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अफ़ग़ानिस्तान : क्या मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में तालिबान सरकार को मिल सकती है वैधानिक मान्यता

आधुनिक राजनीतिक इतिहास में अफ़ग़ानिस्तान राज्य की यात्राओं के पड़ावों को याद किया जा रहा है।
अफ़ग़ानिस्तान : क्या मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में तालिबान सरकार को मिल सकती है वैधानिक मान्यता

आधुनिक राजनीतिक इतिहास में अफ़ग़ानिस्तान राज्य की यात्राओं के पड़ावों को याद करते हुए मोहन वी कातारकी समझा रहे हैं कि कैसे अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से क़ानूनी वैधता मिल सकती है। 

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अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना के हटने के बाद काबुल पर तालिबान का कब्ज़ा हो गया, जो एक विप्लवकारी इस्लामिक सैन्य संगठन है। तालिबान पिछले दो दशकों से अफ़ग़ानिस्तान के पहाड़ों में अपना वक़्त काट रहा था। 

निराश्रित अफ़गानियों को काबुल में अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे की तरफ भागते हुए देखा गया। यह हवाईअड्डा देश छोड़ रहे अमेरिकी सैनकों की अफ़ग़ानिस्तान में कब्जे वाली सबसे आखिरी जगह थी। जिन लोगों को हवाई जहाज में जगह नहीं मिल पाई, उन्हें दिल दहला देने वाले वायरल वीडियो में हवाई जहाज के गियरबॉक्स से लटका हुआ देखा गया। पिछले दो दशकों से अमेरिका की सुरक्षा में रहने वाले  अफ़ग़ानिस्तान के आधुनिकतावादी लोगों में पल रहे अभूतपूर्व डर की यह तस्वीर थी।

काबुल पर कब्जा लगभग पूरा हो चुका है, लेकिन आने वाले दिनों या महीनों में अनिश्चित्ता बढ़ने की बात कही जा रही है। लेकिन अगर कोई अतीत में ध्यान से देखे, तो समझ आएगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय यहां अंधेरे में नहीं है।

अफ़ग़ानिस्तान का राजनीतिक इतिहास

"द क्रिएशन ऑफ़ स्टेट्स इन इंटरनेशनल लॉ" किताब़ के मुताबिक़, आंतरिक सरकारें या आंतरिक वैधानिक सत्ता बदल सकती है, लेकिन एक संस्थान के तौर पर राज्य सतत् बना रहता है। लेखक और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के प्रोफ़ेसर जेम्स आर क्राफोर्ड लिखते हैं, "19वीं और 20वीं शताब्दी में असंख्य क्रांतियों, तख़्तापलटों और ऐसी ही घटनाओं में यह नियम लागू हुआ है कि किसी सरकार के जाने से राज्य की निरंतरता पर प्रभाव नहीं पड़ता।" क्राफोर्ड यहां 1917 की 'अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत संघ और 1978 की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान में सत्ता की स्थापना का उदाहरण देते हैं।

क्राफोर्ड अपनी एक और किताब "ब्राउनलीज़ प्रिंसपल ऑफ़ पब्लिक इंटरनेशनल लॉ" में कहते हैं, अंतरराष्ट्रीय क़ानून की आंखों में कोई राज्य तब ख़त्म हो सकता है जब उसकी आबादी या क्षेत्रफल या/और क़ानूनी व्यवस्था में बदलाव आ जाता है। बेहद उथल-पुथल भरे राजनीतिक बदलावों के अपने इतिहास के बावजूद कई शताब्दियों से अफ़ग़ानिस्तान एक राज्य के तौर अपनी पहचान गंवाए बिना निरंतर रहा है। हालांकि वहां के संविधान के साथ-साथ अमीरात से राजशाही, गणतंत्र और फिर इस्लामिक राज्य के दर्जे में लगातार बदलाव होते रहे हैं। आशा है कि आने वाले दशकों में भी अफ़ग़ानिस्तान की पहचान बरकरार रहेगी। 

आधुनिक दुनिया की खोज से बहुत पहले अफ़ग़ानिस्तान की स्थापना की गई थी। तबसे अब तक यह राज्य काबुल में बरकरार रहा है और कई सत्ता परिवर्तन हुए हैं, जिनमें से कुछ ने अंतरराष्ट्रीय क़ानून को चुनौती दी है।

