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मी लॉर्ड! न्याय हो गया, लेकिन होते हुए दिखा नहीं!!

सीजेआई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला ने इस पूरी प्रक्रिया पर कहा कि उसे जिस बात का डर था वही हुआ। न्याय की सबसे ऊँची जगह से भी उसे न्याय मिलने की उम्मीद ख़त्म हो गयी।
मी लॉर्ड! न्याय हो गया, लेकिन होते हुए दिखा नहीं!!
Image Courtesy: Live Law

न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए बल्कि न्याय होते दिखना भी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई के साथ जुड़े यौन उत्पीड़न के मामले में रंजन गोगोई को मिला क्लीन चिट भी ऐसा ही एक मामला है। जिसमें एक लाइन में यह कहा जा सकता है कि न्याय हो गया लेकिन न्याय होते हुए दिखता नहीं है। 

अब ऐसा क्यों कहा जा रहा है। इसे समझने के लिए इस पूरे मामले में किस तरह से न्यायिक प्रक्रिया अपनाई गई, इसे समझना जरूरी है। 

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर पर उन्हीं के अधीन काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। महिला ने अपना आरोप पत्र सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों के नाम भेजा। जिसे देश के चार प्रतिष्ठित डिजिटल वेब पोर्टल ने छापा। इसके बाद यह बात जगजाहिर हो गई। पहली नज़र में जिसने भी आरोप पत्र पढ़ा, सबने कहा कि आरोप गंभीर है और इन आरोपों की जांच की जानी चाहिए। महिला ने वीडियो फुटेज के साथ आरोप पत्र लिखा था और उसके अनुसार चीफ जस्टिस की तरफ़ से उसे इस तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है, जिसमें उसका पूरा परिवार पिस रहा है। 

इसके बाद आनन फानन में आकर चीफ जस्टिस ने दो अन्य जजों के साथ इस पर सुनवाई की। यह सुनवाई नहीं थी बल्कि एक तरह कि सफाई थी जिसमें चीफ जस्टिस ने कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट के साथ की जा रही किसी बड़ी साजिश का हिस्सा है। उन्होंने अपने 20 साल के करियर में   बहुत कम  कमाई की है और उन पर लगाया गया आरोप दुर्भावना से ग्रस्त है। चीफ जस्टिस की खुद के मामले में जज की भूमिका की तौर पर की गई कार्रवाई ने न्याय के आधारभूत सिद्धांत का ही माखौल उड़ा दिया कि कोई भी आरोपी खुद ही जज की भूमिका में आकर फैसला नहीं करेगा।

लोक विमर्श में  चीफ जस्टिस के इस कदम को खूब आलोचना की गई। और बहुतों ने कहा कि सीजेआई ने इस मामले में एक आम आरोपी की तरह व्यवहार किया है। जैसे कि एक आम आरोपी कहता है कि वह पाक साफ है, वह गलत काम कर ही नहीं सकता। कहने का मतलब यह है कि भले ही चीफ जस्टिस दोषी न हो या महिला के आरोप गलत हों लेकिन जरूरी यह था कि फैसले तक पहुंचने के लिए यथोचित न्यायिक प्रक्रिया को अपनाया जाता। इस कार्रवाई में सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही  अपना कद छोटा कर लिया।

इसके बाद इस मसले पर सुनवाई करने के लिए तीन जजों की इन हॉउस कमेटी यानी आंतरिक समिति बैठी। इस कमेटी को यह दायित्व सौंपा गया कि वह यह तय करे कि क्या इस आरोप में प्रथम दृष्टया गंभीरता दिखती है और क्या इसे विशाखा दिशा-निर्देश की तहत सुनवाई के के लिए आगे भेजा जा सकता है इस इन हॉउस कमेटी में सीनियोरिटी के लिहाज से  चीफ जस्टिस से तुरंत बाद आने वाले तीन जजों को शामिल किया गया।  यह जज हैं जस्टिस बोबडे, जस्टिस रमन्ना, जस्टिस इंदिरा बनर्जी। जस्टिस रमन्ना पर महिला कर्मचारी ने आपत्ति  जाहिर की।  महिला ने कहा कि मैं चीफ जस्टिस से घर के ऑफिस पर काम करती थी।  मुझे पता है कि जस्टिस रमन्ना और जस्टिस रंजन गोगोई अच्छे दोस्त हैं। ऐसे में जज के रूप में इन्हें स्वीकार करना उचित नहीं है। महिला की यह आपत्ति तार्किक थी। न्याय  के आधारभूत सिद्धांतों में से एक सिद्धांत यह भी है कि जज के तौर पर उन्हें शामिल नहीं किया जा सकता है जिनके पास न्याय को किसी भी तरह से  प्रभावित करने की थोड़ी से भी क्षमता होती है।  माहिला की इस आपत्ति को स्वीकार किया गया। जज को बदल दिया गया और नए जज के तौर पर इस कमेटी में जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हुईं। वही जस्टिस इंदु मल्होत्रा जिन्होंने सबरीमाला मामलें में असहमति की राय रखी थी।

सिविल  सोसाइटी के बहुतों सारे लोगों की  तरफ से सुप्रीम कोर्ट की इन हाउस कमेटी  के कदम पर आपत्ति जारी की गयी। इनकी तरफ से कहा गया मामला सीधे विशाखा गाइडलाइन की तहत जाना चाहिए था। इंटरनल कमेटी बनती और सीधे फैसले की  सुनवाई करती।  लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तीन जजों की इन हॉउस कमेटी ने एक हफ्ते के अंदर फैसला सुना दिया।   इस दौरान इन तीन जजों ने केवल इसी मामले की सुनवाई की। महिला तीन बार जजों के सामने पेश हुई और अंत में फैसला आया कि  सारे आरोप निराधार हैं। 

