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मौतें तभी रुकेंगी जब अस्पताल, डॉक्टर और बजट पर बात होगी

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बिहार भारत के उन चार राज्यों में है, जहाँ स्वास्थ्य कर्मियों की बहुत चिंताजनक कमी है। एलोपैथिक डॉक्टरों की उपलब्धता के मामले में भी बिहार सबसे नीचे है। नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक, बिहार में 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर है।
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फोटो साभार: Telegraph India

बिहार में क्या हो रहा है, हम सब देख रहे हैं। एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम यानी चमकी बुखार से बीमारी से बच्चे मरते चले जा रहे हैं। यूपी में भी ऐसा ही होता है। और ये लगभग हर साल होता है। कुछ दिन इस पर बात होती है और फिर हालात सामान्य होने पर बात ख़त्म हो जाती है।  

एक सरकारी तंत्र हमें यह अपने भाषणों से समझाने की कोशिश में लगा रहता है कि जो संपन्न हैवह ठीक-ठाक जीवन जी सकते हैं। जबकि असल सच्चाई  यह होती  है कि सरकारी तंत्र ऐसा माहौल बनाने में लगा रहता है जिसमे योग्यता की बजाए लूट का बोलबला रहता है। सरकारी अस्पतालसस्ते डॉक्टर, सस्ती दवा के बजाय महंगे प्राइवेट हॉस्पिटल, महंगी दवा और महंगे डॉक्टर से इलाज करवाने वाला माहौल खुद ब खुद बनता चला जाता है। और अंत में बचा हमारा समाज उसके दिमाग को मीडिया अपने सस्ते मनोरंजन से कुंद करती रहती है। 

साल 2017-18 में स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का केवल 2.5 फीसदी खर्च किया गया। जबकि इस साल में सारी मौतों में से 90 फीसदी मौतें स्वास्थ्य क्षेत्र यानी बीमारियों से जुड़ी थी।

आइए हम बिहार के स्वास्थ्य से जुड़े बजट पर बात करते हैं और जानते हैं कि असली ख़ामी कहां है? 

शायद यह तथ्य बहुत चौंकानेवाला हो सकता हैपर निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भरता के मामले में बिहार समूचे देश में अव्वल है। साल 2016 में द टेलीग्राफ़ द्वारा प्रकाशित नेशनल सैंपल सर्वे के आधार पर ब्रूकिंग्स इंडिया के विश्लेषण पर नज़र डालते हैं-

– बिहार में स्वास्थ्य पर औसतन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ख़र्च 348 रुपये हैजबकि राष्ट्रीय औसत 724 रुपया है। 
– निजी अस्पतालों में भर्ती का अनुपात राज्य में 44.6 फ़ीसदी हैजबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 56.6 फ़ीसदी है। 
– निजी अस्पतालों में दिखाने का अनुपात बिहार में 91.5 फ़ीसदी है। इसमें राष्ट्रीय अनुपात 74.5 फ़ीसदी है।
– बिहार की सिर्फ़ 6.2 फ़ीसदी आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा है। इसमें राष्ट्रीय औसत 15.2 फ़ीसदी है। 
– स्वास्थ्य पर बहुत भारी ख़र्च के बोझ तले दबे परिवारों का आँकड़ा 11 फ़ीसदी हैजबकि इसका राष्ट्रीय औसत 13 फ़ीसदी है।
– वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के बाद सालाना 10 फ़ीसदी बजट में बढ़ोतरी की ज़रूरत को बिहार सरकार ने लागू नहीं किया है।

हालाँकि 2014-15 में बजट का 3.8 फ़ीसदी हिस्सा स्वास्थ्य के मद में था और यह 2016-17 में 5.4फ़ीसदी हो गयालेकिन 2017-18 में यह गिरकर 4.4 फ़ीसदी हो गया। इस अवधि में कुल राज्य बजट में 88 फ़ीसदी की बढ़त हुई थी।

बिहार में स्वास्थ्य ख़र्च का लगभग 80 फ़ीसदी परिवार वहन करता हैजबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 74 फ़ीसदी है। 
बिहार में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैजो स्थापित मानकों पर खरा उतरता हो।
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव के मामले में भी बिहार पहले स्थान पर है। साल 2015 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने जानकारी दी थी कि हर एक लाख जनसंख्या पर एक ऐसा केंद्र होना चाहिए। इस हिसाब से बिहार में 800 केंद्रों की दरकार है। पर राज्य में 200 ही ऐसे केंद्र हैं।
राज्य में 3,000 से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अपेक्षित हैंलेकिन ऐसे केंद्रों की संख्या सिर्फ़ 1,883 है।
एक ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्र के तहत लगभग 10 हज़ार आबादी होनी चाहिएलेकिन बिहार में ऐसा एक उपकेंद्र 55 हज़ार से अधिक आबादी का उपचार करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बिहार भारत के उन चार राज्यों में हैजहाँ स्वास्थ्यकर्मियों की बहुत चिंताजनक कमी है।

एलोपैथिक डॉक्टरों की उपलब्धता के मामले में भी बिहार सबसे नीचे है। नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिकबिहार में 28,391लोगों पर एक डॉक्टर हैजबकि दिल्ली में यही आँकड़ा 2,203 पर एक डॉक्टर का है। 
नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल, 2018 के अनुसारबिहार की 96.7 फ़ीसदी महिलाओं को प्रसव से पहले पूरी देखभाल नहीं मिलती है। 
यूनिसेफ़ के अनुसारबच्चों में गंभीर कुपोषण के मामले में भी बिहार देश में पहले स्थान पर है। साल 2014-15 और 2017-18 के बीच पोषण का बजट भी घटाया गया है। 

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के असिसटेंट प्रोफेसर डॉ. नफ़ीज़ कहते हैं कि साल 1995से यह बीमारी गर्मियों में सैकड़ों लोगों  की जान ले लेती है। ऐसा तो है नहीं कि यह बीमारी अचानक से आती है और सैकड़ों बच्चों का जान ले लेती है। यह पूरी तरह से सरकारी तंत्र की बर्बादी की कहानी बयान करता है।

इतना होने के बाद भी इस बीमारी से लड़ने की दवाई नहीं है। इस बीमारी से परेशान होने वाले बच्चे समाज के सबसे निचले तबके से आते हैं। जिनमें कुपोषण का स्तर बहुत ऊँचा होता है। यह स्थिति होने के बाद भी बिहार के स्वास्थ्य बजट की खस्ताहाली से हम परिचित ही हैं। अगर प्रशासन चौकन्ना होता तो बहुत सारे बच्चों को बचाया जा सकता था।   

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