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माघ मेला: संगम में मेला बसाने वाले जादूगर हाथों का पुरसाहाल कोई नहीं

सैकड़ों सालों के ऐतिहासिक अर्ध कुम्भ, महाकुम्भ और माघ मेला में पीपा पुल के काम में लगा वर्ग उपेक्षा का शिकार होता रहा है।
Kumbh

सैकड़ों सालों के ऐतिहासिक अर्ध कुम्भ, महाकुम्भ और माघ मेला में पीपा पुल के काम में लगा वर्ग उपेक्षा का शिकार होता रहा है।

इलाहाबाद से बाहर गंगा-यमुना के संगम पर तम्बुओं का एक अस्थायी शहर बस चुका है। घने तम्बुओं से तने इस जगमगाते शहर की ढेर सारी विविधताएं हैं। शहर रूपी इस माघ मेला को विभिन्न जाति, धर्म, समुदाय, व्यवसाय और कलाओं से जुड़े लोग मिलकर महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसमें हजारों हाथों का जादू शामिल रहता है। 

लेकिन मेले की चकाचौंध में ये जादूगर हाथ कहाँ गायब हो जाते हैं, किसी को पता नहीं चलता है। उन जादूगर हाथों की भूमिका तलाशने के लिए माघ मेला-2021 की एक छोटी सी रपट हम आपसे साझा कर रहे हैं। हम देखने की कोशिश करेंगे कि चंद दिनों में दुनिया का सबसे बड़ा अस्थाई शहर बसाने वाले ये कौन लोग हैं? उनकी इस मेले के निर्माण में क्या भूमिका है और वे मेला में खुद को कहाँ पाते हैं?

इलाहाबाद (प्रयागराज) में हिंदी के माघ महीने में हर वर्ष संगम पर माघ मेला लगता है। छ वर्ष में अर्ध कुम्भ और बारह वर्ष में महा कुम्भ लगता है। इसका इतिहास बेहद समृद्ध है। मेला समय के अनुरूप परिवर्तन होता जा रहा है। लेकिन इस बार माघ मेला-2021 पिछले सैकड़ों साल में लगे मेले से बिल्कुल भिन्न है। इस बार मेला कोरोना महामारी के साये के बीच लग चुका है। इस बार माघ मेला का बजट लगभग 60 करोड़ का है।

माघ मेला बसाने वालों को मिले उचित सम्मान 

हर वर्ष माघ मेला की शुरुआत 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन से होती है। इस दिन पहला नहावन होता है। लेकिन मज़दूर मेला क्षेत्र में नहावन से एक महीना पहले से ही आने लगते हैं। मेला बसाने में पीडब्ल्यूडी, मेला प्रशासन, सिंचाई व स्वास्थ्य विभाग की प्रमुख भूमिका होती है। इन विभागों के अंतर्गत मेला बसाने के लिए भिन्न-भिन्न कामों के लिए टेंडर पास किया जाता है।

टेंडर के माध्यम से सक्षम ठेकेदारों का चुनाव होता है। ठेकेदार मेला बसाने के लिए स्थानीय और आस-पास के जनपदों से मज़दूरों को लाकर मेला बसाने का काम शुरू करते हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के रीवा जिले से भी बड़ी संख्या में मज़दूर मेला में मज़दूरी करने आते हैं। 

मेला बसाने में कुछ काम ऐसे होते हैं जिसे परम्परागत रूप से उस काम से जुड़े कुशल कारीगर या मज़दूर ही कर सकते हैं। पीपा पुल माघ मेले का एक अहम हिस्सा है। गंगा नदी के दोनों हिस्से में मेला बसता है। नदी को पार कर मेला क्षेत्र में आने-जाने के लिए कई पीपा पुल का निर्माण होता है और पीपा पुल का निर्माण इलाहाबाद के मल्लाह समुदाय से आने वाले कुशल कारीगर ही कर सकते हैं।

लेकिन सैकड़ों सालों के ऐतिहासिक अर्ध कुम्भ, महाकुम्भ और माघ मेला में पीपा पुल के काम में लगा वर्ग उपेक्षा का शिकार होता रहा है। इलाहाबाद का मल्लाह समाज यह मानता है कि पीडब्ल्यूडी द्वारा उनकी उपेक्षा दशकों से होती आ रही है। इलाहाबाद का मल्लाह समाज लम्बे समय से मांग कर रहा है कि पानी का टेंडर मल्लाहों का होना चाहिए। जबकि उन्हें उचित मज़दूरी, सुरक्षा और सम्मान नहीं मिल रहा है।

मेला में कौड़ी के भाव खटते पारम्परिक कारीगर

माघ मेला-2021 की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है। मेला बस चुका है। तम्बू तन रहे हैं। मेला प्रशासन में पंडाल की जगह को लेकर संत चीख चिल्ला रहे हैं। सँपेरे, बिसाती, फेरीवाले, भगवान बनकर भीख मांगते बच्चे मेला क्षेत्र में घूमना शुरू कर चुके हैं। महिलाएं मिट्टी का चूल्हा और जलावन के लिए कंडियां लिए इधर-उधर घूम रही हैं।

