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बाल दिवस : मिड-डे मील, बाल मज़दूरी और यौन शोषण तक बच्चों का जीवन दांव पर

विश्व में सबसे ज़्यादा कुपोषण के शिकार बच्चे भारत में हैं। बाल मज़दूरी और यौन शोषण के शिकार हुए बच्चों की एक बड़ी संख्या है। ऐसे में हम इनके भविष्य के प्रति बिल्कुल सजग नहीं हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : humanium

बाल दिवस को आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन के तौर पर भी याद किया जाता है। चाचा नेहरू को बच्चों से बहुत प्यार था और वो करते थे 'बच्चे देश का भविष्य होते हैं। बच्चे देश की वास्तविक ताकत और समाज की नींव हैं। आज के बच्चे कल के भारत का निर्माण करेंगें।' लेकिन आज जब एक नज़र बच्चों की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य पर डालें, तो ऐसा लगता है मानो इनका वर्तमान ही सुरक्षित नहीं है तो ये कैसे देश का भविष्य सवारेंगे।

बता दें कि हाल ही में बिहार के भागलपुर से मिड-डे मील को लेकर गड़बड़ी की खबरें सामने आईं थी। रिपोर्ट्स के मुताबिक एक स्कूल में मिड-डे मील का खाना खाने से करीब 200 छात्र बीमार पड़ गए थे। छात्रों ने शिकायत की थी कि खाने में छिपकली मिली थी। इस पर प्रिंसिपल ने कथित रूप से छात्रों से कहा था, "छिपकली नहीं बैंगन है, खा लो।" अब वैशाली जिले में एक नया मामला सामने आया है। यहां भी मिड-डे मील के खाने में कीड़ा निकल गया। छात्रों ने प्रिंसिपल से शिकायत की। प्रिंसिपल ने कथित रूप से जवाब दिया कि कीड़ों में विटामिन होता है चुपचाप खा लो। जाहिर है ये मामले गंभीर हैं लेकिन इन पर शायद ही कोई कार्यवाही हो, जो भविष्य के लिए एक सबक बने।

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि मिड डे मील की योजना मुख्य तौर पर कमज़ोर तबके के बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए शुरू की गई थी। बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश में इस स्कीम का लाभ लेने के लिए बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे स्कूल जाते हैं जिनके घरों में खाना उपलब्ध नहीं होता है। उनके लिए कम से कम एक वक्त के खाने का स्कूल ही आसरा है। हालांकि यहां भी उन्हें पोषण युक्त खाने की जगह अक्सर ठगी ही मिलती है।

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भारत के बच्चों में कुपोषण की स्थिति गंभीर

हाल ही में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022 की रिपोर्ट देखें तो भारत के बच्चों में कुपोषण की स्थिति गंभीर है। जीएचआई जिन चार पैमानों पर मापा जाता है उसमें से एक बच्चों में गंभीर कुपोषण की स्थिति भी है, जो भारत में इस बार 19.3 फ़ीसदी पाया गया है जबकि 2014 में यह 15.1 फ़ीसदी था। इसका अर्थ है कि भारत इस पैमाने में और पिछड़ा है।

अन्य पैमानों की बात करें तो, बच्चों के विकास में रुकावट से संबंधित पैमाने में भारत 2022 में 35.5 फ़ीसदी है जबकि 2014 में यह 38.7 फ़ीसदी था। वहीं बाल मृत्यु दर 4.6 फ़ीसदी से कम होकर 3.3 फ़ीसदी हो गई है। हालांकि जीएचआई के कुल स्कोर में भारत की स्थिति और ख़राब हुई है। 2014 में जहाँ ये स्कोर 28.2 था वहीं 2022 में यह 29.1 हो गया है।

बच्चों के शिक्षा, स्वस्थ्य के अलावा अगर उनकी सुरक्षा की बात करें, तो यहां भी हमारा देश बच्चों के लिए सुरक्षित नहीं है। भारत में यौन शोषण के शिकार हुए बच्चों की एक बड़ी संख्या है। पॉक्‍सो यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंस जैसे कड़े कानून होने के बावजूद इस ग्राफ में साल दर साल इजाफा हो रहा है। महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक में इस तरह के घिनौने अपराधों का जाल फैलता रहा है। हाल ही में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की साल 2021 की रिपोर्ट बताती है कि देश में बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में 16 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

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देश में यौन शोषण के शिकार हुए बच्चों की एक बड़ी संख्या

