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लोक संस्कृति का भविष्य बनाम भविष्य की लोक संस्कृति

वास्तव में लोक संस्कृतियों का निर्माण समाज के हाशिए पर पड़े लोग जिसमें औरतें, दलित-पिछड़े जनजाति समाज के लोग ही करते हैं।
Culture

सारी दुनिया में आज भूमण्डलीकरण के इस दौर में एक तरह की भाषा, खानपान और भेषभूषा और संस्कृति थोपी जा रही है, जबकि विविधता इंसानों की नैसर्गिक प्रवृत्ति है, तब क्या लोक संस्कृतियां समाप्त हो जाएंगी? बहुलता की जगह एकल संस्कृति का निर्माण होगा? लेकिन इसमें सच्चाई के अंश बहुत कम हैं, यूरोप-अमेरिका में दो वर्षों के पूंजीवादी विकास के बावज़ूद अभी भी उनके अनेक पर्वों जैसे- कार्निवाल, हैलोवीन जैसे पर्व वहां पर ईसाईयत के आने के बहुत पहले के लोकपर्व रहे हैं। वास्तव में लोक संस्कृतियों का निर्माण समाज के हाशिए पर पड़े लोग; जिसमें औरतें, दलित-पिछडे़ जनजाति समाज के लोग ही करते हैं। इसमें उनकी जय-पराजय, हर्ष-विषाद और संघर्षों की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। उत्तर प्रदेश में कुशीनगर जनपद के फ़ाजिलनगर  में स्थित जोगियापट्टी गांव में विगत 14-15 अप्रैल ‌2023 को लोकरंग समारोह में यह बात बार-बार उभर कर सामने आती है। विगत सोलह वर्षों से लगातार हो रहा यह आयोजन वास्तव में लोक संस्कृति का अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव बन गया है, इसमें न केवल भारत के बल्कि नीदरलैंड, मारिशस, सुरीनाम तथादक्षिणी अफ्रीका से आए हुए भारतीय कलाकार भी भाग लेते हैं, जिनके पूर्वज सदियों पहले गिरमिटिया मजदूर बनकर इन देशों में गए थे तथा वहां आज भी उन  लोगों ने अपने पूर्वजों की भाषा: जिसमें विशेष रूप से भोजपुरी और अवधी है, बचाकर रखा है तथा उसके लिए अपनी-अपनी सरकारों से संघर्षरत भी हैं। इस बार लोकरंग में दक्षिणी अफ्रीकी भोजपुरी गायक केम चांदलाल ने भोजपुरी गायन की शानदार प्रस्तुति की।

इस आयोजन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कला, लोकनृत्य, लोकवाद्य तथा लोकनाट्य सभी की सामूहिक प्रस्तुति होती है। संभावना कला मंच गाजीपुर के चित्रकार करीब एक माह पहले ही गांव पहुंचकर समूचे लोकरंग परिसर की सज्जा करते हैं, इसमें भित्तिचित्र, कविता, पोस्टर द्वारा मंच और परिसर की सज्जा कर के समूचे गांव को एक कलाग्राम में बदल देते हैं, विशेष रूप से मिट्टी के बने अनाज के बीज रखने वाले कोठार पर की गई भित्तिचित्र कला साल भर लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी रहती है। इस बार झारखंड से लेकर बिहार, मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़, नेपाल तथा बिहार के तराई इलाकों में स्थित जनजाति के लोकगायन और लोकनृत्य प्रमुख आकर्षण के केन्द्र थे। कई नृत्य शैलियों में; जिसमें खड़िया आदिवासी नृत्य जिला गुमला झारखंड जिसका नेतृत्व वंदना टेटे वरिष्ठ आदिवासी लेखिका कर रही थीं, विशेष आकर्षण का केन्द्र था, उन्होंने बताया कि,"आदिवासी लोकनृत्यों में आदिवासी समाज की तरह सामूहिकता की भावना होती है, जिसमें बहुत ही छोटी कविता में सारी बातें कह दी जाती है। जिसमें प्रकृति और पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं से गहरे लगाव की अभिव्यक्ति होती है, साथ ही इसमें स्त्री-पुरुषों में कोई भेदभाव नहीं होता है। सभी मिलकर सामूहिक रूप करते हैं। स्त्रियां भी पुरुषों की तरह वाद्ययंत्र बजाती हैं।"