इतिहास बताता है कि 16वीं और 17वीं शताब्दी में पूरे मध्य एशिया, जिसमें अफ़ग़ानिस्तान भी शामिल था, वहां फारसी शिया मुस्लिम राजशाही सफाविद वंश का शासन रहा है। पश्तूनों की घिल्जी कबीले ने सफाविदों के क्रूर गवर्नर गुर्गिन खान के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया और 1709 में होतक वंश के नाम से अपनी सत्ता स्थापित की। होतक वंश के राजा सुन्नी मुस्लिम थे।

नादिर शाह द्वारा तबाह करने से पहले होतक राजशाही ने अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के हिस्सों पर शासन किया। नादिर शाह के बाद अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता शाह के तुर्कमान कबीले अफशार के पास चली गई। लेकिन 1747 में शाह की हत्या होने के बाद, अफ़गानी कबीलों में एकता ना होने का फायदा उठाते हुए पश्तून दुर्रानी कबीले से ताल्लुक रखने वाले शाह के एक सिपहसालार अहमद शाह अब्दाली ने अफ़ग़ानिस्तान में दुर्रानी वंश की नींव डाली। 18 वीं शताब्दी के आखिर और 19 वीं शताब्दी के शुरुआत में दुर्रानी शासन कमजोर होने लगा, जिसके बाद 1829 में बाराकज़ी कबीले के अंतर्गत अफ़गान अमीरात की स्थापना हुई। 

"द ग्रेट गेम"

अफ़ग़ानिस्तान की भूराजनीतिक अहमियत ने 19वीं शताब्दी में पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों का ध्यान अपनी ओर खींचा, जो आजतक जारी है। अंग्रेजों को शक था कि रूस के जार शासन की उनके भारतीय उपनिवेश में साम्राज्यवादी दिलचस्पी है। इसके बाद रूस और अंग्रेजी साम्राज्य के बीच लंबी राजनीतिक और कूटनीतिक झड़प चली, जिसे लोकप्रिय तौर पर "द ग्रेट गेम" कहा जाता है। इस मुहावरे को रुडयार्ड किपलिंग के उपन्यास "किम" से लोकप्रियता मिली थी। 

शक और आपसी विश्वास की कमी के चलते ब्रिटेन ने निवारक कदम उठाते हुए अफ़ग़ानिस्तान को नियंत्रित करने की कोशिश की। इस तरह से 1838-42 के बीच पहली अंग्रेज-अफ़गान जंग हुई। हालांकि अंग्रेजों ने काबुल पर जीत हासिल कर ली, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं रह सकी। अफ़गानों ने अंग्रेजों को खून के आंसू बहाने पर मजबूर कर दिया, जिन्हें मजबूरन अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना पड़ा। 

इसके बावजूद 1878 में अंग्रेजों ने दूसरे अंग्रेज-अफ़गान युद्ध की शुरुआत कर दी। इस युद्ध से अंग्रेजों को उनकी दीर्घकालीन योजनाओं में लाभ मिला। 1880 में अफ़ग़ानिस्तान अंग्रेजों का संरक्षित राज्य बन गया। इस राजनीतिक विकास और भारत में अंग्रेजी शासन की एकजुटता मजबूत हो जाने से रूसी जार शासन का अफ़ग़ानिस्तान में रुझान ख़त्म हो गया। 

दशकों बाद सुरक्षित और मजबूत अंग्रेजी शासन ने तीसरे अंग्रेज-अफ़गान युद्ध के बाद हुई संधि (अगस्त, 1919 में हुई, 1921 में संशोधित) के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान के ऊपर अपनी संप्रभुता छोड़ दी। यही वह वक़्त था, जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अफ़ग़ानिस्तान को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दी। 19 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। 

1928 और 1929 में गृहयुद्ध होने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के पहले राजा अमानुल्ला खान को गद्दी से नीचे उतरना पड़ा, इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में तुलनात्मक तौर पर राजनीतिक स्थिरता रही, खासकर मोहम्मद जहीर शाह के चार दशकों के शासन में अफ़ग़ानिस्तान में शांति रही। उनके शासन में अफ़ग़ानिस्तान का आधुनिकीकरण हुआ और देश में शांति व उन्नति आई। 

लेकिन एक पुरानी कहावत है- राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है। 1973 में जहीर शाह को उनके रिश्ते के भाई मोहम्मद दाऊद खान ने गद्दी से हटा दिया और अफ़ग़ानिस्तान गणतंत्र की स्थापना की। इस खूनरहित तख़्तापलट से अफ़ग़ानिस्तान में दो सौ साल की राजशाही का खात्मा हो गया। 

