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फ़ुरक़ान अली और उनके बच्चों से सीखिये कि नफ़रत से कैसे जीतते हैं!

सांप्रदायिक धर्मयुद्ध के ख़िलाफ़ हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते एक स्वाभाविक तटबंध के रूप में काम करते हैं।
furqan and his children

फ़ुरक़ान अली और उनके स्कूली बच्चों के आचरण और उनके अनुभवों से ढेर सारे सबक लिए जा सकते हैं। धार्मिक समुदायों के बीच रोज़मर्रा की एकजुटता को और विकसित करने से अधिक शायद ही कोई और महत्वपूर्ण चीज होगी जो संघ परिवार की नफ़रत की राजनीति का मुक़ाबला कर सके, जो लगातार कोशिश में लगा रहता है कि किस प्रकार से मुसलमानों को राष्ट्र-विरोधी के रूप में सीमित किया जाए और उन्हें अलग-थलग किया जाए।

जिन्हें इस कहानी का देर से पता चल रहा हैउनके लिए यहाँ एक पुनर्कथन हैफ़ुरक़ान अली उत्तर प्रदेश के पीलीभीत ज़िले के बिलासपुर ब्लॉक मेंघयासपुर प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद पर थेजब तक कि उन्हें पिछले सप्ताह निलंबित नहीं किया गया था। उनके निलंबन का आदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध विश्व हिंदू परिषद के इस दावे के बाद जारी किया गया थाजिसमें यह दावा किया गया था कि घ्यासपुर प्राथमिक विद्यालय की प्रातःकालीन प्रार्थनासभा में बच्चों से एक धार्मिक प्रार्थना भी गवाई जाती है

जबकि हक़ीक़त मेंअली ने स्कूली बच्चों से मुहम्मद इक़बाल की कविता लब पे आती है दुआ गवाई थीजो हम सबके बीच अल्लामा इक़बाल के नाम से मशहूर हैंऔर जिनकी कलम से सारे जहाँ से अच्छा जैसी मशहूर रचना रची गई है। किसी भी लिहाज़ से इस कविता को धार्मिक प्रार्थना नहीं कहा जा सकता

या तो नासमझी में या विवाद को सुलगाने के मक़सद सेविहिप और एक हिंदू उग्रवादी ग्रुपहिंदू युवा वाहिनी, जिसे 2002 में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ द्वारा स्थापित किया गया थाने अली को तत्काल प्रभाव से प्रधानाध्यापक पद से हटाने की मांग को लेकर स्कूल और ज़िला कलेक्ट्रेट के बाहर विरोध प्रदर्शन किया इस जाँच में अली को सरकारी नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया गया

अली को निलंबित करने के अपने आदेश में बेसिक शिक्षा अधिकारी देवेन्द्र स्वरूप का कहना है कि, “सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो के अनुसारहमारे संज्ञान में आया है कि प्राथमिक विद्यालयघ्यासपुर मेंछात्रों को आमतौर पर स्वीकृत प्रार्थना के अलावा एक अलग प्रार्थना करने के लिए कहा जाता था।।। फ़ुरक़ान अली को प्रथम दृष्टया इसके लिए ज़िम्मेदार पाया गया है और इस प्रकार उन्हें पद से निलंबित किया जाता है

जिन घटनाओं के चलते अली का निलंबन हुआ वे बताती हैं कि उत्तर प्रदेश प्रशासन पर हिन्दू दक्षिणपंथी गुटों का कितना ज़बरदस्त घुसपैठ है, और वे किस प्रकार झूठे आरोपों को गढ़ने के लिए बदनाम इन संगठनों के आरोपों को स्वीकार करने के लिए झुक चुका है।

इन संगठनों को इसलिये भी ख़ुश रखना पड़ता है क्योंकि इन्हें लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी से समर्थन प्राप्त है। फ़ुरक़ान अली प्रकरण इस बात को रेखांकित करता है कि विचारधारात्मक प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए किस प्रकार सत्ता का इस्तेमाल किया जाता है

इससे यह भी पता चलता है कि ग़ुस्से को भड़काने और सामाजिक वैमनस्य पैदा करने के नियमों में बदलाव हुए हैं। इस मामले में, अफ़वाह फैलाना हमेशा से एक घातक औज़ार के रूप में काम करता रहा है। हालाँकि मुहँज़बानी अफ़वाह फैलाने के तरीक़े में साक्ष्य की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अक्सर सच के लिबास में आने से पहले ही ये अफ़वाह चकनाचूर हो जाते थे।

इस कमज़ोरी को अब मोबाइल फ़ोन पर बेहद आसानी से उपलब्ध वीडियो के ज़रिये भर दिया गया है। अपने ख़ुद की स्वीकारोक्ति में स्वरूप और अन्य ने माना है कि उन्हें अली के अपराध की जानकारी एक वीडियो के माध्यम से मिली थी। उनके दिमाग़ में यह बात नहीं आई कि किसी नापाक इरादे में सफलता पाने के लिए कोई इस वीडियो में छेड़छाड़ भी कर सकता है। या कहीं ये मनगढ़ंत सुबूत उस व्यक्ति से पीछा छुड़ाने की तरकीब तो नहीं जिसे हिन्दू दक्षिणपंथी नापसंद करते हों?