यही बात हमें पश्चिमी चंपारनबिहार के थारू नृत्य में भी देखने में आती है। यहां पर आप इस आयोजन में दो विभिन्न अंचलों के नृत्यों को देखकर दो विभिन्न जीवनशैलियों को भी समझ सकते हैं। यदि आप 'थारू कल्चरल ग्रुप द्वारा किया गया नृत्य' या खड़िया आदिवासी नृत्य देखें या फिर नुपुर लोककला संस्थान,सागर मध्यप्रदेश द्वारा 'बधाई' और 'नवरता' लोकनृत्य देखें, तो इन तीनों नृत्यों में न केवल कला बल्कि विचार की दृष्टि से भी भारी अंतर नज़र आता है। जहां  एक ओरआदिवासी नृत्यों में प्रकृति से प्रेम है, ज़िन्दगी की जद्दोजहद है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश के बधाई और नवरता लोकनृत्य में राम के अयोध्या आगमन के अवसर पर बधाई और खुशी की अभिव्यक्ति करता हुआ नृत्य है। निस्संदेह कला के रूपों में यह नृत्य बहुत आकर्षक और प्रयोगशील है तथा अनेक नए कला रूपों को इसमें जोड़ा भी गया है, दूसरी ओर आदिवासी लोकनृत्य हज़ारों साल पुरानी परम्परा से जुड़े हैं और भी उसी तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहते हैं। यह बात स्पष्ट रूप से देखने में आती है कि जिस तरह हमारे लोकजीवन और हमारे लोकतत्व में प्रगतिशील तथा प्रतिक्रियावादी तत्व दोनों हैं, उसी तरह की अभिव्यक्ति हमारे लोकसाहित्य और लोककलाओं में भी होती है। इसी आयोजन के अंतर्गत दिनांक 16 अप्रैल को एक महत्वपूर्ण गोष्ठीका आयोजन किया गया, जिसका विषय 'लोक-संस्कृति का भविष्य बनाम भविष्य की लोक-संस्कृति' था, इस गोष्ठी में दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई और उत्तर प्रदेश आदि से आए बुद्धिजीवियों और लोककला से जुड़े लोगों ने अपनी बातें रखीं। इसमें ये कहा गया कि दुनिया तेजी से बदल रही है। कृषि के स्वरूप बदल रहे हैं। एक समय स्त्रियों तथामजदूरों द्वारा धान की दंवाई होती थी, अब इसकी जगह मशीनों ने, विशेष रूप से बड़े-बड़े हार्वेस्टरों ने ले ली है, इसलिए उस गाए जाने वाले लोकगीत भी खत्म हो रहे हैं।