शीत युद्ध 

लेकिन दाऊद खान का सपना ज़्यादा दिन नहीं टिक सका। अफ़ग़ानिस्तान की मध्य एशिया में भूराजनीतिक अहमियत को सोवियत संघ अपने अहम हितों के चलते नज़रंदाज नहीं कर सकता था। 1978 में साउर क्रांति हुई, जिसमें मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी- पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान ने दाऊद खान को मारकर उनकी सत्ता ख़त्म कर दी। PDPA ने "डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ अफ़ग़ानिस्तान" की स्थापना की और सोवियत संघ के करीबी नूर मुहम्मद तराकी को राष्ट्रपति चुना गया। लेकिन वामपंथी शासन को बेहद धार्मिक अफ़गान कबीलों को कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा। 

अगले साल ही सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान में PDPA सरकार को जनविद्रोह के खिलाफ़ मदद करने के लिए आ गई। जवाब में अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफ़गानी कबीलों के विद्रोही समूहों को समर्थन दिया, जिन्हें सामूहिक तौर पर अफ़गान मुजाहिदीन कहते हैं। इन मुजाहिदीनों को हथियार और पैसा दिया गया, ताकि ये पवित्र युद्ध छेड़ सकें। 1878 में दूसरे अंग्रेज़-अफ़गान युद्ध के बाद जिस ग्रेट गेम को भुला दिया गया था, वह दोबारा चालू हो गया और अफ़ग़ानिस्तान, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध का अखाड़ा बन गया।

सोवियत संघ द्वारा समर्थित अफ़गान सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से पूर्ण मान्यता नहीं मिली थी। 

सोवियत संघ के विघटन के बाद बहुत जल्दी अफ़ग़ानिस्तान सरकार तितर-बितर हो गई। मुजाहिदीनों ने "पेशावर समझौते" के नाम से 26 अप्रैल, 1992 में एक समझौता किया, जिससे "इस्लामिक अफ़ग़ानिस्तान राज्य" का गठन हुआ। लेकिन अलग-अलग मुजाहिदीनों के गुटों के बीच शक्ति साझा करने पर सहमति बन पाने के चलते किसी तरह की स्थिर सरकार का गठन नहीं किया जा सका और देश में अराजकता के साथ-साथ गृह युद्ध चलता रहा। 

इस स्थिति में 1994 में तालिबान का गठन किया गया था, जिसे पाकिस्तान और अल-कायदा का समर्थन प्राप्त था। तालिबान ने 1996 में काबुल पर कब्ज़ा कर लिया और "इस्लामिक अफ़ग़ानिस्तान अमरीत" की स्थापना की। तालिबान सत्ता को अंतरराष्ट्रीय समुदाय या अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत कोई मान्यता नहीं दी गई। सिर्फ़ पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने ही तालिबान शासन को मान्यता दी। यही वो देश थे, जिन्होंने तालिबान को खड़ा किया था। बल्कि 1973 में राजा मोहम्मद जाहिर शाह के बाद से आई अफ़ग़ानिस्तान की अलग-अलग सत्ताओं को अंतरराष्ट्रीय क़ानून में बहुत ज़्यादा मान्यता नहीं मिल पाई। 

राजनीतिक निर्वात के दौरान 1996 में सत्ता हासिल करने वाले तालिबान का 90 फ़ीसदी अफ़गान ज़मीन पर कब्ज़ा था। तालिबान कट्टरपंथी इस्लामी विचारों को मानने वाला संगठन था। इसकी सत्ता गैरउदारवादी, तानाशाही और धार्मिक राज्य के तौर पर चलती है, जिसका आधार इस्लामी न्यायशास्त्र में हनाफी संप्रदाय का शरिया क़ानून था।

आंतक के खिलाफ़ जंग

इस बीच 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुआ हमला एक अहम अंतरराष्ट्रीय घटना थी, जिसने लगभग पूरी अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को ही लकवा लगा दिया। अमेरिका ने आतंक के खिलाफ़ जंग की घोषणा कर दी और अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई कर दी, ताकि तालिबान को खदेड़ा जा सके, जो कथित तौर पर अल-कायदा को सुरक्षित पनाहगाह उपलब्ध करवा रहा था। 

अक्टूबर और दिसंबर 2001 के बीच में अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफ़गान उत्तरी गठबंधन के साथ मिलकर तालिबान को सत्ता खदेड़ दिया। उत्तरी गठबंधन एक सैन्य मोर्चा था, जो तालिबान से 1996 से लोहा ले रहा था। 

