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उत्तर प्रदेश: विभिन्न प्रयासों के बावजूद आख़िर क्यों नहीं लग पा रही कुपोषण पर लगाम

कुपोषण पर नीति आयोग की ही रिपोर्ट कहती है कि देश के 100 सबसे कुपोषित जिलों में यूपी का बहराइच ज‍िला पूरे देश में टॉप पर है। यूपी के 29 जिले ऐसे हैं, जो कुपोषण के मामले में अन्य प्रदेशों के जिलों से काफी आगे हैं।
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यदि हम कहें कि झारखंड, मेघालय जैसे राज्यों से भी ज्यादा कुपोषण के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति खराब है तो इस बात पर आप में से बहुतेरे लोगों को विश्वास नहीं होगा, क्योंकि इस अविश्वास का आपके पास कारण है। आप  कह सकते हैं कि जब शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में उत्तर प्रदेश को अन्य राज्यों के मुकाबले यूपी सरकार सबसे बेहतर बनाने का दावा करती है तो भला राज्य कुपोषित की श्रेणी में कैसे आ सकता है। आप इस पर भी बहस कर सकते हैं कि जब हमें यह बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के सुशासन का डंका विदेशों तक में भी बज रहा है, तो हम यह कैसे मान लें कि प्रदेश में बच्चों की एक बहुत बड़ी आबादी कुपोषण की शिकार है। तो आप भले इस पर विचार मंथन करते रहिए लेकिन यह सच कोरे आंकलन पर नहीं ठोस रिपोर्ट पर आधारित हैं। और यह रिपोर्ट  हैं हमारे देश की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और बड़ी संस्था नीति आयोग की। वहीं  नीति अयोग जिसे सरकार का "Think tank " माना जाता है।

भारत सरकार ने 2022 तक देश से कुपोषण को काफी  हद तक नियंत्रित करने का संकल्प लिया था।  जबकि भारत में दुनिया के सबसे अधिक अविकसित (4.66 करोड़) और कमजोर (2.55 करोड़) बच्चे मौजूद हैं। इसकी वजह से देश पर बीमारियों का संकट गहराता रहता है। राष्ट्रीय परिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़े बताते हैं कि न्यूनतम आमदनी वर्ग वाले परिवारों में आज भी आधे से ज्यादा बच्चे (51%) अविकसित और सामान्य से कम वजन (49%) के हैं। देश में इन आंकड़ों का इज़ाफा करने में उत्तर प्रदेश को शीर्ष पर माना गया है। हालांकि 2022 तक कुपोषण पर काबू पाने का लक्ष्य प्रदेश सरकार का भी है, लेकिन कुपोषण की जो दर प्रदेश में है, उससे क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि इस वर्ष के भीतर लक्ष्य साधा जा सकेगा? कुपोषण से लड़ने के लिए मौजूदा व्यवस्था जैसे आंगनबाड़ी केन्द्र,  पोषण पुनर्वास केन्द्र यानी Nutrition Rehabilitation Centre ( NRC), 6 वर्ष तक के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को दिये जाने वाला अनुपूरक पुष्टाहार योजना और भी अन्य योजनाओं का हाल क्या है, इन योजनाओं के बावजूद  कुपोषण से हमारी लड़ाई  कितनी चुनौतीपूर्ण  है, आख़िर हमारी कमी कहाँ है कि हम कुपोषण को हरा नहीं पा रहे,आदि इन सवालों के साथ पेश है ग्राउंड रिपोर्टिंग