रिपोर्ट के मुताबिक देश में साल 2021 में बच्चों के ख़िलाफ़ अपराध के 1,49,404 मामले दर्ज किए गए। इनमें से 53,874 मामले पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज हुए हैं, जो कि कुल मामलों का करीब 36 प्रतिशत है। साल 2020 में 1,28, 531 मामले दर्ज हुए थे। जबकि साल 2019 में ये आंकड़ा 1,48,185 था। एनसीआरबी के मुताबिक भारत में पिछले चार साल में बच्चों के खिलाफ 5,67,789 अपराध दर्ज किए गए। इनमें पॉक्सो एक्ट के तहत करीब 1,88,257मामले दर्ज हुए। यौन हिंसा और यौन शोषण की वारदात सबसे अधिक 16 से लेकर 18 वर्ष की लड़कियों के साथ हुईं। वहीं सबसे ज्यादा मामले मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से सामने आए हैं।

विश्व बैंक की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 10 से 14 करोड़ के बीच बाल श्रमिकों की संख्या है। बाल अधिकारों के हनन के सर्वाधिक मामले भारत में ही होते हैं। प्रगति के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फार एजुकेशन (डाइस) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार हर सौ में महज 32 बच्चे ही स्कूली शिक्षा पूरी कर पा रहे हैं। देश में पांच से 14 साल तक के उम्र के बाल मजदूरों की तादाद एक करोड़ से ज्यादा है।

हालांकि यह उन बच्चों की दास्तां हैं जिन्हें कम से कम मां-बाप के साथ रहना नसीब हो पाता है लेकिन अगर हम अनाथ बच्चों के बालगृहों की हालत देखें तो यह और भी भयावह है। हमारे देश में 2007 में विधायी संस्था के रूप में गठित, नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में इस समय 1300 गैरपंजीकृत चाइल्ड केयर संस्थान (सीसीआई) हैं। यानी वे जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत रजिस्टर नहीं किए गए हैं। देश में कुल 5850 सीसीआई हैं और कुल संख्या 8000 के पार बताई जाती है।

इस डाटा के मुताबिक सभी सीसीआई में करीब दो लाख तैंतीस हजार बच्चे रखे गए हैं। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने देश में चलाए जा रहे समस्त सीसीआई को रजिस्टर कराने के आदेश दिए थे। लेकिन सवाल सिर्फ पंजीकरण का नहीं है, सवाल संस्था के फंड या ग्रांट के साथ, उस पर निरंतर निगरानी और नियंत्रण की व्यवस्था का भी है, जो मौजूदा समय में नदारद है।

गौरतलब है कि विश्व में सबसे ज़्यादा कुपोषण के शिकार बच्चे भारत में हैं। पांच से 14 साल तक के उम्र के बाल मजदूरों की तादाद लगभग एक करोड़ से ज्यादा है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक भारत सर्वाधिक बाल मृत्युदर वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल हो जाएगा। ऐसे में हम इनके भविष्य के प्रति हम बिल्कुल सजग नहीं हैं। हमारा देश अभी भी भ्रूण हत्या, बाल व्यापार, यौन दुर्व्यवहार, लिंग अनुपात, बाल विवाह, बाल श्रम, स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण जैसी समस्याओं से ग्रसित हैं। हम आज तक अपने बच्चों को हिंसा, भेदभाव, उपेक्षा शोषण और तिरस्कार से निजात दिलाने में कामयाब नहीं हो सके हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या हम ऐसे सुपर पॉवर बनेंगे?

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बाल अधिकारों के लिए एक बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत

आंकड़ों, अपराध की प्रवृत्ति, पुलिसिया रवैया और समाज की भूमिका को देखने के बाद यह बात साफ तौर से कही जा सकती है कि बच्चों को उनके अधिकार केवल कानून के जरिए नहीं दिए जा सकते। इसके लिए हमें एक बड़े सामाजिक आंदोलन की जरूरत है जिससे सभी पक्षों को जागरूक किया जा सके। वैसे ये कितनी बुरी बात है कि हम अपने बच्चों को न्याय भी नहीं दिला पा रहे हैं। हालिया आंकड़ों से भी साफ है कि अदालतों में बच्चों के प्रति हुए अपराधों में से ज़्यादातर का निराकरण नहीं हो रहा है। लापरवाही, कमज़ोर जांच, असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार के कारण समय से चार्जशीट ही नहीं दायर की जा रही है।

निसंदेह अगर पीड़ित बच्चे गरीब या वंचित समुदाय के होंगे तो हालात और भी बुरे होंगे। उनकी सुनवाई पुलिस, सरकार और अदालतों में भी नहीं हो पाएगी। यानी 21वीं सदी में वे बिना इंसाफ मिले बड़े हो जाएंगे। दरअसल विकास और न्यू इंडिया के तमाम दावे करते वक्त हमारी सरकारें ऐसे आंकड़ों को नजरअंदाज कर देती हैं और आने वाले कल की एक बेहतर तस्वीर पेश करती हैं लेकिन वास्तविकता बदतर स्थिति की तरफ इशारा कर रही है।

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