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ख़ास रिपोर्ट : छुट्टा गायों की परेशानी और नेताओं की देशी-विदेशी गाय की राजनीति

यह पहली बार नहीं है कि छुट्टा गायों की परेशानी के लिए देशी और विदेशी गाय पर राजनीति हो रही है। अभी आप विधायक ने बोला है तो इससे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से भी इस तरह का बयान आ चुका है।
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Image courtesy:The Tribune

विदेशी शब्द बोलकर नेता अलगाव की राजनीति करते हैं। अपना काम आसानी से निकाल लेते हैं। गायों के मामले में भी ऐसा है। देशी गाय से आस्था का मसला जोड़कर राजनीति कर लिया जाए और विदेशी गायों से कारोबार कर लिया जाए। इस रणनीति पर काम करते हुए पंजाब से आप के विधायक अमन अरोरा का पंजाब की छुट्टा गायों पर एक बयान आया है। विधायक जी का कहना है कि देशी और विदेशी गायों में अंतर करना जरूरी है। देशी गाय के दूध में विटामिन A-2 पाया जाता है, जिससे बहुत सारी बीमारी ठीक हो जाती है। अमेरिकन ब्रीड की गायों के दूध में विटामिन A-1 पाया जाता है। जो बहुत सारे रोगों का वाहक होता है। देशी गायों को बचा लेना चाहिए और अमेरिकी नस्ल की गायों को बूचड़खाने में भेजा जाए। यह पहली बार नहीं है कि छुट्टा गायों की परेशानी के लिए देशी और विदेशी गाय पर राजनीति हो रही है। इससे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से भी इस पर ऐसा बयान आ चुका है।

जबकि पंजाब की गायों से जुड़ी असल परेशानी छुट्टा या लावारिस गायों से जुड़ी है। इस समय पूरे राज्य में 472 गौशाले हैं, जिसमें तकरीबन 4 लाख गायें हैं। और तकरीबन 1.1 लाख गायें सड़कों पर घूम रही हैं।  द ट्रिब्यून अख़बार की खबर के मुताबिक पिछले तीन साल में पंजाब राज्य में छुट्टा गायों की वजह से 370 लोगों की मौत हो चुकी है और 167 लोग घायल हो चुके हैं।

इस परेशानी से निजात पाने के लिए सरकार ने 'काऊ सेस' लगाना शुरू किया। यानी गायों के रखरखाव के नाम पर कर वसूलना शुरू किया। इस कर से मिली राशि का उपयोग करते हुए सरकार की तरफ से अभी तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया है। जनता ने इसके खिलाफ प्रदर्शन भी किया। लेकिन अभी भी छुट्टा गायों की परेशानियों से निजात नहीं मिली है।

फिर भी पंजाब के गायों के बारें में दी गयी आप विधायक की सरलीकृत राय की सही से छानबीन करने के लिए यह समझ लेना ज़रूरी है कि पंजाब में देशी और विदेशी गायें कितनी है, A-1 और A-2 क्या होता है? और देशी और विदेशी गायों से जुड़ी मिथक और सच्चाई क्या है?

साल 1992 में न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों ने टाइप-1 डयबिटीज और गाय के दूध के इस्तेमाल के बीच पहली बार सम्बन्ध स्थापित किया। टाइप-1 डायबिटीज यानी  डायबिटीज का वह रूप जो जेनेटिक यानी आनुवांशिक होता है। अगर माता-पिता को डायबिटीज की बीमारी है तो उनकी संतानों को भी डायबिटीज की बीमारी हो जाती है। गाय के दूध और रोग के बीच संबंध बन जाने की वजह से वैज्ञानिकों ने गाय के दूध में A1 और A2 टाइप के दूध की दो कैटेगरी स्थापित की। यानी दूध में ही दो तरह के दूध की बात की गयी। एक A1 टाइप मिल्क और दूसरा A2 टाइप मिल्क।

गाय के दूध में तकरीबन 87-88 प्रतिशत पानी होता है और 12 फीसदी ठोस तत्व होते हैं। इन ठोस तत्व में लैक्टोज, शुगर, वसा, और प्रोटीन जैसे तत्व होते हैं। दूध के प्रोटीन में तकरीबन 80 फीसदी कैसीन (CASEIN ) होता है। और इस कैसीन में 30-32 फीसदी बेटा कैसीन (BETA-CASEIN) होती है।  यही बेटा कैसीन दो तरह की होती है। टाइप 1 बेटा  कैसीन और टाइप 2 बेटा कैसीन।  न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों ने यह बताया कि  जिसमे टाइप 1 बेटा कैसीन पायी जाती है, उसका सेवन करने से से शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र यानी इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है, जिससे डायबिटीज टाइप 1, ह्रदय रोग, जन्म के समय ही मौत और ऑटिज्म जैसे खतरनाक परेशनियों का सामना करना पड़ता है।  