हालांकिइस सामाजिक विघटन को और चौड़ा करने की संघ परिवार की रणनीति विफल हो गई हैक्योंकि यह रोज़मर्रा की एकजुटता के तटबंधों को भेद नहीं सका जिसने अली को स्कूली बच्चों से मज़बूती से जोड़ रखा था। ये स्कूली बच्चे ही थे जिन्होंने मीडिया को बताया कि वे सुबह की सभा में कोई धार्मिक प्रार्थना नहीं बल्कि इक़बाल की लब पे आती है दुआ पढ़ते थेऔर जो कविता उनके पाठ्यक्रम में निर्धारित की गई थीऔर ये वही हिन्दू और मुस्लिम बच्चे थे जिन्होंने समान रूप से अली से सुबह की प्रार्थनासभा की रस्म में इक़बाल की कविता को शामिल करने का अनुरोध किया था

स्कूली बच्चों के जवाबी-नरेटिव के चलते प्रशासन को अली का निलंबन रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन उन्हें घ्यासपुर प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में बहाल न कर, दूसरे स्कूल में स्थानांतरित कर दिया गया। यह क़दम हिंदू दक्षिणपंथी गुटों को अपनी इज़्ज़त बचाने जैसा था, जिसके लिए प्रशासन ने युद्ध विजय की पटकथा लिख दी थी।

फिर भी नफ़रत की राजनीति के इस युग में, अली के निलंबन को वापस लेने वाले कदम को भी एक विजयोल्लास के रूप में मनाने की ज़रूरत है- और इसका श्रेय हेडमास्टर और उनके स्कूली बच्चों के बीच बने गहरे जुड़ाव को दिया जाना चाहिए। बच्चों ने बताया कि किस प्रकार अली, दिन के भोजन में पूर्ति के लिए अपनी जेब से सब्ज़ियों की ख़रीदारी करते थे, उनकी कभी पिटाई नहीं की, और किस प्रकार वे लगभग हमेशा उनकी इच्छाओं को स्वीकार कर लेते थे।

यह रोज़मर्रा की वह मज़बूत डोर थी जिसे हिन्दू दक्षिणपंथ तोड़ नहीं सका, इस बात का प्रमाण घ्यासपुर प्राथमिक विद्यालय में अली के निलंबन के बाद बच्चों के स्कूल में उपस्थिति में आई तेज़ गिरावट से देखा जा सकता है। कविता, जिनके बच्चे उसी स्कूल में पढ़ते थे जिसमें कभी अली थे, कहती हैं, “प्रशासन हमारे बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है। उसका हमारे बच्चों की देखभाल पर ध्यान नहीं है, क्योंकि हम ग़रीब हैं।”

हिन्दू दक्षिणपंथ के ख़िलाफ़ घ्यासपुर प्राथमिक विद्यालय का यह संघर्ष ब्राउन विश्वविद्यालय के आशुतोष वार्ष्णेय के इस कथन को साबित करता है जिसे वे बैटल हाफ़ वॉन में लिखते हैं: "भारत के अकल्पनीय लोकतंत्रदो समुदायों (हिन्दू और मुसलमानके बीच पहले से मौजूद स्थानीय तन्त्र के ज़रिये नागरिक मेलमिलाप वह सबसे प्रमुख अनुमानित विवरण है जिससे शांति और हिंसा का अंतर निर्धारित होता है।”

जहाँ जहाँ हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के बीच आपसी सम्बन्ध विविध और गहराई में समाये हुए हैं उन जगहों पर सांप्रदायिक दंगों की संभावनाएं कम देखने को मिलती हैं। यह नेटवर्क दो प्रकार के होते हैं: रोज़मर्रा के रूप में आपसी सम्बंध या संस्थाओं के माध्यम से जुड़ाव। दूसरे तरह का जुड़ाव अधिकतर शहरों में पाया जाता है, जिसमें व्यापरियों के संघ, ट्रेड यूनियन, क्लब जिसमें लायंस और रोटरी क्लब शामिल हैं, कला-प्रेमी संघ और कुलियों और रिक्शा-चालक जैसे तमाम संघ शामिल हैं।

