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लोकतंत्र में मज़ाक़ या लोकतंत्र का मज़ाक़!

राजनीति के इस दौर को हम भद्दे या क्रूर मज़ाक़ों का दौर कह सकते हैं।
लोकतंत्र में मज़ाक़ या लोकतंत्र का मज़ाक़!
सांकेतिक तस्वीर

नरेंद्र मोदी ने एक  बार अपने एक ट्वीट में लिखा था कि हमें और व्यंग्य और मज़ाक़ की ज़रूरत है। मज़ाक़ सबसे बड़ी दवा है।

 

अगर पिछले पाँच सालों को देखा जाए तो पता चलता है कि नरेंद्र मोदी ने अपनी इस बात को खुद बहुत गंभीरता से ग्रहण किया है। और न केवल ग्रहण किया है, बल्कि इस पर बा-कायदगी से अमल भी किया है। अपने भाषणों से, अपनी नीतियों से मोदीजी ने देश ही को एक मज़ाक के तौर पर देखने का काम किया है।

भाषणों की बात करना यहाँ बेहद ज़रूरी है। जिस तरह की बातें हमारे प्रधानमंत्री ने की हैं, उन्हें सुनने से किसी को भी गुरेज होना लाज़मी है। सोनिया गांधी को "50 करोड़ की विधवा" कहना, डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चों का मज़ाक उड़ाना, और भाषणों में लगातार विरोधी पार्टियों पर निजी हमले करना मोदीजी की यूएसपी रहा है। उनके द्वारा बोले गए झूठों की बात की जाए तो फ़ेहरिस्त लंबी हो जाएगी। अगर कोई इतिहासकार कई सालों के बाद भारत की राजनीति का इतिहास लिखेगा/लिखेगी और प्रधानमंत्री पद की गरिमा की बात करेगा तो उसमें नरेंद्र मोदी का दौर शायद इस पद की गरिमा कम करने के लिए याद किया जाए।

राजनीति के इस दौर को हम भद्दे या क्रूर मज़ाक़ों का दौर कह सकते हैं। 

चुनावों का लगभग आधा दौर बीत चुका है। इन चुनावों को हर कोई बहुत महत्वपूर्ण चुनाव का नाम दे रहा है, जिसकी वजह है पिछले पाँच साल की बीजेपी की सरकार। बीजेपी की सरकार की नीतियों की वजह से उनकी बेहद आलोचना होती रही है, और एक बड़ा वर्ग इस बार बीजेपी के विरोध में खड़ा दिखाई देता है। जाहिर तौर पर ये सरकार जिन मुद्दों के बल पर सत्ता में आई थी, उनको लागू करने में नाकाम रही है, बल्कि सिर्फ़ एक जुमलों की सरकार बन के रह गई है।

मोदीजी ने पूरे पाँच सालों में ऐसे हथकंडे अपनाए हैं जिनसे जनता को असली मुद्दों से गुमराह किया जा सके। और उनका ये स्व-प्रचार चुनावों के दौरान भी जारी है। पाँच साल तक एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस न करने वाले मोदीजी अब लगातार चैनलों को इंटरव्यू दे रहे हैं, और उनमें जिस तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं वो बे-मानी हैं।

ये एक नीति के तहत चलता दिखाई देता है। जब मोदीजी अपने मनपसंद चैनल को इंटरव्यू दे कर ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि वो जनता के सवालों को सुन रहे हैं, तब दरअसल वो इस फ़िराक में रहते हैं कि कुछ ऐसा कह दें जिससे कि सारा विपक्ष उस एक बात पर अपना सारा ध्यान लगा दे, और असली मुद्दों पर कोई सवाल न पूछे। उदाहरण के लिए मोदीजी का पकौड़े वाला बयान, ये बयान इतना हास्यास्पद था कि इसे सिरे से ख़ारिज कर देना चाहिए था, बेरोज़गारी की बढ़ती दर पर सवाल करने चाहिए थे, लेकिन सबने उनके एक भद्दे मज़ाक को और आगे बढ़ाया और उसे और भद्दा बनाने में लग गए।

अंग्रेज़ी में एक टर्म है "चीप पब्लिसिटी" यानी सस्ता प्रचार, हल्की बातें बोल के चर्चा में बने रहना। देखा गया है कि बीजेपी और मोदीजी इस विधा में माहिर हैं। जब विपक्ष उनके इस छोटे-छोटे जुमलों को चुटकुला बना कर पेश करता है, तो दरअसल वो उनके इस जाल में फँसता चला जाता है, और असली मुद्दों से भटक जाता है, जो कि सरकार का मक़सद है।

5 सालों से सरकार ने छोटे-छोटे जुमले लगातार फेंके हैं, और सारे विपक्ष को उसमें उलझाने का काम किया है। इससे हुआ ये है, कि बीजेपी की सरकार और मोदीजी नोटबंदी बचा ले गए, जीएसटी बचा ले गए, सारी हिंसा बचा ले गए, बेरोज़गारी बचा ले गए, और इसी तरह के हालात रहे तो जनता हित के सारे मुद्दों का चुटकुला बना कर 2019 का चुनाव भी बचा ले जाएंगे। 

इसलिए सरकार ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये समझने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र में मज़ाक तो हो सकता है लेकिन लोकतंत्र का मज़ाक नहीं बनाया जा सकता। इसी के साथ विपक्ष को, सरकार विरोधियों और आलोचना करने वाले लोगों के एक बड़े हिस्से को भी ये समझने की ज़रूरत है कि जब सरकार से सवाल पूछने, उसकी नीतियों की आलोचना करने की बात आती है, तो उसे चुटकुलों में उड़ाया नहीं जा सकता। मुद्दों को चुटकुला समझने का काम इस सरकार ने ब-ख़ूबी किया है, अगर इसका मुक़ाबला करना है, तो संवेदनशीलता और गंभीरता से करना होगा। 

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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