महिला ने सुनवाई के दौरान जजों से यह निवेदन भी किया कि उसे अपनी राय रखने के लिए वकील दिया जाए।  वह तीनों जजों के सामने खुद को सही तरह से प्रस्तुत करने के लिए एक वकील की सहायता चाहती है। उसकी इस मांग को ठुकरा दिया गया।  जजों ने कहा कि यह अनौपचारिक जांच है, इसके लिए वकील की जरूरत नहीं होती है। यानी वकील नहीं दिया गया। इस तरह से महिला के बार बार कहने पर भी उसे वकील नहीं मिला और उसने मजबूरी में इस जाँच से अपना हाथ पीछे खींच लिया।  महिला ने कहा बार बार उससे यह सवाल पूछा जा रहा था कि उसने इतनी देरी से शिकायत क्यों की? और भी ऐसे मसले थे जिसका जवाब देने के लिए उसे वकील की जरूरत थी।   

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में अप्रत्याशित घटना घटी। सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस  से बहुत अधिक जूनियर  तीन जजों की कमेटी ने चीफ जस्टिस का पक्ष सुनना शुरू किया। इसमें एक यह पेच आया कि एक जज ने असहमति जताई कि इस मामले की ठीक तरह से सुनवाई नहीं की जा रही है। इस कमेटी को जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक लेटर लिखा। लेटर में कहा इस मसले का इस तरह से निपटारा किया जाना गलत है। इससे सुप्रीम कोर्ट का साख कमजोर हो रही है। इन सारे आरोपों को किनारे लगाते हुए इन जजों की कमेटी ने भी कहा महिला के आरोपों में कोई दम नहीं है। इस  मामले को  बंद किया जाता है। 

इस तरह से यह मामला बंद कर दिया गया।

महिला ने इस इस पूरी प्रक्रिया पर यह बयान दिया कि उसे जिस बात का डर था वही हुआ। न्याय की सबसे ऊँची जगह से भी उसे न्याय मिलने की उम्मीद खत्म हो गयी।  

यहाँ यह समझने वाली बात है कि यह मामला यही पर खत्म नहीं हो सकता है। महिला अभी भी विशाखा दिशानिर्देश की तहत सुनवाई करने की मांग  रख  सकती है। जहाँ पर उसके मामले को विशाखा दिशानिर्देश की तरह सुना जाए। 

चीफ जस्टिस के समर्थक  कह रहे हैं कि चूँकि महिला ने सारे आरोप पहले ही सार्वजनिक कर दिए थे,इसलिए उसकी सुनवाई विशाखा दिशा-निर्देश के तहत नहीं की जा सकती है।  इस पर यह भी राय रखी जा रही है कि विशाखा दिशा-निर्देश का यह जरूरी तत्व नहीं है कि महिला द्वारा लगाए गए आरोप गोपनीय ही रखे जाए। और यहां पर मामला तो एक ऐसे व्यक्ति से जुड़ा है जो देश के सबसे सशक्त पदों में से एक से जुड़ा है। इसलिए विशाखा दिशा-निर्देश के तहत सुनवाई की जा सकती है।

इस मामले से जुड़ी छानबीन को सार्वजनिक किये  जाने से जुड़ी मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस इसकी छानबीन को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।  इस पर सुप्रीम कोर्ट ने साल 2003 में अपने  द्वारा दिए गए फैसले क फिर से दुहराया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा इंदिरा जयसिंह बनाम सुप्रीम कोर्ट के मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के ऐसे ही मामले की इंटरनल छानबीन को सार्वजनिक करने का मामला उठा गया था।जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला लिया था कि इंटरनल छानबीन या इन्क्वारी को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है।  तब से यह प्रथा बन चुकी है कि सुप्रीम कोर्ट  अपने इंटरनल इन्क्वारी को सार्जनिक न करे।  इस पर वरिष्ठ वकील  इंदिरा जय सिंह ने कहा साल 2003 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला सूचना के अधिकार कानून लागू होने से  पहले का कानून है और क़ानूनी नजरिये से एक खराब कानून है। 

इस पूरे मसले पर क़ानूनी मामलों के एक्सपर्ट गौतम भाटिया हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं  कि अगर यह कोई दूसरा मामला होता और सुप्रीम कोर्ट के पास आता तो सुप्रीम कोर्ट इस पूरे प्रोसेस को दस सेकंड के भीतर खारिज कर देता और एक फिर से नए ढंग से इन्क्वारी करने का आदेश दे देता।  क्या अनौपचारिक सुनवाई में पक्षकार के मूलभूत अधिकार को भी ख़ारिज  कर दिए जाने को न्याय होना कहा जा सकता है। क्या अनौपचारिक सुनवाई होने भर से यह हक मिल जाता है कि यथोचित प्रक्रिया न अपनायी जाए। जब पक्षकारों की हैसियत के बीच असंतुलन है तो वकील की जरूरत को पूरा क्यों नहीं  किया गया? और जब सुनवाई ही अनौपचारिक थी तो यह कैसे कहा जा सकता है कि चीफ जस्टिस को क्लीन चिट मिल गयी है। इस पर जस्टिस एपी शाह ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट का सालों साल पीछा करते रहेगा।

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