क्या कहती है रिपोर्ट

27 दिसंबर 2021 को नीति आयोग ने वर्ष  2019-2020 के लिए राज्य स्वास्थ्य सूचकांक का चौथा संस्करण जारी किया। इस रिपोर्ट के मुताबिक "over all performance " के मामले में केरल सबसे अव्वल रहा, जबकि उत्तर प्रदेश सबसे निचले पायदान पर रहा। रिपोर्ट के मुताबिक़ केरल का इंडेक्स स्कोर 82.20 रहा, जबकि उत्तर प्रदेश का महज 30.57 था, जो कि झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, असम , उड़ीसा जैसे राज्यों से भी कम है। हालांकि प्रदर्शन में सुधार करने की ओर बढ़ते हुए प्रदेश का 5.57 incremental score भी दर्ज किया गया, लेकिन स्वास्थ और पोषण के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के मुताबिक यह वृद्धि अभी भी नाकाफी है तथा प्रदेश को और बेहतर स्कोरिंग की जरूरत है। तो वहीं कुपोषण पर नीति आयोग की ही रिपोर्ट कहती है कि देश के 100 सबसे कुपोषित जिलों में यूपी का बहराइच ज‍िला पूरे देश में टॉप पर है। यूपी के 29 जिले ऐसे हैं, जो कुपोषण के मामले में अन्य प्रदेशों के जिलों से काफी आगे है। यहां मातृ- शिशु मृत्यु दर भी अन्य राज्यों की तुलना में काफी ज्यादा है। ये खुलासा नीति आयोग की नेशनल न्यूट्रीशन स्ट्रैटजी रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश  के बहराईच जिले  के अलावा 9 और ऐसे जिले हैं जहाँ कुपोषण की स्थिति अत्यंत गंभीर है जिसमें श्रावस्ती, बलरामपुर, गोरखपुर, महराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, देवरिया, सीतापुर, लखीमपुर शामिल हैं।

इन जिलों में कुपोषण के कारण पिछले 5 सालों में सबसे सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में 0 से 5 साल के 46.3 %  बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और शिशु मृत्यु  दर भी 64% आकंड़ों के साथ सबसे ज्यादा यूपी में ही है।

समय से नहीं पहुँच रहा सूखा राशन

लखनऊ के मलेसेमऊ गाँव की रहने वाली सुनीता, जो एक घरेलू कामगार हैं, उन्होंने न्यूजलिक को बताया कि वह सात माह की गर्भवती हैं। सुनीता कहती हैं कि उसके इलाके के आंगनबाड़ी केंद्र में उसका नाम दर्ज हुए तीन महीने से ऊपर  हो गया है, लेकिन अभी तक उसे गर्भवती महिला वाला राशन नहीं मिला। हर बार पूछने पर एक ही जवाब मिलता है कि अभी राशन नहीं आया जब आएगा मिल जायेगा। तो वहीं लखनऊ से सटे चाँदपुर गाँव की ममता ने बताया कि उसके चार और तीन साल के बच्चों के हिस्से मिलने वाला राशन कभी समय से नहीं मिलता है–कभी तीन महीने तो कभी चार महीने में मिलता है। ममता बेहद गरीब परिवार से हैं और उसका पति मजदूर है। अब सवाल यह है कि जब आंगनबाड़ी केन्द्रों तक ही राशन नहीं पहुँच रहा तो जरूरतमंदो तक कैसे पहुँचे।

कुपोषण के खिलाफ़ लड़ने में आंगनबाड़ी केन्द्रों को एक मजबूत हथियार माना गया है। इसकी स्थापना का उद्देश्य ही था कि इसके माध्यम से गरीब और ग्रामीण तबके के छोटे बच्चों, गर्भवती और स्तनपान  कराने वाली महिलाओं का समुचित पोषण। इंडियास्पेंड  में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में आंगनवाड़ी केंद्रों की कुल संख्या 1.89 लाख के करीब है। बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग के आंकड़ों को पेश करते हुए रिपोर्ट कहती है कि जुलाई 2021 में इन आंगनवाड़ी केंद्रों से करीब 1.59 करोड़ लाभार्थ‍ियों को सूखा राशन द‍िया जाता था। यह आंकड़ा हर कुछ महीने में कम-ज्‍यादा होता है।

उत्‍तर प्रदेश में कुपोषण दूर करने के उद्देश्य से आंगनवाड़ी के तहत सूखा राशन द‍िया जाता है, ज‍िसे अनुपूरक पुष्‍टाहार कहते हैं। यह पुष्‍टाहार 6 महीने से 6 साल तक के बच्‍चों, गर्भवती और स्‍तनपान कराने वाली महिलाओं, कुपोषि‍त बच्‍चों और 11 से 14 साल की किशोरियों को द‍िया जाता है लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि यह योजना भी अन्य योजनाओ की भाँति भारी अन‍ियमितताओं की भेंट चढ़ चुकी है।

