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माफ़ कीजिए, धोनी के दस्ताने में "बलिदान बैज" का लगाना कहीं से भी राष्ट्रवाद नहीं है!

पिछले कई सालों में देखा गया है कि राष्ट्रवाद को फ़ैशन बना दिया गया है। और ये एक ऐसा फ़ैशन है जिसे हर नागरिक को पालन करने की हिदायत दी जा रही है।
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फोटो साभार: Inkhabar

जब किसी भी देश की जनता राष्ट्रवाद को बहुत गंभीरता से ले लेती है तो वो राष्ट्रवाद कम, उन्माद, जुनून या पागलपन ज़्यादा हो जाता है। ऐसे में होता ये है कि एक बड़ी तस्वीर में तो जनता अपने देश का समर्थन कर लेती है (जिसमें शायद जनता के समर्थन की ज़रूरत होती ही नहीं है) लेकिन जो आम क्षेत्र हैं, उनमें देश का समर्थन करने से लोग कतराते हैं, और फिर शिकायत करते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। इस बात को प्रमाणित करने के लिए एक उदाहरण को देखा जा सकता है: 

भारत जैसे देश की बात करें, तो हम आमिर ख़ान के एक कथन पर "देश के सम्मान" और "राष्ट्रवाद" का हवाला दे कर उनकी फ़िल्मों का बहिष्कार करने की बात करने लगते हैं, और फिर हम ही एक नागरिक के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ भूल कर लाल बत्ती पार करते हैं, सड़कों पर कूड़ा फैलाते हैं और विदेश जाने के लिए तमाम जद्दोजहद करते हैं। इतना ही नहीं दहेज़ भी ले लेते हैं और रिश्वत भी, भ्रष्टाचार भी कर लेते हैं और अपने परिवार या जात-धर्म के नाम पर कई बार अपराधियों का समर्थन भी करने लगते हैं। इन दिनों तो ये चलन काफ़ी बढ़ा है।

उदाहरण में जो तुलना की गई है, वो कई लोगों को बग़ैर तर्क के लग सकती है, लेकिन आज जो राष्ट्रवाद के नाम पर ढकोसले इख़्तेयार कर लिए गए हैं उनमें कौन सा तर्क है, ये भी समझ में नहीं आता है। 

हिंदुस्तान जैसे देश के नागरिकों का राष्ट्रवाद या देशप्रेम तब उजागर होता है जब देश की टीम कोई खेल ख़ासकर क्रिकेट खेल रही होती है। हम सब राष्ट्रवादी तब होते हैं जब हमसे मीडिया ऐसा होने के लिए कहता है, या जब कोई ट्विटर ट्रेंड कहता है; तब हमें देशप्रेम के सारे नुक़्ते याद आ जाते हैं, लेकिन अब भी हम अपनी आम ज़िम्मेदारियों को निभाने में नाकाम ही साबित होते हैं।
 
पिछले कई सालों में देखा गया है कि राष्ट्रवाद को फ़ैशन बना दिया गया है। और ये एक ऐसा फ़ैशन है जिसे हर नागरिक को पालन करने की हिदायत दी जा रही है। ये ऐसे हो रहा है कि फ़िल्म से पहले भी जन गण मन गाना ज़रूरी है, जुलूस में वंदे मातरम कहना ज़रूरी है, या ये भी कि सरकार से या सेना से सवाल करने वाला राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। इस नरेटिव को इतना पका दिया गया है कि अब इसमें जलने की बू तो आ रही है, लेकिन जनता अभी भी इसे खाने से गुरेज़ नहीं कर रही है।

अबकी बार राष्ट्रवाद का मामला आया है विश्व कप 2019 में हुए भारत के पहले मैच से : दरअसल 5 जून को दक्षिण अफ़्रीका के साथ हुए मुक़ाबले में भारतीय टीम के विकेटकीपर बल्लेबाज़ और पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने दस्ताने पहने थे जिन पर भारतीय पैरा स्पेशल फ़ोर्स का चिन्ह "बलिदान बैज" बना हुआ था। बता दें कि एमएस धोनी को 2011 में लेफ़्टिनेंट कर्नल की उपाधि दी गई थी, जिसके बाद 2015 में उनकी ट्रेनिंग भी हुई थी। आईसीसी का एक नियम है, कि खिलाड़ियों के कपड़ों, बैट, दस्ताने वगैरह पर सिर्फ़ वही चिह्न लगाए जा सकते हैं जो देश के हैं, या किसी कंपनी के हैं, या किसी इवैंट, किसी विनिर्माता, या किसी चेरिटी के हैं; आईसीसी के इस नियम का मतलब ये है कि किसी भी खिलाड़ी के कपड़े वगैरह पर किसी सेना का कोई चिह्न नहीं हो सकता है, ये नियम में ही नहीं है। 