वार्ष्णेय इन दोनों तंत्रों के बीच अंतर और इनके जुड़ाव से पैदा होने वाली विशेषता के बारे में बताते हैं। 1994-95 के आसपास के अपने अनुभवजन्य शोध के आधार पर वार्ष्णेय ने लिखा है, “ग्रामीण स्तर पर भारत मेंरोज़मर्रा के तौर होने वाले आपसी संबंध एक आम बात है, जबकि औपचारिक संगठन की संख्या कम होने के साथ उनके बीच दूरी भी है।”

वार्ष्णेय इशारा करते हैं कि “इसके विपरीतभले ही शहरों में साहचर्य जीवन फलता फूलता होलेकिन 1950 और 1995 के दौरान सांप्रदायिक हिंसा में होने वाली सर्वाधिक मौतें शहरी भारत में ही हुईं।”

साम्प्रदायिक हिंसा के लिहाज़ से वे शहर पूरी तरह से अतिसंवेदनशील पाए गएजहाँ अंतर-सामुदायिक सहभागिता अपनी जड़ें गहराई से नहीं जमा सकी थीं। इस तरह के तमाम संघ रोज़-रोज़ की एकजुटता को तो मज़बूत कर सकते हैं लेकिन आविष्कार नहीं। इसके लिए वार्ष्णेय 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर केरल में कालीकट और उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में होने वाली विपरीत प्रतिक्रिया का हवाला देते हैं। इस घटना के चलते जहाँ अलीगढ़ बिखर गयावहीँ कालीकट शांत रहा, जबकि दोनों ही शहरों में मुस्लिम आबादी समान रूप से 36%-38% तक थी

अपने सर्वेक्षण में वार्ष्णेय पाते हैं कि कालीकट और अलीगढ़ में हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी संबंध गुणात्मक रूप से भिन्न थे। कालीकट में जहाँ क़रीब 83% हिंदू और मुसलमान अक्सर एक साथ सामाजिक समारोहों में भोजन करते थेवहीँ अलीगढ़ में यह मात्र 54% था। जहाँ एक ओर कालीकट में हिन्दू-मुस्लिम परिवारों के क़रीब 90% बच्चे एक साथ खेलते थेवहीँ अलीगढ़ में यह संख्या मात्र 42% पाई गई। इसके साथ हीजहाँ कालीकट में लगभग 84% हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक दूसरे के घरों में आना जाना थावहीँ यह अलीगढ़ में केवल 60% थाऔर वह भी "अक्सर नहीं होता था1992 में कालीकट में बिखराव में न तब्दील होने के पीछे यह एक मुख्य वजह थी

1990 के दशक के बाद सेसांप्रदायिक ध्रुवीकरण में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं। एक के लिएयह धारावाहिक के बजाय सांप्रदायिक उन्माद को उबालते रहने का अनवरत प्रयास हैजो कभी-कभी इस बुलबुले को फूटने देता है। जबकि किसी और के अनुसारसंघ के असंख्य संगठनों ने ग्रामीण भारत में अपनी जड़ें जमा ली हैंऔर सामुदायिकता के रिश्तों पर दबाव पैदा कर रही हैं, जो पहले से ही कृषि संकट और आर्थिक उदारीकरण नीतियों के कारण तनाव में हैं। इन चिंताओं को बीजेपी के सत्ता में होने के चलते नौकरशाही का उग्र हिंदू दक्षिणपंथी दलों के प्रति बढ़ते दब्बूपन से जोड़ कर देख सकते हैं

फिर भी घ्यासपुर के स्कूली बच्चों के अनुकरणीय आचरण से पता चलता है कि दो दशक पहले वार्ष्णेय की भविष्यवाणी में जो बात सही पाई गई थी, वह आज भी प्रासंगिक है कि किस प्रकार कुछ जगहों पर अन्य स्थानों की तुलना में सांप्रदायिक वैमनस्य की संभावना अधिक होती है। हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच इस प्रकार के अधिकाधिक पारस्परिक संबंध एक प्रकार से सांप्रदायिक गोलबंदी के ख़िलाफ़ अपने आप एक स्वाभाविक तटबंध के रूप में काम करता है।

वास्तव में, फ़ुरक़ान अली और उनके स्कूली बच्चों ने संघी नफ़रत की विचारधारा से हिंदू और मुस्लिमों की रोज़मर्रा की एकजुटता पर लग रही ज़ंग ले लड़ने की बढ़ती आवश्यकता को सामने लाने का काम किया है। हताश विपक्षी नेताओं को हेडमास्टर और उनके बच्चों से सीखना चाहिए कि हिंदुत्व विरोधी प्रयोगशाला का निर्माण किस तरह किया जाए

एजाज़ अशरफ़ दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

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