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क्या है बाल गृहों में रहने वाले बच्चों का भविष्य?

बाल गृहों में रहने वाले बच्चों से जुड़ा एक सर्वे सामने आया है। जिसके अनुसार यहां से निकलने वाले युवाओं में से महज़ 52 प्रतिशत ही अपने पैरों पर खड़े हो पाते हैं, आत्म निर्भर बन पाते हैं। बाक़ी 48 प्रतिशत का भविष्य अंधकार में खो जाता है।
child care institution in india
Image courtesy:DNA India

हमारे देश में एक बड़ी संख्या उन बच्चों की है जो या तो अनाथ हैं, उनके माता-पिता जीवित नहीं हैं और उनका कोई अभिभावक नहीं है या फिर ऐसे बच्चे हैं जो किसी न किसी कारणवश घर से भागे हुए हैं या फिर किसी जुर्म के चलते अपने घर से दूर सज़ा काटने को मजबूर हैं।

ऐसे बच्चों के लिए सरकार और कुछ स्वैछिक संस्थाओं ने बाल देखभाल संस्थान या बाल सुधार गृह बनाए हुए हैं। जहां इन बच्चों को मूल ज़रूरतें यानी रोटी, कपड़ा, रहने के लिए छत के साथ-साथ शिक्षा भी 18 साल तक की उम्र तक प्रदान की जाती है। यहां रहने वाले बच्चों को लेकर अक्सर ख़बरें सामने आती रहती हैं। हाल ही में बाल गृहों में रहने वाले इन बच्चों से जुड़ा एक सर्वे सामने आया है। जिसके अनुसार यहां से निकलने वाले युवाओं में से महज़ 52 प्रतिशत ही अपने पैरों पर खड़े हो पाते हैं, आत्म निर्भर बन पाते हैं। बाक़ी 48प्रतिशत का भविष्य अंधकार में खो जाता है। जिन्हें नौकरी मिलती है वो भी मुश्किल से 7,500 से 8,500 तक ही कमा पाते हैं।

सर्वे में कुछ और हैरान करने वाली बातें भी सामने आई हैं। यहां भी लड़कियां अपने रास्ते खोजने में नाकाम रही हैं। सर्वे के अनुसार कक्षा 12 वीं तक की पढ़ाई पूरा करने वाली लड़कियों के लिए काम के कम अवसर हैं। 63 प्रतिशत लड़कियों के हाथ नौकरियों से ख़ाली रह जाते हैं, उन्हेंं अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाना पड़ते हैं।

ये सर्वे यूनिसेफ़, टाटा ट्रस्ट और उद्यान केयर के सहयोग से 5 राज्यों - दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान और महाराष्ट्र में 435 लोगों पर किया गया। जिसमें इन बाल गृहों को लेकर कई खुलासे हुए हैं।

इस विश्लेषण में ये बात भी सामने आई है इन बाल गृहों में रहने वाले बच्चों में एक बड़ी तादाद उन बच्चों की भी है जो अपनी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते। ये संख्या कुल बच्चों की संख्या का लगभग 40 प्रतिशत है। ऐसे में आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन बच्चों का क्या ही भविष्य होगा?

बच्चों की सही परवरिश के लिए बहुत ज़रूरी है कि उनके आस-पास का माहौल ख़ुशनुमा और लोग साकारात्मक हों। लेकिन इन बाल गृहों की एक कड़वी सच्चाई ये भी है कि यहां बच्चों के लगातार ठिकानों को बदला जाता है। सर्वे के मुताबिक़ 42 प्रतिशत बच्चों को दो या दो से अधिक घरों में रखा गया है। इसके अलावा अगर राज्य के आकंड़ों को देखें तो कर्नाटक में 52 प्रतिशत तो दिल्ली में 67% बच्चों ने अपना बचपन एक से अधिक बाल संस्थानों में गुज़ारा है। कई बच्चों को तो सात अलग-अलग संस्थानों में रखा गया था। इन आंकड़ों की जानकारी से ये साफ़ है कि ऐसे हालात में बच्चे की मानसिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ना लाज़मी है।