इस बार माघ मेला में कुल 6 पीपा पुल बनाया गया है। सभी पुल का काम लगभग पूरा हो चुका है। हमने सभी पुलों को बनाने वाले कारीगरों से बात की। पुल बनाने वाले कारीगर बुझे मन से निर्माण कार्य में जुटे हैं। बातचीत से पता चलता है कि उनके भीतर इस बात का मलाल है कि उन्हें सरकार और ठेकेदार की नज़र में कारीगर नहीं बल्कि सिर्फ एक मज़दूर समझा जाता है।

वहीं दूसरी ओर मज़दूर इस महंगाई में मिलने वाली न्यूनतम मज़दूरी से खासा नाराज भी हैं। देशभर की नदियों में पीपा पुल बांधने का काम इलाहाबाद में गंगा-यमुना किनारे बसा निषाद समाज ही करता है लेकिन सरकार और ठेकेदार इसके लिए मज़दूरों को अलग से भुगतान नहीं करते हैं।

पुल बांधने में लगे कारीगर राजा निषाद (28) कहते हैं कि "पीपा पुल बांधना बेहद मेहनत और कुशल कारीगरी का काम है। इसलिए पुल बांधने का काम आम मज़दूर नहीं कर सकते हैं। पीपा पुल नदी की बहती धारा के बीच बांधा जाता है। कोई दूसरा मजदूर जो तैरना नहीं जानता होगा बीच गंगा में डूब जाएगा।"

पीडब्ल्यूडी के स्टोर से लगभग छः टन वजन के बड़े-बड़े पीपा को मज़दूर लाकर नदी में करीने से लगाते हैं। लगभग 80 पीपा वाले एक पुल को बनाने में बीस दिन से अधिक का समय लगता है। शुरुआत में लगभग सौ मज़दूर लगते हैं लेकिन पुल बंधकर जैसे-जैसे तैयार होने लगता है ठेकेदार  मज़दूरों को काम से निकालने लगते हैं। दस से पन्द्रह मज़दूर ही होते हैं जो अंत तक काम करते हैं।

हमारी मुलाकात पीपा पुल नम्बर चार पर सुनील निषाद (नानू) से हुई। नानू पिछले अट्ठारह सालों से पीपा पुल बांधने का काम कर रहे हैं। नानू ने पुल बांधने का काम लगभग सौ मजदूरों के साथ शुरू किया था लेकिन वे ठेकेदार के कहने पर पचहत्तर फीसदी मज़दूरों को घर भेज चुके हैं। नानू के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पीपा पुल बनाने वाले मज़दूरों का कोई यूनियन नहीं है।

नानू कहते हैं कि "हमारा कोई यूनियन नहीं है। ठेकेदार जैसे मन वैसे चलाते हैं। आने का समय सुबह नौ बजे है लेकिन काम से वापस घर जाने का समय निश्चित नहीं है। बिना मल्लाह के पुल नहीं बांधा जा सकता है पर उन्हीं मल्लाहों को पुल बांधने के बाद निकाल फेंकते हैं। हम लोगों ने यूनियन बनाने की कई बार कोशिश की। लेकिन इतनी गरीबी और बेरोजगारी है कि यूनियन टूट जाता है।"

'महंगाई बढ़ रही है मज़दूरी घट रही है'

पीपा पुल बांधना एक कुशल कारीगर का काम है लेकिन उन्हें इसके लिए अधिक मजदूरी नहीं मिलती। पीपा पुल में काम करने वाले सभी मजदूरों का वेतन एक समान होता है। प्रतिदिन 400 रुपये मज़दूरी है। पुल बनाने में लगे मज़दूरों के अनुसार उन्हें 2013 में 350 रुपया मजदूरी मिलती थी और आज सात साल बाद 2021 में 400 रुपया मिल रहा है।

यदि देखा जाए तो पीपा पुल में काम करने वाले मज़दूरों की मज़दूरी में सात साल में 14.28 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यानी प्रति वर्ष मिलने वाली मज़दूरी में 2.04 फीसदी की वृद्धि हुई है। जबकि इसी समानांतर देखा जाये तो सातवां वेतन आयोग लागू होने के बाद सरकारी कर्मचारियों के वेतन में 2016 के बाद से लगभग 23 फीसदी की वृद्धि हुई। वहीं 2020 में साल-दर-साल के खुदरा मूल्य मुद्रास्फ़ीति 6.93 पहुंच गई, जो पिछले महीने में छह साल के उच्च स्तर 7.61 प्रतिशत से अधिक थी।

ऐसे में मजदूरों के सम्मुख आजीविका का संकट देखने को मिलता है। वहीं दूसरी ओर लॉकडाउन का बुरा प्रभाव भी मल्लाह समाज पर देखने को मिला था। लॉकडाउन से उपजी बेरोजगारी से मेला क्षेत्र में मजदूरों की संख्या में खासी बढ़ोतरी भी देखने को मिल रही है। कई ऐसे मज़दूर भी काम की तलाश में मेला परिसर में घूम रहे हैं जो प्रवासी मज़दूर थे या जिन्होंने पहले कभी मेला क्षेत्र में काम नहीं किया था।

