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महाराष्ट्र: क्यों जटिल होता जा रहा है मेलघाट में बच्चों की मौत का मुद्दा?

भूख से होने वाली हर बच्चे की मौत पर लगाम कसने के लिए व्यवस्था के पास पर्याप्त समय था और है। इसके बावजूद मेलघाट में सालों से बच्चों की मौत का सिलसिला नहीं थम रहा है। क्यों?
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फ़ोटो साभार : यूट्यूब

महाराष्ट्र में विदर्भ के आदिवासी बहुल क्षेत्र मेलघाट की पहाड़ियों पर कुपोषण और बाल मृत्यु दर की समस्या अभी भी अनसुलझी है। इस वर्ष 175 बच्चों की मृत्यु दर्ज की गई है।

स्वास्थ्य प्रणाली का दावा है कि ये मौतें कुपोषण के कारण नहीं हुई हैं, लेकिन सच यह है कि मेलघाट में अन्य क्षेत्रों की तुलना में बाल मृत्यु दर अधिक है।

कुछ साल पहले राज्य सरकार ने 'मिशन मेलघाट' नाम से एक महत्वाकांक्षी पहल की थी। इन दिनों 'मिशन-28' अभियान चलाया जा रहा है। वहीं, बच्चों की मौत से जुड़े सवालों पर बंबई उच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं। अदालत ने सरकार को समय-समय पर उपायों को प्रभावी ढंग से लागू करने के निर्देश दिए हैं।

लेकिन, अभी भी मेलघाट की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ है। जाहिर है कि सरकार ने इस क्षेत्र में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों से निपटने के अलावा संचार, रोजगार और शिक्षा के मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया है।

सरकारी उपेक्षा का शिकार

मेलघाट एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसमें दो तहसील धारणी और चिखलदरा शामिल हैं। यह अंचल लगभग 25 साल पहले कुपोषण के कारण सुर्खियों में आया था। दरअसल, मेलघाट सरकारी तंत्र की उपेक्षा के कारण स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, सड़कों की दुर्दशा, अंधविश्वास, बाल विवाह और कई अन्य मुद्दों का सामना कर रहा है। हालांकि, सरकार ने कई उपायों को लागू किया, लेकिन स्थिति में ज्यादा परिवर्तन होता नहीं दिख रहा है।

बच्चे के बीमार होने के बाद अस्पताल जाने के बजाय भुमका (जादूगर) की मदद ली जाती है। स्वास्थ्य संस्थानों में प्रसव की दर कम रहती है। स्थानीय रोजगार उपलब्ध नहीं होने के कारण आदिवासियों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ता है।

योजनाओं की सूची देखें तो विशेष नवजात इकाई, नवजात स्थिरीकरण इकाई, ग्राम बाल विकास केंद्र, बाल उपचार केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर पर पोषण पुनर्वास केंद्र, राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के साथ-साथ जननी सुरक्षा के लिए जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम, मानव विकास कार्यक्रम, प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान, नवसंजीवनी योजना में मातृत्व अनुदान योजना और दाई प्रशिक्षण योजना जैसी योजनाओं को क्रियान्वित किया जा रहा है।

एपीजे अब्दुल कलाम अमृत आहार योजना गर्भवती माताओं को पोषण प्रदान करने के लिए लागू की गई है। इस योजना में सरकार ने एक बार के भोजन की लागत 35 रुपए स्वीकृत की है। सवाल है कि क्या महंगाई के दौर में 35 रुपए में 'अमृत आहार' संभव है? इस अमृत आहार में 100 ग्राम चपाती की कीमत 3.25 रुपए, 60 ग्राम चावल की कीमत 2.25 रुपए और मूंगफली के लड्डू की कीमत 5 रुपए है।

दस हजार से ज्यादा बच्चों की मौत

दूसरी तरफ, धारणी उपजिला अस्पताल चिखलदरा व ग्रामीण अस्पताल पोषण पुनर्वास केन्द्र चुरणी में आहार विशेषज्ञ के महज 3 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 2 आहार विशेषज्ञ ही कार्यरत हैं। ग्रामीण अस्पतालों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में राज्य स्तर से 13 स्त्रीरोग विशेषज्ञ और 13 बाल रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति बारी-बारी से 15 दिनों के लिए की जाती है। विकट स्थितियों के बीच 8 स्त्री रोग विशेषज्ञ व 7 बाल रोग विशेषज्ञ कार्यरत हैं। विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी की समस्या है। कई जगहों पर डॉक्टरों के रहने की व्यवस्था नहीं है।