जुवेनाइल जस्टिस एक्ट2015 में बाल सुधार गृहों में आफ़्टरकेयर का कॉन्सेफ्ट लाया गया। जिससे इन बच्चों को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सके। इसके तहत यहां से निकले बच्चे, जिन्होंने 18 वर्ष की उम्र तो पार कर ली है लेकिन 21 वर्ष से कम आयु के हैं, उनके लिए सहायता का प्रावधान किया गया है। क़ानून के अंतर्गत यदि ऐसे बच्चों को किसी भी प्रकार की मदद की आवश्यकता होती है तो ये संस्थान उसे उपलब्ध करवाएंगे। कई साल बीत गए लेकिन क़ानून केवल काग़ज़ों पर ही बना रहा, हक़ीक़त अभी भी इससे कोसों दूर ही नज़र आती है।

एक ग़ैर-सरकारी संस्था द्वारा चलाए जा रहे बाल गृह से निकले सौरभ बताते हैं कि इन संस्थानों में बच्चों के साथ जो व्यवहार होता है, शायद आप उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। जब बच्चे की मानसिक स्थिति ही ठीक नहीं होगी तो बच्चे की शिक्षा और बाक़ी बातें तो भूल ही जाइए।

एक अन्य बाल देखभाल संस्था में रहने वाली साक्षी ने न्यूज़क्लिक से कहा, "हम आम बच्चों की तरह नहीं रहते, ना ही हमें वो माहौल कभी मिल सकता है। हमें यहां बहुत कुछ सहना और सुनना पड़ता है और शायद ये हमारी मजबूरी भी है क्योंकि हमारा कोई अपना नहीं है।

प्रयास बाल गृह में काम कर चुकेे अमित श्रीवास्तव का कहना है, "यहां बच्चों को पढ़ाने का पूरा प्रयास किया जाता है, लेकिन कई बार बच्चे ख़ुद ही इसमें रुचि नहीं दिखाते या बार-बार कक्षाओं से भागने का प्रयास करते है। कई बच्चे तो पढ़ना ही नहीं चाहते। अब हम इन बच्चों के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती तो नहीं कर सकते।

उद्यान के प्रकाश झा बताते हैं, "इन बच्चों की मानसिक हालत को समझना थोड़ा कठिन होता है। फिर इनको यहां के माहौल में ढालना भी आसान नहीं है। हालांकि हमारी पूरी कोशिश होती है कि इन्हें बेहतर भविष्य दिया जा सके।

बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई के राकेश कहते हैं, "इन बाल गृहों को देखा जाए तो यहां बच्चों को जिस मक़सद से रखा जाता है, वो पूरा नहीं होता। उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और उत्पीड़न से जुड़ी तमाम ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। लेकिन कई जगह बेहतर सुविधाएं भी मुहैया कराई जा रही हैं। सरकार द्वारा समय-समय पर निर्देश भी जारी किया जाता है लेकिन इन सबके बावजूद कई संस्थाएं बच्चों के भविष्य से ऊपर अपने आप को रखती हैं।"

इस संबंध में हमने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से भी उनका पक्ष जानने का प्रयास किया। लेकिन ख़बर लिखे जाने तक हमें कोई जवाब नहीं मिला है।

अक्सर इन बाल गृहों में बच्चों को उपलब्ध सुविधाएं और उनके साथ हो रहे व्यवहार पर सवाल उठते रहे हैं। कई घटनाएं भी सुर्खियां बनी हैं, लेकिन फिर भी हालात नहीं बदले। इन संस्थानों से निकले बच्चे इसे जेल का नाम देते हैं। शायद ये शब्द उनकी मुश्किलों को बयां करने के लिए काफ़ी हैं। बच्चें यहां अपने क़दमों को सही ठहराने के लिए नए-नए बहाने तलाश करने की कोशिश में लगे होते हैं। लेकिन बाल देखभाल गृहों में बच्चों को देखभाल के नाम पर सिर्फ़ छलावा ही मिलता है।

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