तालिबान के जाने के बाद अफ़गान के नागरिक नेता जर्मनी के बॉन में मिले, ताकि नई प्रावधिक सरकार स्थापित की जा सके। 5 दिसंबर, 2001 को "अफ़ग़ानिस्तान-बॉन समझौते" पर हस्ताक्षर हुए, जिससे "इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंस फोर्स (ISAF)" की स्थापना हुई, जिसमें 40 से ज़्यादा देशों के सैनिक शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अपने प्रस्ताव संख्या 1386 के ज़रिए ISAF को क़ानून अधिकार दिए, ताकि यह सुरक्षा और शांति बनाए रखने में अफ़ग़ानिस्तान की अंतरिम सरकार की मदद कर सके। 

जैसा बॉन समझौते में वायदा किया गया था, एक "लोया जिर्गा" या पश्तून क़ानूनी परिषद की जरूरत थी ताकि स्थायी सरकार और संविधान बनाया जा सके। इसकी अध्यक्षता आखिरी अफ़गान राजा ज़हीर शाह ने की। अंतरराष्ट्रीय समुदाय का मत था कि केवल ज़हीर शाह के पास ही अफ़ग़ानिस्तान पर शासन करने की संप्रभु शक्ति मौजूद है। 

1973 में उन्हें सत्ता से हटाया जाना, सौर क्रांति से हुए बदलाव, 1992 में हुए पेशावर समझौते और तालिबान द्वारा 1996 में सत्ता को हथियाए जाने की सभी घटनाओं को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने गैरक़ानूनी करार दे दिया। 

लोया जिर्गा की बैठक 11-19 जून, 2002 के बीच काबुल में हुई। दो साल के लिए अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्रपति हामिद करज़ई की अध्यक्षता में एक सरकार का गठन कर दिया गया। 

बॉन समझौते के तहत गठित हुए अफ़ग़ानिस्तान संविधान आयोग ने अफ़गान संविधान बनाया, जिसे 2004 में अंगीकार कर लिया गया। इसके ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी गणतंत्र का गठन किया गया। 2004 में लोकप्रिय मतों के आधार पर करज़ई को पहला राष्ट्रपति चुना गया। 2014 में उनकी अशरफ़ ग़नी ने ली। 

लेकिन मई, 2021 में ऑपरेशन फ्रीडम्स सेंटिनल के तहत अमेरिका और उसके सहयोगियों, व रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन के तहत नाटो सैनिकों के जाने की सुगबुगाहट के साथ अब तक छुपे बैठे तालिबानी लड़ाके सामने आने लगे और एक-एक कर अफ़गानी शहरों को जीतने लगे। उन्हें ज़्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ रहा था। 

दुर्भाग्य से 3 लाख सैनिकों वाली अफ़गान सेना, जिसे 2001 से 87 बिलियन डॉलर लगाकर अमेरिकी सेना द्वारा प्रशिक्षित किया गया था, वह तालिबानी हमलों के सामने बेबस नज़र आई। 

15 अगस्त, 2021 को काबुल पर तालिबानी कब्ज़े के बाद अशरफ़ गनी की राष्ट्रीय सरकार निर्वासन में चली गई। तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात की दोबारा घोषणा कर दी और अब तालिबान 1996-2001 के बाद दूसरी बार सत्ता में आ चुका है।

आगे क्या?

अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दिमाग में सवाल है कि "साम्राज्यों की कब्रगाह" में अब आगे क्या होगा? भले ही 15 अगस्त को तालिबान काबुल पर कब्ज़े के साथ सत्ता हथिया चुका हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा तालिबान के शासन मान्यता देना अभी बाकी है। 

लेकिन ऐसा लगता है कि यह सिर्फ़ औपचारिकता है, बशर्ते तालिबान अपने शब्दों से मुकर जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी फौज़ों की वापसी और गनी सरकार का तख़्तापलट सबकुछ एक लिखित समझौते का हिस्सा है। यहां जिस समझौते की बात हो रही है, वह अमेरिका ने 29 फरवरी, 2020 को तालिबान के साथ कतर के दोहा में किया था (अफ़ग़ानिस्तान में शांति लाने के लिए समझौता), जिसमें "अफ़ग़ानिस्तान में भविष्य के राजनीतिक रोडमैप" की चर्चा की गई थी। इल समझौते के तहत अमेरिका ने 135 दिन के भीतर 5 सैन्य अड्डों से सभी सैनिकों को निकालने और साढ़े नौ महीने में पूरी तरह अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने का वायदा किया था। 

यह बेहद हैरान करने वाला है कि अमेरिकी सरकार ने तालिबान के साथ समझौता किया, जो राष्ट्रपति अशरफ़ गनी की सरकार के प्रति अनैतिक था। क्या यह अफ़ग़ानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं था?