लॉकडाउन में पैदल चलकर घर आने के बाद वे दोबारा शहर में जाकर काम करने की ताकत नहीं जुटा सके हैं। श्रमिक की अधिकता ने श्रमिकों को कम दाम पर काम करने को मजबूर कर दिया है। बालू की जिस बोरी को भरने के लिए पिछले वर्ष ढाई से तीन रुपये मिल रहे थे इस बार मज़दूरों को एक बोरी भरने का दो रुपया मिल रहा है।

बब्बू बिंद दारागंज की झोपड़ी में रहते हैं। छः लोगों का परिवार है। बब्बू लगभग 25 साल से मेला में बालू भरने का काम कर रहे हैं। बब्बू बताते हैं कि "सीमेंट की एक बोरी भरने का दो रुपया मिल रहा है। पिछली बार एक बोरी बालू भरने का ढाई रुपया मिलता था।" वे आगे कहते हैं कि "हर साल महंगाई बढ़ रही है और मज़दूरी घट रही है।"

इलाहाबाद शहर से बाहर फूलपुर से माघ  मेला में काम करने आये मज़दूर राजकुमार का पिछला पच्चीस हज़ार बकाया है। इस बार उन्हें पिछले अर्धकुम्भ से पचास रुपये कम मज़दूरी मिल रही है। राजकुमार कहते हैं कि "पिछली बार 2019 का चुनाव था तो सरकार अर्धकुम्भ को महाकुम्भ बना दी और मज़दूरी 400 रुपया मिलता था। इस बार माघ मेले में पचास रुपये मज़दूरी घट गई।"

काम के दौरान सुरक्षा और स्वास्थ्य का सवाल

मेला में नदियों पर पीपा पुल बनाना कठिन और खतरे से भरा काम माना जाता है लेकिन इसमें लगे मजदूरों के लिए सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं है। लगभग 500 से 600 किलो तक के भारी गाटर, बल्ली और चकर प्लेट को कई मज़दूर मिलकर पुल पर रखते हैं। मज़दूर मानते हैं कि पीपा पुल के काम में लगे लोगों को थोड़ी बहुत चोट नहीं आती है। दुर्घटना में कोई अंग कट कर निकल जाता है या जान चली जाती है।

दीपक निषाद (23) बताते हैं कि "अगर कोई चोटिल हो जाए या दुर्घटना का शिकार हो जाए तो ठेकेदार एक दिन दवा दिलवा देगा। उसके बाद कोई पूछने वाला नहीं होता है। ऐसा काम है कि इसमें चोट थोड़ी नहीं लगती, हड्डी टूट जाएगी या अंग ही खत्म हो जाएगा।"

इलाहाबद के पीपा पुल बांधने वाले मज़दूर इलाहाबाद के अलावा नासिक, कौशाम्बी, झांसी, गोरखपुर से लेकर बलिया तक पुल बांधने जाते हैं। कुछ मज़दूर ऐसे भी हैं जो अपना पूरा जीवन पुल बांधने के काम में लगा चुके हैं। उनकी मांग है उन्हें सरकारी नौकरी मिलनी चाहिए। मजदूरों के अनुसार सभी पुल में आठ सरकारी आदमी होते हैं वे सिर्फ पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों को यह बताने का काम करते हैं कि कितना काम हुआ और कितना बाकी है।

नानू कहते हैं कि "यूनिन न होने की वजह से हम सब दर-दर भटक रहे हैं। सबसे पहले मेला में आते हैं और सबसे बाद में जाते हैं। फिर भी कोई सुनने वाला नहीं है।"

नानू मल्लाह समाज के मज़दूरों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के विषय में बताते हैं कि "दस-बीस आदमी का पास बन जाता है बाकी लोगों को मेला में घुसने नहीं दिया जाता है। हमें चोर-उचक्कों की तरह देखते हैं। हमारे साथ बाहरी की तरह से व्यवहार किया जाता है, जैसे हम ही बाहरी हों। जबकि हमारा जीना-मरना सब इसी गंगा मईया में होता है।"

माघ मेला के पीपा पुल नम्बर चार के ठेकेदार मनीष कुमार मानते हैं कि पीपा पुल बनाने का काम इलाहाबाद का मल्लाह समाज ही कर सकता है। वे कहते हैं कि "यहां के लेबर एक्सपर्ट हैं। पूरे भारत में इलाहाबाद के मज़दूर ही जाकर पुल बनाते हैं। बाहर के मज़दूर डूब जाएंगे, इसलिए उन्हें इस काम में नहीं लगाया जाता।"  वे अपनी समस्या बताते हुए कहते हैं कि "एक पुल का ठेका 50 लाख का होता है। कई साल का पैसा भुगतान नहीं हुआ। एक साल का पैसा दूसरे साल मिलता है।"

सभी फोटो गौरव गुलमोहर

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। )

 

 

 

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