इसी टाइप-1 बेटा कैसीन को A-1 टाइप दूध कहा जाता है। और A1 टाइप को विदेशी नस्ल की गायों से मिलने वाले दूध की तरह जाना जाता है। यरोप, फ्रांस, अमरीका की नस्ल से जुड़ी हुई गाय इस केटेगरी में आती है। होलेस्टिन फ़्रेसिन, ब्रिटिश शार्ट टर्न, आयरशायर और ब्रिटिश शार्टथोर्न नस्ल की गायें विदेशी होती है। दूसरी तरफ अफ्रीका और एशिया की गायों की नस्ल से जुड़ी गायें देशी गाय कहलाती है। इसमें जर्सी, गुर्नसी, ज़ेबू नस्ल की गाएं आती है।  इसमें बेटा कैसीन नहीं पाया जाता है। इसलिए इनसे शरीर के इम्यून सिस्टम पर वैसा प्रभाव नहीं पड़ता है। जैसा विदेशी नस्ल की गायों से पड़ता है। लेकिन यही पूरा सच नहीं है।

इसके बाद बहुत सारे शोध ऐसे भी आए कि A-1 टाइप के दूध के सेवन से कोई भी बीमारी नहीं होती है। साल 2006 में यूरोपीयन फ़ूड सेफ्टी अथॉरिटी में यह साफ़ किया कि A-1 टाइप के दूध के सेवन से किसी भी तरह की बीमारी नहीं होती है।  पूरा यूरोप सदियों से ऐसे दूध का सेवन करते आ रहा है। इसके अलावा बहुत सारे सर्वे कहते हैं कि गाय की नस्लों पर वहां के भूगोल अथवा वातावरण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यानी अमेरिकी नस्ल की वहीं गाय जो अमेरिका में A-1 टाइप की दूध देती है वहीं जर्मनी में A-2 टाइप की दूध देती है। इसलिए A-1 और A-2  टाइप के दूध इस्तेमाल पर अभी भी कोई स्पष्टता नहीं है। अभी जितनी भी बातें बाजार में हैं, उनमें जितनी सच्चाई है, उतनी ही भ्रांतियां भी हैं।  जब पूरा यूरोप A -1 टाइप के दूध के सेवन पर जी रहा है तो हाल फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि विदेशी नस्ल की गायों को लेकर भ्रम यानी भ्रांतियां अधिक हैं।  

साल 2012 के लाइवस्टॉक सेन्सस के तहत पंजाब में तकरीबन 11.34 लाख विदेशी नस्ल की दूध देने वाली गायें हैं। जबकि पंजाब में देशी नस्ल की केवल 1.7 लाख गायें है। राज्य सरकार के पशुपालन विभाग का मानना है कि राज्य में तकरीबन 40 से 50 हजार देशी नस्ल की गायें हैं।
पंजाब डेयरी प्रोग्रेसिव फार्मर एसोसिएशन के अध्यक्ष और 400 से अधिक गायों के रखरखाव करने वाले दलजीत सिंह का बयान इंडियन एक्सप्रेस में छपा है। इनका कहना है कि देशी गाय  बच्चा जन्मने पर 10 महीने के भीतर 3000- 3600 लीटर दूध देती है। वहीं विदेशी गाय इतने ही महीने में तकरीबन 10 से 12 हजार लीटर दूध देती है। इस तरह से देशी गाय रखना तभी कम खर्चीला है, जब एक लीटर दूध की बिक्री 100 रूपये में हो और सरकार चारे के लिए आर्थिक मदद भी करती हो।

पंजाब डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के इंस्पेक्टर राम लुभाया का बयान इंडियन एक्सप्रेस में छपा है। उनके मुताबिक विदेशी गाय देशी गायों के मुकाबले नाजुक होती हैं। इन्हें सूखे, गर्मी और तपन से बचाने के लिए फैन और कूलर की जरूरत पड़ती है। यानी इनकी रखवाली पर खर्च अधिक आता है। फिर भी इन्हें सबसे अधिक इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि इनसे दूध उत्पादन अधिक होता है। इनसे फायदा अधिक मिलता है।

इसके अलावा पंजाब की गायों के साथ एक और महत्वपूर्ण पहलू जुड़ता है। पंजाब के अधिकांश किसान कॉमर्शियल यानी वाणिज्यिक तौर पर गौ-पालन का काम करते हैं। दलजीत सिंह कहते हैं कि सालाना पंजाब  से दूसरे राज्यों में गायें भेजी जाती है। इससे तकरीबन सालाना 2 हजार करोड़ की कमाई होती है। इनमें सबसे अधिक विदेशी नस्ल की गायें होती है और सबसे अधिक व्यापार गुजरात से होता है। एक  विदेशी नस्ल की गाय तकरीबन 70  हजार से लेकर 1 लाख रुपये में बिकती है। और कारोबारी नजरिये से इसका फायदा देशी गायों की तुलना में अधिक है। देशी गायें जब दूध देना बंद कर देती हैं तो इन्हें लेकर जिस तरह की आस्था जुडी हुई है और जिस तरह के नियम कानून है , वैसे विदेशी गायों को लेकर नहीं है। इनका आसानी से निपटारा हो जाता है। बूचड़खनों तक पहुँचाने तक इनके साथ कोई परेशानी नहीं आती है।