इसी तरह  दरांते, चक्की पर घरों में स्त्रियां आटा पीसती थीं, वे सब भी अबसमाप्त हो गए हैं तथा उस अवसर पर गाए जाने वाले गीत भी समाप्त हो गए हैं। इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र से आए समाजवादी चिन्तक और विद्वान डॉ. सुरेश खैरनार ने एक महत्वपूर्ण बात कही, "हमारा पुराना पारिवारिक ढांचा स्त्रियों के शोषण पर टिका था। उनके श्रम का कोई मूल्य नहीं था।उन्होंने अपने बचपन में देखा था कि घर का चूल्हा निरंतर जलता रहता था। घर की स्त्रियां, जिसमें उनकी मां, भाभी और दादी सभी थीं,‌ निरंतर रसोई तथा अन्य घर के कामोंमें लगीं रहती थीं। किसानों की स्त्रियां तोघर के सभी काम करने के बादखेतों पर भी जाती थीं। उनके उस समय गाए जाने वाले गीतों में इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति मिलती है। बदलती हुई दुनिया के साथ अगर वे लोकगीत विलुप्त भी हो जाते हैं, तो उससे मोह करने की कोई जरूरत नहीं है।"  इसी तरह की कुछ बातें कोलकाता से आई डॉ. आशा सिंह ने भी कहीं, जो वहां पर स्त्री विषयक अध्ययन की प्रोफेसर हैं। झारखंड से आई वरिष्ठ लेखिका एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता वंदना टेटे कहती हैं,"आदिवासी संस्कृति पुरखा संस्कृति है, जो हमारी ज्ञान परंपराओं और लोकगाथाओं से बनी है। आज जो लोग लोक-संस्कृति के ज्ञान का भ्रम प्रदर्शित करते हैं, वास्तव में उसमें जीते नहीं हैं। आज की बदलती दुनिया में अगर हम मूल से हटे बिना कुछ नया नहीं जोड़ रहे हैं, तो हम लोक-संस्कृति को बेहतर बनते नहीं देख पाएंगे।" इस गोष्ठी में मेरा भी यह मानना है कि लोक-संस्कृति में निहित प्रतिक्रियावादी बातों के प्रति बहुत ज्यादा मोह सही नहीं है, जैसे:- करवाचौथ, तीज जैसे पर्वों पर कहीं जाने वाली लोककथाएं मूलतः स्त्री विरोधी हैं। बिहार के एक छोटे से अंचल में मनाया जाने वाला एक पर्व छठ एकाएक मीडिया की कृपा से राष्ट्रीय पर्व में बदल जाता है, जिसे लेकर उत्तर भारत का एक प्रगतिशील और वामपंथी तबका भी उसे लोकजीवन और लोकतत्व का पर्व करार देता है। पुत्रप्राप्ति की कामना वाले इस पर्व में गाए जाने वाले लोकगीतों को देखें, तो पाएंगे कि ज्यादातर स्त्री-विरोधी हैं, लेकिन आज आधुनिक सोशल मीडिया जिसमें फेसबुक, यूट्यूब और वाट्सऐप द्वारा खूब प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है।

इस गोष्ठी में यह बात भी बार-बार उभरकर सामने आई कि लोक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए सोशल मीडिया का किस तरह से प्रयोग किया जा सकता है हालांकि यह आज भी अश्लील, भौड़े और द्विअर्थी गीतों से भरा हुआ है। लोक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए इसका प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए, नहीं तो इसके घातक परिणाम सामने आ सकते हैं। नेहा सिंह राठौर जैसी एक लोकगायिका ने साम्प्रदायिक और फासीवाद के ख़िलाफ़ बहुत कुशलता से लोकगीतों का इस्तेमाल किया है, हालांकि इसके लिए उन्हें आज सरकारी कोपभाजन का शिकार भी बनना पड़ रहा है। इसी लोकरंग में लखराज लोककला मंच सुल्तानपुर द्वारा अवधी बिरहा गायन प्रस्तुत किया गया था, जिसके मुख्य कलाकार बृजेश यादव जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली से पीएचडी भी हैं, उन्होंने अपने गायन में बहुत ही खूबसूरती से धार्मिक पाखंड साम्प्रदायिकता तथा फासीवाद को स्थान दिया है तथा आज उनकी लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ रही है। इस गोष्ठी में चाहे वो जनसंस्कृति मंच के सचिव मनोज सिंह हो या लेखक संस्कृतिकर्मी सुभाष चन्द्र कुशवाहा हैं सभी का यह मानना था कि पढ़े-लिखे लोगों को लोक-संस्कृति और लोकसाहित्य का गहन अध्ययन करना चाहिए, जिससे कि वे इनमें से सकारात्मक चीज़ों को निकालकर उसे नए रूपों में आज के उभरते हुए जन आंदोलनों में इसका प्रयोग कर सकें।

निश्चित रूप से सोलह वर्ष से निरंतर चल रहे इस आयोजन के लिए कथाकार और लेखक सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने चौरीचौरा किसान विद्रोह, अवध का किसान विद्रोह तथा भील विद्रोह जैसी महत्वपूर्ण किताबें लिखीं हैं। वे बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के अपने गांव और उसके आसपास के लोगों की एक टीम बनाकर इसके लिए हर संभव आर्थिक तथा अन्य व्यवस्थाएँ कीं।

इस वर्ष अपनी भागीदारी के बाद मुझे यह महसूस होता है कि यहलोकरंग हर वर्ष सफलता के नये-नये आयाम जोड़ेगा।

(स्वदेश कुमार सिन्हा एक लेखक और अनुवादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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