जब यह रिपोर्टर कुछ आंगनबाड़ी केन्द्रों पर गई तो राशन की कमी की सच्चाई सामने आई। तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि सूखा राशन हर महीने समय से आंगनबाड़ी केन्द्रों तक नहीं पहुँच पा रहा जिसके चलते लाभार्थी लंबे समय तक पुष्टाहार से वंचित रह जा रहे हैं और जो राशन आ भी रहा है वह लाभार्थियों की संख्या के मुक़ाबले बहुत कम आ रहा है। बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग के मानक के अनुसार अतिकुपोषि‍त बच्‍चे को हर द‍िन 800 कैलोरी और 20 से 25 ग्राम प्रोटीन मिलना चाहिए, लेक‍िन जब आंगनवाड़ी केन्द्रों तक ही समय से राशन नहीं पहुँच पा रहा तो आख़िर मानक कैसे पूरा हो।

पुनर्वास केंद्र ले जाने से बचते हैं अभिभावक

लखनऊ के मलेसेमऊ गाँव के आंगनबाड़ी केन्द्र में जाते ही बच्चों के बीच खेल रही मेरी नजर एक छोटी सी बच्ची पर पड़ी। वह बच्ची जो बेहद कमजोर थी और अन्य बच्चों के मुकाबले जल्दी थककर बैठ जाती थी , कभी बीच बीच में रोती कभी अपनी आठ वर्षीय बहन की गोदी में जाने की जिद करती। उसकी स्थिति से साफ लग रहा था कि बच्ची अस्वस्थ है । आंगनबाड़ी कार्यकत्री कीर्ति श्रीवास्तव ने बताया कि उस बच्ची का नाम पूनम है । बेहद गरीब परिवार की पूनम  कुपोषण की शिकार है और SAM ( severe acute Malnutrition) की श्रेणी में आती है यानी अति गंभीर कुपोषण। कीर्ति कहती हैं, पूनम करीब पाँच साल की है और वजन महज 9 किलोग्राम ही है जबकि कम से कम उसका वजन 12 किलोग्राम होना चाहिए, पूनम का छोटा भाई पवन भी गंभीर कुपोषण का शिकार है। कीर्ति के मुताबिक पूनम और पवन दोनों इस हद तक कुपोषित हैं कि कुपोषण से उभरने के लिए कुछ दिन के लिए उन्हें पुनर्वास केन्द्र, जो की लखनऊ स्थित बलरामपुर अस्पताल में बना है, में भर्ती की जरूरत है लेकिन माता पिता दोनों को बार बार समझाये जाने के बावजूद वे भर्ती कराने को राजी नहीं। कीर्ति ने बताया कि जब भी किसी आंगनबाड़ी केंद्र में कोई बच्चा कुपोषित निकलता है तो पहले उसे शुरुआती ईलाज के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र (CHC) प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (PHC)  भेजा जाता है उसके बाद यदि किसी बच्चे के लिए यह लगता है कि पुनर्वास केन्द्र में बिना भर्ती  किये उसको कुपोषण की स्थिति से बाहर नहीं निकला जा सकता है तो बच्चे को बलरामपुर अस्पताल रेफर किया जाता है । अस्पताल के पुनर्वास वार्ड में बच्चे को 15 दिन रखा जाता है। चूँकि बच्चे छोटे होते हैं इसलिए इतनी ही अवधि तक बच्चों के साथ माता पिता या दोनों में से किसी एक को भी रहना पड़ता है और यही कारण हैं कि गरीब अभिभावक पुनर्वास केन्द्र जाने से कतराते हैं क्योंकि हररोज कमाने खाने वाले व्यक्ति के लिए अपनी रोज की मजदूरी छोड़ 15 दिन खाली बैठने का मतलब है भूखे मरने की नौबत आना।