पंजाब सरकार ने देशी गायों को प्रोत्साहन देने के लिए साल 2015 -16 में एक योजना शुरू की थी। इस योजना के तहत देशी गायों की लागत का 50 फीसदी सरकार ने देना तय किया था।  लेकिन इस प्रोत्साहन का कुछ फायदा नहीं निकला। लोगों को विदेशी गाय पालने पर ही अधिक मुनाफा दिखता है।

इसलिए यह बात तो साफ़ है कि पंजाब में विदेशी गाय हैं। लोग उनका इस्तेमाल कर रहे हैं और अनुत्पादक होने पर उन्हें आसानी से बूचड़खानों में भी भेज दे रहे हैं।  पंजाब के डेरा बस्सी और जालंधर के इलाके में कामचलाऊ ढंग से चल रहे  बूचड़खाने इसके गवाह हैं, जिनसे दूसरे देशों में भी मांस का अच्छा खासा निर्यात किया जाता है। इस तरह से विदेशी शब्द का इस्तेमाल कर नेता आस्था को बचा ले रहे हैं,  बूचड़खाने से जुड़े व्यपार को बचा ले रहे हैं, गौ रक्षकों तक आसानी से सन्देश भेज दे रहे हैं कि ये विदेशी गायों को छोड़ दें क्योंकि इनमें ऐब हैं, ये वैसी पवित्र गायें नहीं है जैसी देशी गायें होती है और इन सबके अलावा जनता में संदेश भी दे दे रहे हैं कि विदेशी गायों की अधिकता की वजह से छुट्टा गायों की परेशानी है।  

इस पूरी जानकरी से यह बात तो साफ है कि पंजाब में गाय को लेकर विदेशी गायों की परेशानी कोई बड़ी परेशानी नहीं है। गौ- हत्या पर भले ही इस समय राज्य में बैन लगा हो लेकिन इस बैन के खिलाफ हर जगह की तरह यहां  भी सबसे बड़ा तर्क है कि जब मवेशी की उत्पादकता खत्म हो जाए तो उसके आर्थिक बोझ को कैसे सहा जाए? पहले से ही कम मिल रही आमदनी में एक किसान एक गाय से जुड़े आर्थिक भार को कैसे सहन करेगा? इसलिए गौकशी पर बैन लगने के बाद सबसे बड़ी समस्या छुट्टा गायों की सामने आयी है। लोग गाय को अपने दरवाजे से खोलकर अनाथ छोड़ दे रहे है। पंजाब में भी यही समस्या बड़ी बनती जा रही है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2016 में शहरी स्थानीय निकायों द्वारा  काऊ सेस के जरिये तकरीबन 34 करोड़  रुपये इकठ्ठा किया गया था।  लेकिन इस राशि का अभी तक पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है।  इसमें से केवल 25 करोड़ रुपये का इस्तेमाल गायों के चारे पर हुआ है। एक्साइज, टैक्सेशन और ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट द्वारा यह कर वसूला जा रहा है। पंजाब के पशुपालन मंत्री का कहना है कि इस परेशानी से जूझने के लिए और अधिक फंड की जरूरत है।  

पंजाब के 22 जिलों की गौशालों की छानबीन की गयी। इससे यह बात निकलकर सामने आयी कि गौशालाओं का रखरखाव सही से नहीं हो रहा है। इनकी क्षमता का सही तरह से इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। यानी गौशालाओं का प्रबंधन बहुत खराब है। साल 2018 में जब इस पर विधानसभा में चर्चा छिड़ी तो यह बात निकलकर सामने आयी कि मौजूदा गौशालाओं की 50 फीसदी  क्षमता सही से दोहन नहीं किया गया है। साथ में छुट्टा गायों की परेशानी भी बढ़ती जा रही है। इस परेशानी से निपटने के लिए स्थानीय निकायों को मजबूती से गौशालाओं पर काम करने की जरूरत है।  

वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा का कहना है कि राजनीति करने वाले लोग देशी और विदेशी गाय का भ्रम फैलाकर छुट्टा गायों से निजात पाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि गाय के संबंध में जैसी नीति बनाई गयी है, उससे यही परेशानी होने वाली थी। यह नीति की असफलता है।  सरकार अपनी नीति में ही फंस गयी है। अनुत्पादक गायों का रखरखाव करना किसी भी किसान के लिए बहुत मुश्किल काम है। ऐसे में किसान या कोई दूसरा भी होता तो गायों को छुट्टा छोड़ने के लिए मजबूर होता। 

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