एक तरफ़ हिंदुस्तान में धोनी के इस दस्ताने की तारीफ़ हो रही थी कि उन्होंने "बलिदान बैज" लगा कर देश की सेना और उसमें शहीद हुए जवानों का सम्मान किया है, वहीं आईसीसी ने बीसीसीआई और एमएस धोनी को कहा कि इस तरह का कोई भी चिह्न लगाना आईसीसी के नियमों के ख़िलाफ़ है और धोनी इस तरह का कोई भी बैज नहीं लगा सकते हैं। बीसीसीआई ने भी आईसीसी से इस बात को ले कर अनुमति मांगी कि धोनी को "बलिदान बैज" पहनने दिया जाए। लेकिन आईसीसी से अपने निर्देश पर टिके रहते हुए धोनी को बैज पहनने की अनुमति देने से इंकार कर दिया है। 

ये मामला सिर्फ़ इतना ही था लेकिन इस बीच पिछले दो दिनों में और भी कई चीज़ें हुई हैं।
 
इस मामले पर दो पक्ष उभर कर सामने आए हैं। जिसमें एक पक्ष तथाकथित राष्ट्रवादी पक्ष है जिसका ये मानना है कि धोनी ने जो बैज पहना था उसका कोई भी राजनीतिक मतलब नहीं था और उन्होंने ऐसा सिर्फ़ देश की सेना के प्रति सम्मान दिखाते हुए किया है। इस पक्ष वाले लोगों में वो सभी लोग शामिल हैं जिन्होंने पिछले कई सालों से सेना और राष्ट्रवाद का मुद्दा लगातार उठाया है। एक बड़े मीडिया हाउस "रिपब्लिक" की बात मानें तो आईसीसी का ये फ़ैसला भारत की सेना का अपमान है, और ये कि आईसीसी को धोनी की देशभक्ति से दिक़्क़त है। यहाँ ये बात कह देनी ज़रूरी है कि धोनी ने या पैरा स्पेशल फ़ोर्स ने इस मुद्दे पर कोई भी टिप्पणी अभी तक नहीं की है।
 
हम उन चीज़ों पर बात करते हैं कि जो सोशल मीडिया और मेन्स्ट्रीम मीडिया पर फैलाई जा रही हैं। और आईसीसी के इस नियम को "नमाज़ पढ़ने" से जोड़ा 
जा रहा है। 

हर खेल के कुछ नियम होते हैं। और इन नियमों का पालन करवाने के लिए एक महकमा भी निर्धारित होता है। क्रिकेट के लिए ये महकमा आईसीसी है। आईसीसी के कुछ नियम हैं। उन नियमों के तहत ही हर खिलाड़ी काम कर सकता है। धोनी का बलिदान बैज वाला दस्ताना पहनना, तावीज़ या माला पहनने के बराबर नहीं है। क्योंकि ये एक निजी मामला या निजी फ़ैसला नहीं है, ये पूरी तरह से एक राजनीतिक मामला है। अपनी धार्मिक आस्था धारण करना, एक निजी विचार है। एक बात ये कही जा रही है कि आईसीसी को नमाज़ पढ़ने से कोई दिक़्क़त क्यों नहीं है! ये सांप्रदायिक द्वेष और नफ़रत हिंदुस्तान के "राष्ट्रवाद" का एक अमूल्य हिस्सा है। यहाँ ये बात बता देनी ज़रूरी है, कि मैदान पर कोई खिलाड़ी नमाज़ नहीं पढ़ता, कोई पूजा नहीं करता। खेल से पहले या खेल के बाद खिलाड़ी जो भी करें उससे आईसीसी को ज़ाहिर तौर पर कोई दिक़्क़त नहीं है, लेकिन खेल के दौरान कोई क्या कर रहा है, क्या संदेश पहुँचा रहा है, इससे आईसीसी को ज़रूर सरोकार है। 

"फ़ौज का अपमान, देश का अपमान" 

जिस राष्ट्रवाद से हमने अपनी बात शुरू की थी, वो व्यापक तो हो ही चला है, लेकिन बहुत कमज़ोर है। ये एक ऐसा राष्ट्रवाद बन गया है, जो दस्ताने पर लगे एक चिन्ह से भी ख़तरे में आ जाता है। लोग कह रहे हैं, कि ये भारत के शहीदों का अपमान है। लोग कह रहे हैं कि धोनी लेफ़्टिनेंट कर्नल हैं, और उन्हें ये बलिदान बैज अपने दस्ताने पर लगाने का अधिकार है। मेरा सवाल ये है कि जब धोनी मैदान पर बैटिंग करने आते हैं, तो वो भारतीय टीम के विकेटकीपर बल्लेबाज़ की तरह आते हैं, या फिर एक लेफ़्टिनेंट कर्नल की तरह? क्योंकि क्रिकेट में कर्नल की ज़रूरत है या नहीं इस पर मुझे कुछ नहीं कहना है; लेकिन मुझे ये पता है कि बल्लेबाज़ की ज़रूरत तो ज़ाहिर तौर पर है।

और ये देश का अपमान कैसे हो गया? देश का अपमान तो तब हुआ था जब धोनी ने इतने समय से क्रिकेट में होने के बा-वजूद एक नियम का उल्लंघन किया था। और राष्ट्रवाद क्या नियम तोड़ते हुए दस्ताने पर बलिदान बैज लगाने से ही आता है? तो क्या वो खिलाड़ी देशद्रोही हैं जिन्होंने ये बैज धारण नहीं किया था? और धोनी को क्यों बख़्श दिया जाए? देखने में आया है कि सुरेश रैना, आरपी सिंह जैसे खिलाड़ियों ने इस बात का धोनी का समर्थन करते हुए ये लिखा है कि उन्हें नहीं पता कि आईसीसी को इस बात से क्या परेशानी है कि धोनी देश के शहीदों के लिए अपना प्यार दिखा रहे हैं!