पूनम के माता पिता के साथ भी यही समस्या है। जब उनसे पूछा गया कि वे अपने दोनों बच्चों को क्यों नहीं अस्पताल ले जाकर  पुनर्वास वार्ड में भर्ती कराते तो उन्होंने कहा कि उनके लिए ऐसा करना कतई संभव नहीं, ऐसा करने के लिए उन्हें कई दिन अपना काम छोड़ना पड़ेगा और यदि माँ बच्चों के साथ अस्पताल में रहती है तो घर कौन देखेगा। कीर्ति कहती हैं   इसी समस्या के चलते कुपोषण के शिकार बच्चे पुनर्वास केंद्र जाने से वंचित रह जाते हैं और उनकी बीमारी बढ़ती चली जाती है। वे कहती हैं एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री अपना कर्तव्य  निभाते हुए कुपोषित बच्चे के माता पिता को बच्चे की स्थिति बताते हुए उसे बेहतर  ईलाज के लिए CHC, PHC या पुनर्वास केंद्र जाने की ही सलाह दे सकती है और अभिभावक को इस बाबत समझा ही सकती हैं बाकी अपने बच्चों को लेकर तो हर निर्णय माता पिता का ही होता है। स्थिति का जायजा लेने के लिए जब इस रिपोर्टर का अन्य आंगनबाड़ी केन्द्रों पर भी जाना हुआ तो कुछ और ऐसे बच्चों के बारे में भी पता चला जो SAM की श्रेणी में आते हैं लेकिन उनके माता पिता सिर्फ इसलिए अपने बच्चे को पुनर्वास केंद्र नहीं ले जा रहे क्योंकि उनकी  दिहाड़ी मारी जायेगी।


सूखा राशन नहीं पका भोजन की ज़रूरत

करोना से पहले आंगनबाड़ी केन्द्रों में बच्चों को पका गर्म भोजन दिया था, जिसमें दलिया और कई पौष्टिक आहारों का मिश्रण पंजीरी मिलती थी । एक अन्य आंगनबाड़ी कार्यकत्री उषा देवी कहती है, कुपोषण रोकथाम की एक काफी बड़ी जिम्मेदारी आंगनबाड़ी केन्द्रों और आंगनबाड़ी सेविकाओं, साहयिकाओं के जिम्मे दी गई है जिसपर वे लोग मेहनत से काम भी करते हैं। MAM और  SAM बच्चों की पहचान करना, कुपोषण के प्रति अभिभावकों को समझाना उन्हें उचित  ईलाज और पोषण की जानकारी देना आदि। उषा कहती है आंगनबाड़ी में पंजीकृत बच्चों के अभिभावकों के बीच सूखा राशन जैसे गेहूँ, चावल, दलिया, दाल, रिफाइन्ड का वितरण किया जाता है लेकिन इधर आने वाली परेशानी को बताते हुए उषा कहती हैं, केंद्र में आने वाले गरीब बच्चों के लिए सरकार ने सूखे राशन की व्यवस्था तो कर दी लेकिन राशन कभी भी समय पर नहीं मिलता तो बच्चों को कैसे दें। वह कहती हैं एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि आंगनबाड़ी केंद्र में जितने भी बच्चे पंजीकृत होते हैं उस संख्या से कम ही राशन पहुँचता है जैसे मान लीजिए किसी केंद्र में 20 बच्चे रजिस्टर्ड है तो राशन केवल 15 बच्चों का ही आ रहा है  या इससे भी कम तो आख़िर हम कैसे हर बच्चे के लिए अनाज की पूर्ति करें। उषा कहती है केन्द्रों में आने वाले बच्चे बेहद गरीब परिवार के होते हैं तो वे पहले से ही कुपोषण के शिकार होते हैं, ऐसे बच्चे जब आंगनबाड़ी आते हैं तब यह सरकार की जिम्मेवारी बन जाती है कि इन गरीब कुपोषित बच्चों को शारीरिक अस्वस्थता से उभारे और इसी लिए केन्द्रों में पका भोजन देने की व्यवस्था बनाई गई थी तो तसल्ली रहती थी कि हमारे बच्चों के पेट तक पौष्टिक आहार पहुँच रहा है। दिनभर की कैलोरी, प्रोटीन आदि की पूर्ति हो जाती थी लेकिन अब केन्द्रों में भोजन पकना बंद हो गया, आंगनबाड़ी आने वाले हर बच्चे को सूखा राशन दिया जाता है ये राशन बच्चों के अभिभवकों को केन्द्र में ही वितरित होता है,  अब वे राशन कितना बच्चे के पेट में जा रहा है, नहीं जा रहा है, कौन जाने।  राशन केवल बच्चे के हिसाब से मिलता है और खा रहा पूरा घर तो बच्चे तक सही पोषण कैसे पहुँचेगा। उषा कहती हैं कुपोषण से मुक्ति में पके भोजन की व्यवस्था ज्यादा कारगर थी तो वही व्यवस्था सरकार को पुनः स्थापित कर देनी चाहिए।

राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान

क्या कहते हैं जानकार

1... जीरो से 6 वर्ष तक के बच्चों के अधिकारों और कुपोषण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था फोरम फॉर क्रेच एंड चाइल्ड केयर सर्विसेज (फोर्सेज) के उत्तर प्रदेश संयोजक रामायण यादव कहते हैं कि इसमें दो राय नहीं कि  कुपोषण रोकथाम के लिए  भारत सरकार या उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं में कहीं कोई कमी नहीं लेकिन विडंबना यह है कि योजनायें ईमानदारी से धरातल पर लागू नहीं हो पा रही हैं। वे कहते हैं यदि हम उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि यूपी के दस जिले अति कुपोषित की श्रेणी में हैं जिसमें बहराईच का स्थान तो पूरे देश की टॉप लिस्ट पर है और इस जिले में मातृ शिशु मृत्यु दर भी सबसे ज्यादा है, निश्चित ही यह तस्वीर भयवाह और चिन्ताजनक है। उनके मुताबिक उनकी संस्था फोर्सेज ने समय समय पर राज्य सरकार को कुपोषण की स्थिति के बारे में अवगत कराया है और इसके लिए कुछ सुझाव भी दिये हैं जैसे सबसे पहले आंगनबाड़ी केन्द्रों की दशा सुधारते हुए उनके Re structuring पर काम करने जरूरत है, इसके अलावा Re structuring के मॉडल में आंगनबाड़ी केन्द्रों पर पालना गृहों का निर्माण किया जाना था साथ ही सरकार ने तो इस बाबत भी सर्कुलर जारी किया था कि जिन आंगनबाड़ी केन्द्रों के अपने भवन हैं, वहाँ सब्जियाँ उगाई जाएंगी और इनका उपयोग आंगनबाड़ी  केन्द्रों में आने वाले बच्चों के लिए किया जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे कहते हैं सबसे बड़ी दिक्कत पोषाहार का वितरण समान अनुपात में नहीं हो पा रहा   है साथ ही केन्द्रों में पका भोजन न देकर सूखा राशन देना भी एक बच्चे के पोषण में असर डाल र रहा है क्योंकि एक बच्चे के हिस्से का राशन घर के सभी सदस्यों के हिस्से में जा रहा है तो बच्चा उचित पोषण से वंचित रह जा रहा है।

,2.. भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत कार्यरत लखनऊ स्थित रिसर्च एवं ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान के सहायक निदेशक मुकेश कुमार मौर्या जी से जब हमने इस विषय पर बात की तो उन्होंने सरकार के प्रयासों तथा उसमें और सुधारों के बारे में खुलकर बात की। वे कहते हैं कुपोषण की दिशा में भारत सरकार का बहुत काम हो रहा है, 2022-2023 के बजट में कुपोषण के लिए एक बड़ा बजट आवंटित किया गया है और मिशन पोषण 2.0 (  कुपोषण को दूर करने के लिए  पोषण अभियान चलाकर 0 से 06 वर्ष तक के बच्चों, गर्भवती एवं धात्री माताओं के स्वास्थ्य एवं पोषण स्तर में समयबद्ध तरीके से सुधार करना ही मिशन पोषण 2.0 है, इसके लिए राष्ट्रीय पोषण मिशन का गठन किया गया है।  मिशन के अर्न्तगत कुपोषण को से दूर करने के लिए आगामी 3 वर्षों के लिए लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं ) भी इन प्रयासों को आयाम दे रहा है। वे कहते हैं अथक कोशिशों के द्वारा हम सुधार की ओर बढ़ रहे हैं और ये सुधार हमारे आंकडों में भी नजर आ रहे हैं, यदि हम NFHS ( National Family Health Survey) यानी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पिछले पंद्रह सालों के ही आंकड़े देखे तो सुधार होता नजर आता है। जिसमें 2005- 06,  2015-2016 और अब 2019-2021 के आंकड़े शामिल हैं। हालाँकि उन्होंने माना कि व्यापक कोशिशों के बावजूद उत्तर प्रदेश के संदर्भ में अभी भी हमारे सामने कई चुनौतियां व्याप्त हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट पर बात करते हुए वे कहते हैं निश्चित ही दस जिलों का अति कुपोषित की श्रेणी में आना चिन्ता का विषय ज़रुर है लेकिन तब पूरे फोकस के साथ उन निर्धारित जगहों पर काम करना ज्यादा आसान हो जाता है जब हमारे पास वहाँ मौजूद चुनौतियों का एक निश्चित आंकड़ा या रिपोर्ट होती हैं। उनके मुताबिक 75 जिलों पर एक साथ काम करना लक्ष्य से दूर कर सकता है लेकिन अब हम जानते हैं कि मुख्यतः किन जिलों में हमारे लिए वास्तविक चुनौतियां हैं तो एक फोकस एप्रोच के माध्यम से हम चुनौतियों को साधने में सफल होते हैं।

राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान के सहायक निदेशक मुकेश कुमार मौर्या 

बच्चों को मिलने वाले सूखे राशन पर थोड़ा असंतोष जताते हुए वे कहते हैं कुपोषण से लड़ाई में पहले मिलने वाला अनुपूरक आहार काफी सहायक सिद्ध हुआ क्योंकि जब पहले   बच्चा आंगनबाड़ी आता था तो उसे सुबह बिस्कुट आदि के रूप में स्नेक्स दिया जाता था और दोपहर को गर्म भोजन परोसा जाता था लेकिन अब THR ( Take Home Rashan) दिया जाता है जिसकी कोई गारंटी नहीं कि वे आहार बच्चे के पेट तक पहुँच भी रहा है या नहीं। वे कहते हैं वितरण जरूरी है लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है उसके सेवन की गारंटी होना इसलिए इसके विश्लेषण की जरूरत है कि जिस मात्रा में वितरण हो रहा है उसका सेवन कितना हो पा रहा है। फिर वे बताते हैं कि हालांकि THR की व्यवस्था covid के कारण शुरू की गई, जो की अस्थाई है एक बार फिर से पके भोजन की शुरुआत की जाएगी जिसकी जिम्मेदारी स्वयं सहायता समूहों को दी जाएगी लेकिन कब तक यह व्यवस्था लागू होगी इसकी पुष्ट जानकारी अभी नहीं है। इसके अलावा उन्होंने माना कि विभिन्न जिलों में स्थापित  पोषण पुनर्वास केन्द्रों की संख्या अभी नाकाफी  इनकी महत्ता को देखते हुए सरकार को इनकी संख्या और बढ़ानी चाहिए लेकिन इसके साथ साथ वे माता पिता की भूमिका को भी अति महत्वपूर्ण मानते हैं जिनका दायित्व है अपने कुपोषित बच्चे को NRC तक लाना। वे कहते चूँकि गरीब परिवार के बच्चे ही अधिकांशतः अति कुपोषण के दायरे में देखे गए हैं तो वहाँ अभिभावकों में जागरुकता और शिक्षा के आभाव के चलते  बच्चे  NRC तक नहीं पहुँच पाते हैं जबकि सरकार ने आंगनबाड़ी से लेकर पोषण पुनर्वास केंद्र तक की व्यवस्था दे रखी है।