मेलघाट में 1999 के बाद से लगभग 10 हजार बच्चों की मौत हुई है। वर्ष 2009-10 में शून्य से छह वर्ष के आयु वर्ग में 570 बच्चों की मृत्यु दर्ज की गई थी। 2013-14 तक, यह घटकर 338 बच्चों की मृत्यु हो गई। 2015-16 में केवल 283 बच्चों की मौत दर्ज की गई थी। लेकिन, 2016-17 में फिर से 407 बच्चों की मौत हुई। यह खतरे की घंटी थी। 2018-19 में 309, 2019-20 में 246, 2020-21 में 213, 2021-22 में 195 और अब 2022-23 में 175।

कहां है भुखमरी की जड़?

मेलघाट का क्षेत्रफल दो हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है, जो मुंबई के क्षेत्रफल से तीन गुना अधिक है, लेकिन मेलघाट की कुल तीन लाख आबादी के अनुपात में यहां हर साल कम उम्र के इतने सारे बच्चों की असमय मौतें ‘राष्ट्रीय शर्म’ की बात होनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं।

मेलघाट की स्थिति बताती है कि बच्चों की मौतों की बड़ी वजह है भूख। दूसरी ओर भूख से निपटने की सरकारी व्यवस्था ही कई बार बड़ी बाधा बन रही है। ऐसा इसलिए कि इसे अहसास नहीं है कि भूख क्या होती है! भोजन करने की इच्छा भूख का अहसास तो कराती है, लेकिन मेलघाट में कोई बच्चा भूख से एक दिन में तो मरा नहीं। जैसा कि होता है कि हाइपोथैल्यस के हार्मोन छोड़ने से भूख बढ़ती गई होगी, अंतड़ियों में मरोड़ होती गई होगी, कई दिनों तक ज्यादा भूखा रहने के कारण तब कहीं जाकर भुखमरी की नौबत आई होगी और बच्चे का शरीर कंकाल बना होगा।

जाहिर है कि भूख से होने वाली हर बच्चे की मौत पर लगाम कसने के लिए व्यवस्था के पास पर्याप्त समय था और है। इसके बावजूद मेलघाट में सालों से बच्चों की मौत का सिलसिला नहीं थमा तो इससे स्पष्ट होता है गांव-गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठीक से काम नहीं कर रही है। यह शिकायत आम है कि इसके तहत किसी परिवार को आठ-दस महीने तो किसी परिवार को दो-दो साल से अनाज नहीं मिल रहा है।

भगनू नाम के एक आदिवासी व्यक्ति की इस एक पंक्ति के उत्तर में मेलघाट की हकीकत बयां होती है। दरअसल, भूख की जड़ में गरीबी और बेकारी है। मेलघाट भारत के सबसे निर्धन अंचलों में से है, भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 52 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। सुमिता गांव के भगनू की तरह ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं। वहीं, पूरे मेलघाट को देखें तो महज 27 प्रतिशत पथरीली जमीन पर खेती होती है, जो कि बारिश के भरोसे है। बाकी तेहत्तर प्रतिशत जमीन जंगलों से ढकी है।

बारिश से क्यों लगता है डर?

अफसोस कि भगनू जैसे लोग यहां हर साल होने वाली बारिश से डरते हैं। वजह पूछने पर वे बताते हैं, "क्योंकि बारिश के दिन हमारे लिए और भी बुरे होते हैं। तब तेंदूपत्ता का काम भी बंद हो जाता है, लोग काम के लिए जंगल से बाहर नहीं निकल पाते।’’

सिमोरी गांव के सुखदेव (परिवर्तित नाम) की तरह बाकी लोग भी कुपोषण के बाद यदि सबसे ज्यादा डरते हैं तो बारिश के दिनों से। कारण यह है कि बारिश के दिनों में मेलघाट का मौसम और परिदृश्य भले ही सुहावना प्रतीत हो, लेकिन ज्यादातर लोगों के घरों में अकाल पड़ जाता है।

साल में छह महीने लोग बड़ी तादाद में मजदूरी के लिए पलायन करते हैं। बारिश के दिनों में लोग मजदूरी के लिए बाहर नहीं निकल पाते हैं। इसलिए उनके सामने भोजन का संकट गहरा जाता है। सबसे ज्यादा बच्चे भी इसी मौसम में दम तोड़ते हैं। जब तक भूख से मौतों के समाचार बाहर पहुंचते हैं तब तक बारिश के दिन खत्म हो चुके होते हैं। तभी प्रशासनिक अमला कुछ दिनों के लिए जागता है।

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