में घाटी में लौटना चाहते हैं, तो वे कहाँ रहेंगे? आप और मैं दोनों जानते हैं कि उनमें से अधिकांश अपनी संपत्तियां बेच चुके हैं। क्या आप, जिन्होंने उनकी संपत्तियां खरीदीं उन्हें खाली करा सकते हैं? क्या आप उन मुसलमानों को मुआवजा दे सकते हैं जिन्होंने उनकी संपत्ति खरीदी थी? वे इस पर चुप हो जाते हैं। मैंने उनसे कहा कि उन्हें कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए एक योजना बनानी चाहिए, जो कि घाटी का अल्पसंख्यक समुदाय हैं। उनका कहना था कि उन्होंने इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। मैंने इस बात को नागरिक समाज समूहों को भी बताया था।

लेकिन डोमिसाइल सर्टिफिकेट को लेकर लोगों में काफी शंका है।

भारत से कोई भी क्यों अशांत क्षेत्र में बसना चाहेगा?

पिछले साल आप आमरण अनशन पर क्यों बैठे थे?

मैंने अनशन पर इसलिए गया था क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश की सरकार ने कश्मीरी पंडितों के बीच बेरोजगारों को नौकरी देने की कोई योजना लागू नहीं की थी। हमने सरकार को एक आकस्मिक योजना सौंपी थी कि अगर वह चाहती है कि कश्मीरी पंडित घाटी न छोड़े तो उन्हें नौकरी दी जानी चाहिए। मेरे द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के ज़रिए मैं सभी 808 हिंदू परिवारों की आर्थिक स्थिति जानता हूं।

5 अगस्त 2019 और कोविड-19 संकट के बाद, जम्मू और कश्मीर की अर्थव्यवस्था ठहर गई थी। कई कश्मीरी पंडित परिवारों ने मुझे मदद के लिए बुलाया। दक्षिण कश्मीर के एक घर में, जहाँ मैं उनकी स्थिति का सर्वेक्षण करने गया था, मैंने बगल के एक कमरे में रोने की आवाज़ सुनी। मैंने उनसे कारण पूछा कि वह व्यक्ति क्यों रो रहा है। उन्होंने कहा कि उन्होंने दो दिनों से भोजन नहीं किया है। मैं उनकी दुर्दशा से इतना आहत हुआ कि मैंने वहीं फैसला कर लिया और फिर आमरण अनशन पर बैठ गया। [केपीएसएस की मांगों को पूरा करने के सरकार के आश्वासन के बाद टिक्कू ने दसवें दिन अनशन तोड़ दिया था।]

लेकिन केंद्र सरकार यह धारणा जताती है कि वह कश्मीरी पंडितों के लिए बहुत कुछ कर रही है।

वे कश्मीर के बाहर कश्मीरी पंडितों के लिए ऐसा कर रहे होंगे, लेकिन निश्चित रूप से यहां रहने वालों के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। सरकार का ध्यान सब गलत जगह पर है।

क्या आपको लगता है कि राष्ट्रीय राजनीति में कश्मीर कार्ड का महत्व है, विशेष रूप से हिंदी पट्टी में, जो जम्मू-कश्मीर की स्थिति को जटिल बनाता है?

पहले कांग्रेस हो या जनता पार्टी, या अब बीजेपी, इन सभी ने अपनी राजनीति के लिए कश्मीर [कार्ड] का इस्तेमाल किया है। निश्चित रूप से, 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद, उसने बहुत बार इस कार्ड को खेला है। 2014 और 2019 दोनों में, भाजपा ने वोट बटोरने के लिए कश्मीर को एक भावनात्मक मुद्दे में बदल दिया था। लेकिन मुझे लगता है कि पिछले तीन-चार महीनों में, अगर आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयानों को देखें, तो आप पाएंगे कि उनकी बयानबाजी अब बदल गई है। उदाहरण के लिए, भागवत ने हाल ही में एक संगोष्ठी में कहा कि मुसलमानों के बिना हिंदू राष्ट्र नहीं हो सकता है। परंतु…

यह हुर्रियत के कहने जैसा है कि कश्मीरियत कश्मीरी हिंदुओं के बिना पूरी नहीं हो सकती है - और फिर भी, जब आप सुझाव देते हैं, कोई भी इसके उस पर काम नहीं करता है।

(दिल से हंसते हुए) तो तब आप मेरी बात समझ गए हैं।

आपको, पवित्र माने जाने वाले हिंदू मंदिरों और गुफाओं का सर्वेक्षण करने का श्रेय दिया जाता है। आपके निष्कर्ष क्या थे?

हमारे सर्वेक्षण से पता चलता है कि यहां 1,842 मंदिर, पवित्र गुफाएं और झरने हैं।

क्या लोग इन मंदिरों में पूजा करते हैं?

बिलकुल नहीं। आज की तारीख में लगभग 154 मंदिर, गुफाएं और पवित्र झरने काम कर रहे हैं।

क्या सभी मंदिर बरकरार हैं?

नहीं। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के बाद, बहुसंख्यक समुदाय ने जवाबी कार्रवाई की थी। इनमें से बहुत सी जगहों को अंदर से अपवित्र कर दिया गया और जला दिया गया था। फिर से, 1995 में हमारे चरार-ए-शरीफ दरगाह पर सुरक्षा अभियान के बाद, जब वह  भारी क्षतिग्रस्त हो गया था, तो बहुसंख्यक समुदाय के लिए मंदिर जो सबसे अधिक दिखाई देने वाले थे लक्ष्य बन गए थे

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Some-Government-Policies-Broke-Pandit-Muslim-Relations-Kashmir-Sanjay-Tickoo 

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