3... इसके बाद बारी थी राजधानी लखनऊ स्थित बलरामपुर अस्पताल में कुपोषित बच्चों के लिए बने NRC (पोषण पुनर्वास केंद्र) जाने और इन बच्चों का ईलाज कर रहे डॉक्टर से मिलने की। दस बिस्तर वाले NRC में केवल पाँच बच्चे ही इलाजरत थे बाकी बिस्तर खाली थे इससे यह साफ जाहिर था कि माता पिता अपने बच्चों के कुपोषण को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं हैं जबकि इन केन्द्रों को भी कम माना जा रहा है और इनकी संख्या और बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है। इस पर अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डा. अनिमेष कहते हैं यह एक बड़ी समस्या है जहाँ हम देखते हैं कि जागरुकता की कमी के कारण माता पिता अपने कुपोषित बच्चे को NRC तक नहीं ला रहे जबकि आंगनबाड़ी केन्द्रों में ही अल्प और अति कुपोषित बच्चे की पहचान कर उनके माता पिता को इसकी जानकारी दे दी जाती है और उन्हें बहुत बेहतर तरीके से समझा दिया जाता है कि उनके बच्चे को किस तरह की देखभाल, खान पान और ईलाज की जरूरत है और ये सब उन्हें कहाँ उपलब्ध हो सकता है लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब गरीब माता पिता अपने रोजमर्रा की दिहाड़ी छोड़कर बच्चे को NRC में लाना नजरअंदाज कर देते हैं। डा. अनिमेष कहते हैं हमारी आंगनबाड़ी कार्यकत्रियाँ गाँव गाँव जाकर भी कुपोषण, उससे बचाव, गर्भवती और सतनपान कराने वाली माताओं के साथ बच्चों के उचित पोषण की जानकारी देती हैं, उनकी मेहनत में कहीं कोई कमी नहीं बस माता पिता और परिवार को इस ओर जागरुक होने की जरूरत है।

बाल रोग विशेषज्ञ डा. अनिमेष 

वे कहते हैं उनके अस्पताल में बने NRC में कुपोषित बच्चे को 14 दिन रखा जाता है। यहाँ बच्चों के लिए अलग से किचन की व्यवस्था है जहाँ कुपोषित बच्चों की जरूरत के हिसाब से   सुबह से रात तक का भोजन तैयार किया जाता है , बच्चों का टीकाकरण भी होता है और कुपोषित बच्चों के लिए डायटीशियन भी है । उनके मुताबिक  14  दिन के भीतर बच्चे की रिकवरी होना निश्चित है 15 वें दिन उसे छुट्टी दे दी जाती है। कुपोषण की स्थिति के मुख्य कारणों में से एक उन्होंने डाईरिया को भी माना। वे कहते हैं जब हम एक पौष्टिक खान- पान की बात करते हैं तो उसमें पान का अर्थ स्वच्छ जल है  लेकिन हमारे भारत में पानी की गंदगी बहुत है। गरीब बस्तियों तक पहुंचने वाले जल की गुणवत्ता के प्रति लोग जागरूक नहीं होते और गंदे जल का ही सेवन करते रहते हैं जिससे खासकर बच्चे डायरिया के शिकार हो जाते हैं एक तो गरीबी के कारण उसका उचित पोषण नहीं हो पा रहा और उस पर डायरिया बना रहता है, ऐसे में बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। डा. अनिमेष कहते हैं इसलिए स्वच्छ जल की गारंटी भी करनी होगी ताकि कुपोषण पर काबू पाया जा सके।

भले प्रदेश सरकार विभिन्न योजनाओं के बूते कुपोषण पर काबू पाने की बात कहती रही हो लेकिन इसमें दो राय नहीं कि स्थिति अभी भी चिन्ता जनक है। NFHS-5 (2019-21) के अनुसार, ग्रामीण उत्तर प्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 41.3 प्रतिशत बच्चे बौने (उम्र के अनुसार कम कद के) थे, जबकि 33.1 प्रतिशत बच्चों का वजन (अपनी उम्र से कम वजन) काफी कम था। राज्य में गांवों के 5 साल से कम उम्र के 17 प्रतिशत बच्चों को कमजोर (अपनी लंबाई के हिसाब से कम वजन) के रूप में वर्गीकृत किया गया था। और 7.1 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से वेस्टेड (लंबाई के हिसाब से कम वजन वाले बच्चे) पाए गए। तो इस तस्वीर के साथ हम कैसे यह सुनिश्चित करें कि 2024 तक प्रदेश को कुपोषण मुक्त बनाने का सरकार का लक्ष्य पूर्ण हो पाऐगा । कुपोषण को लेकर अब जरूरत ज्यादा से ज्यादा योजनायें बनाने की नहीं बल्कि मौजूदा योजनाओ का धरातल पर कारगर तरीकों से क्रियान्वयन की साथ ही आवश्यक सुधारों की ओर बढ़ने की।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)

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