समझौते में अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात का जिक्र है, जिसे एक राज्य के तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा मान्यता नहीं दी गई है। यह बिल्कुल ऐसा था कि अमेरिका कह रहा हो कि "एक बार आप अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लीजिए, फिर हम आपको मान्यता देंगे।" 

दोहा समझौते में तालिबान ने हिंसा का त्याग करने पर सहमति जताई है। लेकिन क्या बंदूक पसंद तालिबानियों के लिए इन शब्दों का कोई मोल है?

अफ़ग़ानिस्तान इस्लामिक अमीरात को क़ानूनी मान्यता

राज्य के अधिकार और कर्तव्यों पर मोंटेवीडियो कंवेशन की धारा 1 के मुताबिक, मान्यता लेने के लिए किसी राज्य में एक स्थायी आबादी, एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्रफल पर नियंत्रण, जिसके ऊपर किसी खास सरकार द्वारा प्रशासन और दूसरे राज्यों के साथ समझौता करने की क्षमता होनी चाहिए। 

लेकिन भले ही अगर राज्य इन अहर्ताओं की पूर्ति कर रहे हों, तब भी उन्हें अपने-आप से मान्यता नहीं मिल जाती। 

अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ राज्य को मान्यता देने के दो तरीके हैं- 1) डि फैक्टो मान्यता 2) डि जूर मान्यता

डि फैक्टो मान्यता किसी राज्य को तात्कालिक और तथ्यात्मक पहचान की स्थिति में दी जाती है। जिन राज्यों के पास डि-फैक्टो मान्यता होती है, उन्हे वैश्विक स्तर पर राज्य के तौर पर मान्यता होती, भले ही वे मान्यता मिलने वाली सभी शर्तों का पालन कर रहे हों, ना ही यह डि-फैक्टो राज्य किसी बहुपक्षीय या अंतरराष्ट्रीय संगठन का हिस्सा होते हैं, क्योंकि वैश्विक समुदाय सामूहिक तौर पर उन्हें पहचान देने से इंकार कर रही है। 

ऐसी मान्यता को किसी भी वक़्त वापस लिया जा सकता है। 

दूसरी तरफ डि-जूर मान्यता किसी राज्य को दी जाने वाली वह वैधानिक मान्यता होती है, जिसे राज्य बनने के लिए सभी शर्तों की पूर्ति, स्थिरता, पर्याप्त नियंत्रण और स्थायित्व के आधार पर दिया जाता है। डि-फैक्टो मान्यता सशर्त होती है, डि-जूर मान्यता अंतिम होती है, जिसे वापस नहीं लिया जा सकता। 

अफ़ग़ानिस्तान इस्लामिक अमीरात के मामले में, तालिबान को मोंटेवीडियो कंवेंशन की धारा 1 की शर्तों को पूरा करने के साथ-साथ वैश्विक समुदाय के सदस्य देशों से मान्यता भी लेनी होगी, तभी उसे डि-जूर मान्यता हासिल होगी। 

कुलमिलाकर, भले ही अफ़ग़ानिस्तान इस्लामिक अमीरात को दोहा समझौते में अमेरिका की बदौलत डि-फैक्टो मान्यता मिल गई हो, लेकिन डि-जूर मान्यता राष्ट्रों के परिवार पर निर्भर करेगी।

12 अगस्त को चीन, पाकिस्तान, भारत, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तुर्की, कतर, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, यूरोपीय संघ, नॉर्वे और यूएन के प्रतिनिधि कतर में एक क्षेत्रीय गोष्ठी में मिले, जहां उन्होंने फ़ैसला किया कि वे अफ़ग़ानिस्तान में सैनिक ताकत के दम पर थोपी गई किसी भी सरकार को मान्यता नहीं देंगे। 

अभी यह देखा जाना बाकी है कि शेष अंतरराष्ट्रीय समुदाय आगे क्या करता है। 

इस बीच हमारे सामने हज़ारों अफ़गान शरणार्थियों की समस्या खड़ी हो गई है, जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा समाधान के इंतज़ार में है।

(मोहन वी कातारकी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

On the Legal Recognition of the New Taliban Government in Afghanistan Within International Order

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