इसी सिलसिले में एक बार फिर से बहिष्कार करने वाले सोशल मीडिया देशभक्तों का जमावड़ा लग चुका है। लोग धोनी के समर्थन में आते हुए ये तक कहते दिख गए कि वो धोनी के साथ हैं, और वो इसके लिए आईसीसी वर्ल्ड कप का बहिष्कार तक करने को तैयार हैं। हालांकि इस बहिष्कार करने के सिलसिले का कुछ होता तो नहीं है, लेकिन लोगों के दिलों की नफ़रत और फ़र्जी राष्ट्रवाद ज़रूर उजागर हो जाता है।
 
फ़ौज का इतना इस्तेमाल क्यों? 

हमें इस घटना के मद्देनज़र ये भी सोचने की ज़रूरत है कि कब तक सेना का इस्तेमाल किया जाएगा? पिछले पाँच सालों की बात करें तो देश में भारतीय सेना के नाम पर तमाम चीज़ें कही गई हैं और की गई हैं। हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी प्रत्याशियों के प्रचार के दौरान लोगों से ये तक कहा कि वो इस बार सेना के नाम पर वोट करें। नोटबंदी के दौरान हुई मौतों को ये कह कर नकार दिया गया कि सरहद पर भी तो कई जवान रोज़ मरते हैं। सेना में काम करने को राष्ट्रवादी क़रार देना और बाक़ी हर तबक़े को नकार दिया जाना, हमने पिछले पाँच साल में लगातार देखा है।

जब हम सेना को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रदर्शित करते हैं, तो दरअसल हम अपनी उस मानसिकता का सबूत दे रहे होते हैं, जो बस जंग चाहती है, और जो बस हिंसा में भरोसा रखती है। 

इसका एक और पहलू ये है कि हमने सेना को एक ऐसे मक़ाम पर बैठा दिया है, जहाँ हमें सेना से जितनी उम्मीदें हैं, उतना ही हम उस सेना पर भार बढ़ा रहे हैं। और ये सब हो रहा है राष्ट्रवाद के नाम पर।

इस पूरे मामले में जिस तरह से देशभक्ति और राष्ट्रवाद की बहस फिर से छिड़ गई है वो नई क़तई नहीं है। ये वही राष्ट्रवाद है जो हर जंग में, हर भारत-पाकिस्तान के मैच में, और यहाँ तक कि बीजेपी की हर रैली में नज़र आता है। जिस तरह से बीजेपी के नेताओं ने धोनी का इस नियम को तोड़ने के बाद समर्थन किया है, उससे इसके राजनीतिक पहलू कई तरहों से उजागर हो रहे हैं। ग़ौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2019 से ये क़यास लगाए जा रहे थे कि गौतम गंभीर की तरह धोनी भी चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन शायद इसलिए नहीं लड़े क्योंकि धोनी का क्रिकेट बाक़ी था। आगे का क्या होगा इसका कुछ पता नहीं है। 

सेना के लिए प्रेम, देश के लिए प्रेम सब में है। लेकिन उसे ज़ाहिर करने का तरीक़ा क्या होगा, ये भी एक बड़ा सवाल है। क्रिकेट के मैदान की बात करें तो वहाँ देशप्रेम फ़ौज के चिन्ह वाले दस्ताने पहनने से साबित नहीं होगा, बल्कि किसी भी दस्ताने से कैच पकड़ कर देश को जिताने से साबित होगा! जिसका जो काम है, उसे वही काम करना चाहिए। लेकिन इन क़दमों के पीछे छुपे राजनीतिक या व्यक्तिगत हित क्या हैं, ये आगे जा कर ही पता चल सकेगा। 

इस मामले में उमड़ा देशप्रेम अभी सिर्फ़ एक शुरुआत है। देश, सेना देशप्रेम के नाम पर फैलाई जाने वाली नफ़रत तब खुल कर बाहर आएगी जब भारत का मैच 16 जून को पाकिस्तान से होगा। एक बार फिर एक फ़र्जी उन्माद हम सबमें जगाया जाएगा, जिससे बचना ज़रूरी है। इसलिए फ़र्जी उन्माद और राष्ट्रवाद से बच कर रहिए, अगर आप नागरिक के तौर पर अपनी निर्धारित ज़िम्मेदारियों का पालन कर रहे हैं, और सच और हक़ के लिए हमेशा आवाज़ उठाते हैं तो आप भी उतने ही देशभक्त हैं, जितना सीमा पर खड़ा जवान है।

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